सिंहासन बत्तीसी छब्बीस

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एक दिन राजा विक्रमादित्य के मन में विचार आया कि वह राजकाज की माया में ऐसा भूला है कि उससे धर्म-कर्म नहीं बन पाता। यह सोच वह तपस्या करने जंगल में चला। वहां देखता क्या है कि बहुत-से तपस्वी आसने मारे धूनी के सामने बैठे साधना कर रहे हैं और धीरे-धीरे अपने शरीर को काट-काटकर होम कर रहे हैं। राजा ने भी ऐसा ही किया। तब एक दिन शिव का एक गण आया और सब तपस्वियों की राख समेटकर उन पर अमृत छिड़क दिया। सारे तपस्वी जीवित हो गये, लेकिन संयोग से राजा की ढेरी पर अमृत छिड़कने से रह गया, तपस्वियों ने यह देखकर शिवजी से उसे ज़िन्दा करने की प्रार्थना की और उन्होंने मंजूर कर ली। राजा जी गया।

शिवजी ने प्रसन्न होकर उससे कहा: जो तुम्हारे जी में आये, वह मांगो।

राजा ने कहा: आपने मुझे जीवन दिया है तो मेरा दुनिया से उद्धार कीजिये।

शिव ने हंसकर कहा: तुम्हारे समान कलियुग में कोई भी ज्ञानी, योगी और दानी नहीं होगा।

इतना कहकर उन्होंने उसे एक कमल का फूल दिया और कहा, "जब यह मुरझाने लगे तो समझ लेना कि छ: महीने के भीतर तुम्हारी मृत्यु हो जायगी।"

फूल लेकर राजा अपने नगर में आया और कई वर्ष तक अच्छी तरह से रहा। एक बार उसने देखा कि फूल मुरझा गया। उसने अपनी सारी धन-दौलत दान कर दी।

पुतली बोली: राजन्! तुम हो ऐसे, जो सिंहासन पर बैठो?

वह दिन भी निकल गया। अगले दिन उसे सत्ताईसवीं पुतली जगज्योति ने रोककर यह कहानी सुनायी:


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