भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-119: Difference between revisions

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(19.7)  श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यं अनुमानं चतुष्टयम् ।
(19.7)  श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यं अनुमानं चतुष्टयम् ।
प्रमाणेष्वनवस्थानाद् विकल्पात् स विरज्यते ।।<ref>11.19.16</ref></poem>
प्रमाणेष्वनवस्थानाद् विकल्पात् स विरज्यते ।।<ref>11.19.16</ref></poem>
भगवान् कहते हैं : हम चार प्रमाण मानते हैं। (इसमें शुकदेव की विशेष बुद्धि प्रकट हुई है।) किसी चीज के बारे में सोचना हो, तो चारों प्रमाणों को एकमत होना चाहिए। यानी चारों प्रमाण एक ही मत बतायें, तो वह सिद्ध होगा। ये चार प्रमाण हैं –श्रुति, प्रत्यक्ष, एतिह्य, अनुमान। श्रुति यानी शब्द। इसका अर्थ ‘वेद’ भी होता है। हम जेल में थे, तब हमारे एक मित्र ‘क़ुरआन’ का अभ्यास कर रहे थे। एक दिन वे मुझसे कहने लगे कि “मुहम्मद पैगंबर ने बहुत बड़ा काम किया, ज्ञान-शून्य अरब लोगों को ज्ञानी बनाया, जंगली लोगों को सभ्य बनाया, जैसा गांधीजी ने किया।” मैंने कहा :“आप जो कह रहे हैं, वह सही नहीं है। क़ुरआन में ‘अल्लाह’, ‘हक्’ आदि शब्द आते हैं। ये शब्द तो मुहम्मद के पहले भी थे। जिनके पास ये शब्द थे, वे अरब लोग जंगली कैसे? इसलिए मुहम्मद ने जंगली लोगों को ऋषि बनाया, यह बात गलत है। मुहम्मद अनपढ़ पैगंबर थे :‘अनलेटर्ड प्रोफेट।’ उस समय जो शब्द मौजूद थे, उन्हीं का इस्तेमाल उन्होंने किया। गांधीजी ने भी किया किया? कोई नया शब्द नहीं दिया। ‘सत्याग्रह’ नया शब्द नहीं। सत्य और आग्रह, इन दो शब्दों को उन्होंने मात्र जोड़ दिया। यह अलग बात है कि समाज कमजोर अवस्था में होता है, तो उसे आप बल देते हैं। शब्द तो अनादि है। जितना अनादित्व मनुष्य को नहीं, उतना शब्द को है। मनुष्य का अस्तित्व नहीं था, तब भी शब्द था।” एक बार मद्रास में राष्ट्रभाषा प्रचार-समिति में मैंने कहा था कि “आप राष्ट्रभाषा का प्रचार करते हैं। लेकिन असली राष्ट्रभाषा तो कौए बोलते हैं। आप उत्तर में जाइये या दक्षिण में, कौए की एक ही भाषा सुनाई देती है :का-का-का (काँव्-काँव्-काँव्)। बल्कि दुनियाभर में उसकी यही भाषा सुनाई देगी। फिर इस भाषा में भी खूबी है। भाषा ‘का’ ही होती है, लेकिन उस ‘का’ के टोन (स्वर) अलग-अलग होते हैं। कहीं खतरा हो तो वहाँ ‘का’ अलग टोन में बोला जायेगा। आनन्द हुआ और दूसरे साथियों को बुलाना हो, तो अलग ढंग से बोला जायेगा।” मनुष्य को वेदना हो रही हो और वह शान्त रहे, तो किसी को उसकी उस वेदना का पता नहीं चलेगा। यदि मनुष्य ‘अरेरे’ कहेगा, तो आसपास के लोगों को पता चलेगा कि सचमुच इसे तीव्र वेदना हो रही है। ‘अरेरे’ शब्द कहाँ से आया? किसने बनाया? समझना चाहिए कि शब्द अनादि होते हैं। उनका टैम्परिंग (मनमाना उपयोग) नहीं होना चाहिए। ठीक अर्थ लेकर शब्दों का उपयोग होता है, तो उससे दुनिया की समझ बढ़ती है। प्रत्यक्ष यानी जो आँख-तान से देखा-सुना जा सकता है। लेकिन प्रत्यक्ष में भी संशय हो सकता है। इसीलिए चार प्रमाण माने गये हैं। एक में संशय रह गया, तो दूसरे प्रमाण से वह साफ हो सकता है।  
भगवान् कहते हैं : हम चार प्रमाण मानते हैं। (इसमें शुकदेव की विशेष बुद्धि प्रकट हुई है।) किसी चीज के बारे में सोचना हो, तो चारों प्रमाणों को एकमत होना चाहिए। यानी चारों प्रमाण एक ही मत बतायें, तो वह सिद्ध होगा। ये चार प्रमाण हैं –श्रुति, प्रत्यक्ष, एतिह्य, अनुमान। श्रुति यानी शब्द। इसका अर्थ ‘वेद’ भी होता है। हम जेल में थे, तब हमारे एक मित्र ‘क़ुरआन’ का अभ्यास कर रहे थे। एक दिन वे मुझसे कहने लगे कि “मुहम्मद पैगंबर ने बहुत बड़ा काम किया, ज्ञान-शून्य अरब लोगों को ज्ञानी बनाया, जंगली लोगों को सभ्य बनाया, जैसा गांधीजी ने किया।” मैंने कहा :“आप जो कह रहे हैं, वह सही नहीं है। क़ुरआन में ‘अल्लाह’, ‘हक्’ आदि शब्द आते हैं। ये शब्द तो मुहम्मद के पहले भी थे। जिनके पास ये शब्द थे, वे अरब लोग जंगली कैसे? इसलिए मुहम्मद ने जंगली लोगों को ऋषि बनाया, यह बात गलत है। मुहम्मद अनपढ़ पैगंबर थे :‘अनलेटर्ड प्रोफेट।’ उस समय जो शब्द मौजूद थे, उन्हीं का इस्तेमाल उन्होंने किया। गांधीजी ने भी किया किया? कोई नया शब्द नहीं दिया। ‘सत्याग्रह’ नया शब्द नहीं। सत्य और आग्रह, इन दो शब्दों को उन्होंने मात्र जोड़ दिया। यह अलग बात है कि समाज कमज़ोर अवस्था में होता है, तो उसे आप बल देते हैं। शब्द तो अनादि है। जितना अनादित्व मनुष्य को नहीं, उतना शब्द को है। मनुष्य का अस्तित्व नहीं था, तब भी शब्द था।” एक बार मद्रास में राष्ट्रभाषा प्रचार-समिति में मैंने कहा था कि “आप राष्ट्रभाषा का प्रचार करते हैं। लेकिन असली राष्ट्रभाषा तो कौए बोलते हैं। आप उत्तर में जाइये या दक्षिण में, कौए की एक ही भाषा सुनाई देती है :का-का-का (काँव्-काँव्-काँव्)। बल्कि दुनियाभर में उसकी यही भाषा सुनाई देगी। फिर इस भाषा में भी खूबी है। भाषा ‘का’ ही होती है, लेकिन उस ‘का’ के टोन (स्वर) अलग-अलग होते हैं। कहीं खतरा हो तो वहाँ ‘का’ अलग टोन में बोला जायेगा। आनन्द हुआ और दूसरे साथियों को बुलाना हो, तो अलग ढंग से बोला जायेगा।” मनुष्य को वेदना हो रही हो और वह शान्त रहे, तो किसी को उसकी उस वेदना का पता नहीं चलेगा। यदि मनुष्य ‘अरेरे’ कहेगा, तो आसपास के लोगों को पता चलेगा कि सचमुच इसे तीव्र वेदना हो रही है। ‘अरेरे’ शब्द कहाँ से आया? किसने बनाया? समझना चाहिए कि शब्द अनादि होते हैं। उनका टैम्परिंग (मनमाना उपयोग) नहीं होना चाहिए। ठीक अर्थ लेकर शब्दों का उपयोग होता है, तो उससे दुनिया की समझ बढ़ती है। प्रत्यक्ष यानी जो आँख-तान से देखा-सुना जा सकता है। लेकिन प्रत्यक्ष में भी संशय हो सकता है। इसीलिए चार प्रमाण माने गये हैं। एक में संशय रह गया, तो दूसरे प्रमाण से वह साफ हो सकता है।  


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Latest revision as of 11:36, 5 July 2017

भागवत धर्म मिमांसा

6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति

 
(19.7) श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यं अनुमानं चतुष्टयम् ।
प्रमाणेष्वनवस्थानाद् विकल्पात् स विरज्यते ।।[1]

भगवान् कहते हैं : हम चार प्रमाण मानते हैं। (इसमें शुकदेव की विशेष बुद्धि प्रकट हुई है।) किसी चीज के बारे में सोचना हो, तो चारों प्रमाणों को एकमत होना चाहिए। यानी चारों प्रमाण एक ही मत बतायें, तो वह सिद्ध होगा। ये चार प्रमाण हैं –श्रुति, प्रत्यक्ष, एतिह्य, अनुमान। श्रुति यानी शब्द। इसका अर्थ ‘वेद’ भी होता है। हम जेल में थे, तब हमारे एक मित्र ‘क़ुरआन’ का अभ्यास कर रहे थे। एक दिन वे मुझसे कहने लगे कि “मुहम्मद पैगंबर ने बहुत बड़ा काम किया, ज्ञान-शून्य अरब लोगों को ज्ञानी बनाया, जंगली लोगों को सभ्य बनाया, जैसा गांधीजी ने किया।” मैंने कहा :“आप जो कह रहे हैं, वह सही नहीं है। क़ुरआन में ‘अल्लाह’, ‘हक्’ आदि शब्द आते हैं। ये शब्द तो मुहम्मद के पहले भी थे। जिनके पास ये शब्द थे, वे अरब लोग जंगली कैसे? इसलिए मुहम्मद ने जंगली लोगों को ऋषि बनाया, यह बात गलत है। मुहम्मद अनपढ़ पैगंबर थे :‘अनलेटर्ड प्रोफेट।’ उस समय जो शब्द मौजूद थे, उन्हीं का इस्तेमाल उन्होंने किया। गांधीजी ने भी किया किया? कोई नया शब्द नहीं दिया। ‘सत्याग्रह’ नया शब्द नहीं। सत्य और आग्रह, इन दो शब्दों को उन्होंने मात्र जोड़ दिया। यह अलग बात है कि समाज कमज़ोर अवस्था में होता है, तो उसे आप बल देते हैं। शब्द तो अनादि है। जितना अनादित्व मनुष्य को नहीं, उतना शब्द को है। मनुष्य का अस्तित्व नहीं था, तब भी शब्द था।” एक बार मद्रास में राष्ट्रभाषा प्रचार-समिति में मैंने कहा था कि “आप राष्ट्रभाषा का प्रचार करते हैं। लेकिन असली राष्ट्रभाषा तो कौए बोलते हैं। आप उत्तर में जाइये या दक्षिण में, कौए की एक ही भाषा सुनाई देती है :का-का-का (काँव्-काँव्-काँव्)। बल्कि दुनियाभर में उसकी यही भाषा सुनाई देगी। फिर इस भाषा में भी खूबी है। भाषा ‘का’ ही होती है, लेकिन उस ‘का’ के टोन (स्वर) अलग-अलग होते हैं। कहीं खतरा हो तो वहाँ ‘का’ अलग टोन में बोला जायेगा। आनन्द हुआ और दूसरे साथियों को बुलाना हो, तो अलग ढंग से बोला जायेगा।” मनुष्य को वेदना हो रही हो और वह शान्त रहे, तो किसी को उसकी उस वेदना का पता नहीं चलेगा। यदि मनुष्य ‘अरेरे’ कहेगा, तो आसपास के लोगों को पता चलेगा कि सचमुच इसे तीव्र वेदना हो रही है। ‘अरेरे’ शब्द कहाँ से आया? किसने बनाया? समझना चाहिए कि शब्द अनादि होते हैं। उनका टैम्परिंग (मनमाना उपयोग) नहीं होना चाहिए। ठीक अर्थ लेकर शब्दों का उपयोग होता है, तो उससे दुनिया की समझ बढ़ती है। प्रत्यक्ष यानी जो आँख-तान से देखा-सुना जा सकता है। लेकिन प्रत्यक्ष में भी संशय हो सकता है। इसीलिए चार प्रमाण माने गये हैं। एक में संशय रह गया, तो दूसरे प्रमाण से वह साफ हो सकता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.19.16

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