भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-57: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "पृथक " to "पृथक् ") |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "होनेवाला" to "होने वाला") |
||
Line 29: | Line 29: | ||
आत्माग्रहण-निर्भातं पश्य वैकल्पिकं भ्रमम्।। | आत्माग्रहण-निर्भातं पश्य वैकल्पिकं भ्रमम्।। | ||
अर्थः | अर्थः | ||
इसलिए हे उद्धव! मिथ्या इंद्रियों से विषयों का भोग मत करो। आत्मा का ग्रहण न होने से प्रतीत | इसलिए हे उद्धव! मिथ्या इंद्रियों से विषयों का भोग मत करो। आत्मा का ग्रहण न होने से प्रतीत होने वाला यह (सांसारिक) भेदरूप भ्रम है, ऐसा समझो। | ||
</poem> | </poem> | ||
{{लेख क्रम |पिछला=भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-56|अगला=भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-58}} | {{लेख क्रम |पिछला=भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-56|अगला=भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-58}} |
Latest revision as of 13:53, 6 September 2017
22. संसार प्रवाह
1. मनः कर्म-मयं नृणां इंद्रियैः पंचभिर् युतम्।
लोकाल्लोक प्रयात्यन्य आत्मा तदनुवर्तते।।
अर्थः
मानव का कर्ममय मन पंचेंद्रियों सहित एक लोक से (देह से) दूसरे लोक में (देह में) जाता है। आत्मा उससे अलग ही है। वह उस मन का (सूक्ष्म शरीर का) अनुसरण करता है।
2. नित्यदा ह्यांग! भूतानि भवन्ति न भवन्ति च।
कालेनालक्ष्य-वेगेन सूक्ष्मत्वात् तन्न दृश्यते।।
अर्थः
हे उद्धव! काल के अतर्क्य वेग से सभी भूत क्षण-क्षण जनमते और मरते हैं। किंतु यह (स्थित्यन्तरण) सूक्ष्म होने से दिखाई नहीं देता।
3. सोऽयं दीपोऽर्चिषां यद्वत् स्रोतसां तदिदं जलम्।
सोऽयं पुमानिति नृणां मृणा गीर् धीर् मृषायुषाम्।।
अर्थः
‘यह उसी ज्योति का दीपक है या यह उसी प्रवाह का जल है’, ऐसा कहना और मानना मिथ्या है। (क्योंकि दीप-ज्योति और प्रवाह का जल क्षण-क्षण बदलता रहता है)। इसी तरह मानवों को ‘यह वही पुरुष है’ ऐसा मूढ़ जनों का कहना और समझना मिथ्या है।
4. निषेक-गर्भ-जन्मानि बाल्य-कौमार-यौवनम्।
वयोमध्यं जरा मृत्युर् इत्यवस्थास् तनोर् नव।।
अर्थः
गर्भाधान, गर्भवृद्धि, जन्म, बचपन, कुमारवस्था, युवावस्था, अधेड़पन, बुढ़ापा और मृत्यु- ये शरीर की नौ अवस्थाएं हैं।
5. प्रकृतेरेवमात्मानं अविविच्याबुधः पुमान्।
तत्वेन स्पर्श-संमूढ़ः संसारं प्रतिपद्यते।।
अर्थः
तत्वविचार द्वारा प्रकृति से आत्मा को पृथक् न करते हुए अज्ञानी मनुष्य विषयों से मोहित होते हैं और संसार के चक्कर में पड़ते हैं।
6. तस्मादुद्धव! मा भुंक्ष्व विषयान् अप्तदिंद्रियैः।
आत्माग्रहण-निर्भातं पश्य वैकल्पिकं भ्रमम्।।
अर्थः
इसलिए हे उद्धव! मिथ्या इंद्रियों से विषयों का भोग मत करो। आत्मा का ग्रहण न होने से प्रतीत होने वाला यह (सांसारिक) भेदरूप भ्रम है, ऐसा समझो।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-