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[[चित्र:Girish-Bharadwaj.jpg|thumb|250px|गिरीश भारद्वाज]]
'''गिरीश भारद्वाज''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Girish Bharadwaj'', जन्म- [[2 मई]], [[1950]], सुल्लिया, [[कर्नाटक]]) भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता एवं मैकेनिकल इंजीनियर हैं, उन्हें [[भारत]] के दूरदराज के गांवों में कम लागत और पर्यावरण के अनुकूल 127 पुलों के निर्माण के लिए भारत के 'सेतु बंधु' और 'ब्रिजमैन' के नाम से जाना जाता है। उन्हें [[2017]] में [[भारत सरकार]] द्वारा [[पद्म श्री]] पुरस्कार से सम्मानित किया गया था
==परिचय==
गिरीश का जन्म [[2 मई]], [[1950]] को सुल्लिया, [[कर्नाटक]] में हुआ था। उन्होंने [[1973]] में पी. ए. एस. कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, मंड्या से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की थी।
==पुल निर्माण==
मैकेनिकल इंजीनियर गिरीश भारद्वाज ने भारत के उन पिछड़े इलाकों में 100 से ज्यादा झूलते पुल बनाए हैं जहां सरकारी उदासीनता या अन्य किसी कारण से पुल नहीं बन सके थे। इस वजह से इन इलाकों के लोगों के जीवन स्तर पर खासा प्रभाव पड़ रहा था, जिसे गिरीश ने करीब से महसूस किया। उन्होंने ऐसे लोगों की समस्या और पीड़ा को समझकर अपने ज्ञान का सदुपयोग किया और ऐसे क्षेत्रों में सैकड़ों पुलों का निर्माण किया। इसी वजह से आज उन्हें 'पुल बंधु' के रूप में भी जाना जाता है।


वे जिस क्षेत्र में अपना कॅरियर बनाना चाहते थे, उसमें नहीं जा सके और उन्होंने कारोबार करने का निश्चय किया। इसी बीच गिरीश के एक सरकारी अधिकारी मित्र, जो उनकी प्रतिभा से परिचित थे, ने उनसे एक गांव को जोड़ने के लिए पुल बनाने में मदद मांगी। गिरीश ने इसे स्वीकार किया और कुछ दिन में रस्सी एवं लकड़ी को जोड़कर एक पैदल यात्री पुल का निर्माण कर डाला। इसे सहारा देने के लिए उन्होंने स्टील और लोहे की रॉडों का प्रयोग किया जिसके सहारे लकड़ी टिकी रही। इसके बाद से तो गिरीश का यही ध्येय हो गया। वे धीरे-धीरे उन गांवों को मुख्य धारा से जोड़ने लगे जहां पुल नहीं होने की वजह से स्थानीय लोगों के जीवन स्तर पर खासा प्रभाव पड़ रहा था।
खास बात यह है कि गिरीश की तकनीकी से पारंपरिक पुलों की तुलना में सिर्फ 10 फीसद की लागत में ही पुल का निर्माण बड़े ही कम समय में हो जाता है। प्रतीक के तौर पर अत्यधिक दुर्गम पश्चिमी घाट में उनके बनाए पुल लोगों के लिए काफी मददगार साबित हुए हैं। गिरीश भारद्वाज के अनुसार- 'मैं एक गांव से जुड़े सेमिनार में गया था जहां सुदूर क्षेत्रों से करीब 80 से ज्यादा लोग आए थे। लेकिन जब इन्होंने अपने आवागमन संबंधी कठोर अनुभव बताने शुरू किए तो मन सिहर गया। विचार आया कि क्यों न ऐसे लोगों के लिए कुछ किया जाए। अपने इंजीनियर मित्रों की मदद से मैंने कुछ पुलों के नक्शे बनाकर सरकारी एजेंसियों से संपर्क किया और उन्हें अपने विचार और कार्य से अवगत कराया। सरकारी मशीनरी ने भी पूरी मदद की और स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से मैं आज तक यह काम करता आ रहा हूं।'

Revision as of 11:47, 7 November 2017