असहयोग आंदोलन: Difference between revisions
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प्रथम विश्वयुद्ध में विजय के बाद अंग्रेज़ों ने दमनचक्र और भी तेज कर दिया। ऐसे अवसर पर 1919-20 ई0 में गांधीजी ने असहयोग का कार्यक्रम देश के सामने रखा। इसके मुख्य अंग थे- | प्रथम विश्वयुद्ध में विजय के बाद अंग्रेज़ों ने दमनचक्र और भी तेज कर दिया। ऐसे अवसर पर 1919-20 ई0 में गांधीजी ने असहयोग का कार्यक्रम देश के सामने रखा। इसके मुख्य अंग थे- |
Revision as of 14:20, 26 September 2010
भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी द्वारा व्यापक रूप से अपनाया गया मार्ग जिसकी परिणति 1947 ई0 में अंग्रेज़ों के यहाँ से हटने और देश की स्वाधीनता में हुई। यद्यपि विदेशी शासकों के असहयोग के प्रयत्न इससे पहले भी हुए थे, इस विषय पर ग्रंथ-रचना भी हो चुकी थी, भारत में ही नामधारी सिक्खों के गुरु गुरुनामसिंह ने अंग्रेज़ों के विरूद्ध इसका प्रयोग किया था। पर गांधीजी का असहयोग आंदोलन सर्वथा नवीन धरातल पर था। जिस समय उन्होंने देश को यह कार्यक्रम दिया, उस समय और कोई अन्य मार्ग नहीं था। प्रार्थना-पत्रों की राजनीति अपनी मृत्यु मर चुकी थी। क्रांतिकारी आंदोलन ने देश में व्यापक जागृति तो उत्पन्न की, परंतु ब्रिटिश साम्राज्य की सैनिक शक्ति के सामने उससे लक्ष्य की प्राप्ति की संभावना नहीं थी।
प्रथम विश्वयुद्ध में विजय के बाद अंग्रेज़ों ने दमनचक्र और भी तेज कर दिया। ऐसे अवसर पर 1919-20 ई0 में गांधीजी ने असहयोग का कार्यक्रम देश के सामने रखा। इसके मुख्य अंग थे-
- सरकारी स्कूलों-कालेजों का बहिष्कार,
- सरकारी नौकरी का बहिष्कार,
- सरकारी अदालतों का बहिष्कार,
- सरकारी उपाधियों का बहिष्कार,
- तत्कालीन सरकारी कौसिलों और धारासभाओं का बहिष्कार,
- विदेशी वस्तुओं का वहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग।
अहिंसा इस आंदोलन का प्राण थी और प्रतिपक्षी के प्रति भी मैत्रीभाव इसका मूलमंत्र था। सारा आंदोलन अंग्रेज़ों की साम्राज्यवादी नीति के विरूद्ध था, अंग्रेज़ जाति के विरूद्ध नहीं। स्वयं कष्ट सहना इसका आधार था, परपीड़ा के लिए इसमें स्थान नहीं था। इतिहास में प्रथम बार इतने व्यापक क्षेत्र में व्यवस्थित रूप से यह आंदोलन चला और समाप्त हुआ। इससे उत्पन्न जागृति से ही देश स्वतंत्रता प्राप्त कर सका।
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