असुरनज़ीरपाल: Difference between revisions

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Latest revision as of 09:50, 8 June 2018

असुरनज़ीरपाल (884-849 ई.पू.) यह असुर नृपति प्राचीन काल के प्रधानतम दिग्विजयी सम्राटों में से था। अपने पिता तुकुल्तीनिनुर्ता द्वितीय के निधन के पश्चात्‌ वह असुरों की गद्दी पर बैठा ओर उसके प्रताप से असुर राज्य तत्कालीन सभ्य संसार का हर क्षेत्र में विजाएक बन गया। प्राचीन भारतीय साहित्य में जो क्रूरकर्मा असुरों की रक्तिम विजयों का निर्देश मिलता है उनका उद्गम इसी असुरनज़ीरपाल के प्रयत्न हैं। वह न केवल राज्यों और देशों को जीतता था, जीवित शत्रुओं की खाल खिंचवा लिया करता था, बल्कि उसने अपनी दिग्विजयों में क्रूरता की एक नई रीति ही चला दी। वह देश या नगर को जीत उसकी समूची प्रजा को अपने पूर्व स्थान से उखाड़कर अपने साम्राज्य के दूसरे प्रदेशों में बसा देता था जिससे फिर वह विद्रोह न करे या उसके भीतर स्वदेश की रक्षा के लिए कोई भावना ही जीवित न रह जाए। अक्सर तो वह अपने विजित शत्रुओं के हाथ ओर कान कटवाकर उनकी आँखें निकलवा लेता, फिर उन्हें एक डाल पर अंबार खड़ा कर देता और भूखों मरने के लिए छोड़ देता। बच्चे जिंदा जला डाले जाते और राजाओं को असूरिया ले जाकर उनकी खाल खिंचवा ली जाती। असुरनज़ीरपाल की चलाई इस क्रुर प्रथा की परंपरा बाद के असुर राजाओं ने भी कायम रखी, यद्यपि धीरे धीरे उसका हास होता गया।

असुरनज़ीरपाल दिग्विजय के लिए पहले पूर्व और उत्तर की ओर बढ़ा और दक्षिण अरमेनिया को सिलीशिया तक उसने रौंद डाला। अनेक राज्यों को जीतता वह प्राचीन प्रबल खत्तियों की राजधानी कारख़ेमिश पहुँचा और उसे जीत, फ़रात लाँघ, उत्तरी सीरिया की ओर चला। फिर लेबनान और फिनीकी नगरों का आत्मसमर्पण स्वीकार करता जब वह समुद्रतट से लौटता दमिश्क के सामने जा खड़ा हुआ तब उसकी गति की तीव्रता से सीरिया के राजा को काठ मार गया। उसको विनीत करता असुरसम्राट् जब राजधानी लौटा तब मर्दित मानवता बिलबिला रही थी और राह के विध्वस्त राज्य, नष्ट नगर, उजड़े ओर जले गाँव, असुर सेनाओं की गति की कथा कह रहे थे।

असुरनज़ीरपाल मात्र दिग्विजयी न था, अपूर्व सैन्यसंचालक और इसका संगठयिता भी था। रथों को कम कर घुड़सवारों की संख्या बढ़ा और पहली बार युद्ध में यंत्रों का प्रयोग कर उसने असूरी सेना का नया संगठन किया। अपनी राजधानी 'असुर' से हटाकर कल्ख़ी में स्थापित की ओर वहीं उसने अनेक प्रासादों तथा मंदिरों का निर्माण कराया। प्राचीन साहित्य में जो मय आदि वास्तुकारों का उल्लेख मिलता हे उनके शिल्प की प्रतिष्ठा विशेषत: असुरज़ीरपाल के ही समय हुई थीं। तत्कालीन सभ्यता के सारे देशों में तब असुर शिल्पियों और वास्तुकारों की माँग होने लगी। स्वयं असुरनज़ीरपाल की दिग्विजयों के वृत्तांत स्तभों और शिलाखंडों पर लिख लिए गए और इस प्रकार उसका नाम इतिहास में भय और क्रूरता का पर्याय हो गया।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 309 |

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