भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-12: Difference between revisions
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सतुल्यातिशय-ध्वंसं यथा मंडल-वर्तिनाम्।। | सतुल्यातिशय-ध्वंसं यथा मंडल-वर्तिनाम्।। | ||
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जिस प्रकार इस नश्वर पृथ्वी पर मांडलिक राजाओं में बराबरी वालों से स्पर्धा, अधिक ऐश्वर्यवालों से मत्सर और ऐश्वर्य नष्ट होने का भय होता है, उसी प्रकार यज्ञादि कर्मों से प्राप्त | जिस प्रकार इस नश्वर पृथ्वी पर मांडलिक राजाओं में बराबरी वालों से स्पर्धा, अधिक ऐश्वर्यवालों से मत्सर और ऐश्वर्य नष्ट होने का भय होता है, उसी प्रकार यज्ञादि कर्मों से प्राप्त होने वाला स्वर्ग भी नश्वर है, ऐसा समझना चाहिए। | ||
4. तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्त्मम्। | 4. तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्त्मम्। |
Latest revision as of 13:53, 6 September 2017
4. माया तरण
1. कर्माण्यारभमाणानां दुःख-हत्यै सुखाय च।
पश्येत् पाक-विपर्यासं मिथुनी-चारिणां नृणाम्।।
अर्थः
दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति के लिए विषयासक्त मनुष्य कार्य प्रारंभ करते हैं। लेकिन ( उनके प्रयोजन का ) परिणाम उल्टा ही होता जाता है- यह बात ( मुमुक्षुओं को ) ध्यान रखनी चाहिए।
2. नित्यार्तिदेन वित्तेन दुर्लभेनात्म-मृत्युना।
गृहापत्याप्त-पशुभिः का प्रीतिः साधितैषु चलैः।।
अर्थः
नित्य पीड़ा देनेवाला दुर्लभ और जीव के लिए मृत्युरूप धन कमा लिया या घर-बार, बाल-बच्चे, सगे-संबंधी, पशु आदि जुटा लिए जाएँ, तो इन सबके क्षणभंगुर होने के कारण, उनसे क्या सुख मिलेगा?
3. ऐवं लोकं परं विद्यात् नश्वरं कर्म निर्मितम्।
सतुल्यातिशय-ध्वंसं यथा मंडल-वर्तिनाम्।।
अर्थः
जिस प्रकार इस नश्वर पृथ्वी पर मांडलिक राजाओं में बराबरी वालों से स्पर्धा, अधिक ऐश्वर्यवालों से मत्सर और ऐश्वर्य नष्ट होने का भय होता है, उसी प्रकार यज्ञादि कर्मों से प्राप्त होने वाला स्वर्ग भी नश्वर है, ऐसा समझना चाहिए।
4. तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्त्मम्।
शाब्दे परे चे निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।।
अर्थः
इसलिए अपना परम कल्याण जानने के इच्छुक पुरुष को शास्त्रों में पारंगत और परब्रह्म का साक्षात्कार किए हुए और शांति के मातृ-गृह, आश्रय सद्गुरु की शरण जाना चाहिए।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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