भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-147: Difference between revisions

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विक्षिप्यमाणैर् उत किं नु दूषणं
विक्षिप्यमाणैर् उत किं नु दूषणं
घनैरुपेतैर् विगतै रवेः किम् ।।<ref>11.28.25</ref></poem>
घनैरुपेतैर् विगतै रवेः किम् ।।<ref>11.28.25</ref></poem>
ज्ञानी सोच रहा है कि सारा इन्द्रियग्राम (इन्द्रिय-समूह) समाहित रहा, शान्त रहा तो मुझे क्या लाभ होनेवाला है – समाहितैः करणैः कः गुणो भवेत्? ‘गुण’ यानी लाभ। और इन्द्रियाँ विक्षिप्त रहीं, तो क्या बिगड़ेगा? – विक्षिप्यमाणैः करणैः किं नु दूषणम्? मिसाल दी : मानो बादल छा गये या बिखर गये, तो सूर्यनारायण का क्या बिगड़ा या क्या सुधरा? बादल बिखर गये, तो हमें सूर्यनारायण का दर्शन होता है, लेकिन उससे सूर्य को कोई लाभ नहीं। बादल छा गये, तो उससे हमें उदासीनता महसूस होती है, पर उसमें सूर्य की कोई हानि नहीं। ज्ञानी की उदासीनता या तटस्थता इसी तरह की होती है। चाहे इन्द्रयाँ शान्त रहें या विक्षिप्त, ज्ञानी को उससे कोई मतलब नहीं। इसका अर्थ हुआ, वह इन्द्रियों से अलग है। पुनः वह ज्ञानी कैसा है? तो बताते हैं : मत्सुविविक्तधाम्नः – जिसे मेरा (भगवान् का) धाम स्पष्ट हुआ, भगवान् के स्वरूप का स्पष्ट दर्शन हो गया है। उसे क्या लाभ और क्या हानि, चाहे इन्द्रियाँ शान्त हों या विक्षिप्त?
ज्ञानी सोच रहा है कि सारा इन्द्रियग्राम (इन्द्रिय-समूह) समाहित रहा, शान्त रहा तो मुझे क्या लाभ होने वाला है – समाहितैः करणैः कः गुणो भवेत्? ‘गुण’ यानी लाभ। और इन्द्रियाँ विक्षिप्त रहीं, तो क्या बिगड़ेगा? – विक्षिप्यमाणैः करणैः किं नु दूषणम्? मिसाल दी : मानो बादल छा गये या बिखर गये, तो सूर्यनारायण का क्या बिगड़ा या क्या सुधरा? बादल बिखर गये, तो हमें सूर्यनारायण का दर्शन होता है, लेकिन उससे सूर्य को कोई लाभ नहीं। बादल छा गये, तो उससे हमें उदासीनता महसूस होती है, पर उसमें सूर्य की कोई हानि नहीं। ज्ञानी की उदासीनता या तटस्थता इसी तरह की होती है। चाहे इन्द्रयाँ शान्त रहें या विक्षिप्त, ज्ञानी को उससे कोई मतलब नहीं। इसका अर्थ हुआ, वह इन्द्रियों से अलग है। पुनः वह ज्ञानी कैसा है? तो बताते हैं : मत्सुविविक्तधाम्नः – जिसे मेरा (भगवान् का) धाम स्पष्ट हुआ, भगवान् के स्वरूप का स्पष्ट दर्शन हो गया है। उसे क्या लाभ और क्या हानि, चाहे इन्द्रियाँ शान्त हों या विक्षिप्त?
इस श्लोक में ‘गुणात्मभिः’ शब्द डालकर हमें बहकाया है। उससे अर्थ लगाने में जरा मुश्किल होती है। यहाँ ‘गुण’ शब्द के दो अर्थ लिये हैं। इन्द्रियाँ त्रिगुणात्मक हैं और गुण यानी लाभ। इस तरह एक ही शब्द यहाँ दो अर्थों में आया है, इसलिए अर्थ करने वाला गोता खाता है। इन्द्रियों का स्वरूप त्रिगुणात्मक होता है। सुबह उठते हैं, तो उत्साह होता है; वह सत्वगुण है। फिर भूख लगने लगती है, तो भोजन बनाने की प्रेरणा होती है; वह रजोगुण है। दोपहर में खाने के बाद इन्द्रियाँ लेटने को कहती हैं यानी तमोगुण आया। सुबह सत्वगुण है तो प्रार्थना करें, अध्ययन करें। भूख लगी तो थोड़ा श्रम करें, भोजन बनाकर खा लें, अब इन्द्रियाँ लेटने को कह रही हैं तो थोड़ा लेट लें, उसमें हमारा क्या बिगड़नेवाला है? अर्थात् गुणों के अनुसार हम अपना कार्यक्रम बनायें, व्यवस्था कर दें तो कुछ बिगड़ता नहीं। इस तरह ज्ञानी गुणों के वश होता नहीं, तटस्थ उदासीन ही रहता है। भगवान् समझा रहे हैं कि फिर भी गुणों का संग छोड़ देना चाहिए। कब तक?  
इस श्लोक में ‘गुणात्मभिः’ शब्द डालकर हमें बहकाया है। उससे अर्थ लगाने में जरा मुश्किल होती है। यहाँ ‘गुण’ शब्द के दो अर्थ लिये हैं। इन्द्रियाँ त्रिगुणात्मक हैं और गुण यानी लाभ। इस तरह एक ही शब्द यहाँ दो अर्थों में आया है, इसलिए अर्थ करने वाला गोता खाता है। इन्द्रियों का स्वरूप त्रिगुणात्मक होता है। सुबह उठते हैं, तो उत्साह होता है; वह सत्वगुण है। फिर भूख लगने लगती है, तो भोजन बनाने की प्रेरणा होती है; वह रजोगुण है। दोपहर में खाने के बाद इन्द्रियाँ लेटने को कहती हैं यानी तमोगुण आया। सुबह सत्वगुण है तो प्रार्थना करें, अध्ययन करें। भूख लगी तो थोड़ा श्रम करें, भोजन बनाकर खा लें, अब इन्द्रियाँ लेटने को कह रही हैं तो थोड़ा लेट लें, उसमें हमारा क्या बिगड़नेवाला है? अर्थात् गुणों के अनुसार हम अपना कार्यक्रम बनायें, व्यवस्था कर दें तो कुछ बिगड़ता नहीं। इस तरह ज्ञानी गुणों के वश होता नहीं, तटस्थ उदासीन ही रहता है। भगवान् समझा रहे हैं कि फिर भी गुणों का संग छोड़ देना चाहिए। कब तक?  
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Latest revision as of 13:53, 6 September 2017

भागवत धर्म मिमांसा

11. ब्रह्म-स्थिति

(28.5) समाहितैः कः करणैर् गुणात्मभिर्
गुणो भवेन्मत्सुविविक्त-धाम्नः ।
विक्षिप्यमाणैर् उत किं नु दूषणं
घनैरुपेतैर् विगतै रवेः किम् ।।[1]

ज्ञानी सोच रहा है कि सारा इन्द्रियग्राम (इन्द्रिय-समूह) समाहित रहा, शान्त रहा तो मुझे क्या लाभ होने वाला है – समाहितैः करणैः कः गुणो भवेत्? ‘गुण’ यानी लाभ। और इन्द्रियाँ विक्षिप्त रहीं, तो क्या बिगड़ेगा? – विक्षिप्यमाणैः करणैः किं नु दूषणम्? मिसाल दी : मानो बादल छा गये या बिखर गये, तो सूर्यनारायण का क्या बिगड़ा या क्या सुधरा? बादल बिखर गये, तो हमें सूर्यनारायण का दर्शन होता है, लेकिन उससे सूर्य को कोई लाभ नहीं। बादल छा गये, तो उससे हमें उदासीनता महसूस होती है, पर उसमें सूर्य की कोई हानि नहीं। ज्ञानी की उदासीनता या तटस्थता इसी तरह की होती है। चाहे इन्द्रयाँ शान्त रहें या विक्षिप्त, ज्ञानी को उससे कोई मतलब नहीं। इसका अर्थ हुआ, वह इन्द्रियों से अलग है। पुनः वह ज्ञानी कैसा है? तो बताते हैं : मत्सुविविक्तधाम्नः – जिसे मेरा (भगवान् का) धाम स्पष्ट हुआ, भगवान् के स्वरूप का स्पष्ट दर्शन हो गया है। उसे क्या लाभ और क्या हानि, चाहे इन्द्रियाँ शान्त हों या विक्षिप्त? इस श्लोक में ‘गुणात्मभिः’ शब्द डालकर हमें बहकाया है। उससे अर्थ लगाने में जरा मुश्किल होती है। यहाँ ‘गुण’ शब्द के दो अर्थ लिये हैं। इन्द्रियाँ त्रिगुणात्मक हैं और गुण यानी लाभ। इस तरह एक ही शब्द यहाँ दो अर्थों में आया है, इसलिए अर्थ करने वाला गोता खाता है। इन्द्रियों का स्वरूप त्रिगुणात्मक होता है। सुबह उठते हैं, तो उत्साह होता है; वह सत्वगुण है। फिर भूख लगने लगती है, तो भोजन बनाने की प्रेरणा होती है; वह रजोगुण है। दोपहर में खाने के बाद इन्द्रियाँ लेटने को कहती हैं यानी तमोगुण आया। सुबह सत्वगुण है तो प्रार्थना करें, अध्ययन करें। भूख लगी तो थोड़ा श्रम करें, भोजन बनाकर खा लें, अब इन्द्रियाँ लेटने को कह रही हैं तो थोड़ा लेट लें, उसमें हमारा क्या बिगड़नेवाला है? अर्थात् गुणों के अनुसार हम अपना कार्यक्रम बनायें, व्यवस्था कर दें तो कुछ बिगड़ता नहीं। इस तरह ज्ञानी गुणों के वश होता नहीं, तटस्थ उदासीन ही रहता है। भगवान् समझा रहे हैं कि फिर भी गुणों का संग छोड़ देना चाहिए। कब तक?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.28.25

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