User:रविन्द्र प्रसाद/2
"प्रेम" - अपने आपको पाने की तड़फ़
यह है प्रेम की पराकाष्ठा ! ... प्रेम? यानि अपने आपसे मिलने की बैचैनी ! यानि अपने आपसे मिलने की एक तड़फ़... पर इस प्रेम में मात्र अपना प्रिय ही दिखाई देता है... न अपना मान, न अपमान। प्रेमी इन सबसे परे हो जाता है... महर्षि शाण्डिल्य वज्रनाभ को "श्रीराधाचरित्र" सुनाते हुये भाव रस में निमग्न हो रहे थे। मानापमान से दूर होना हे वज्रनाभ ! कोई छोटी स्थिति नहीं है... पर प्रेम की महिमा निराली है... वहाँ अगर अपमान से मिलता हो प्रियतम तो अपमान ही हमारे लिए अमृत है... और ये बात भी ध्यान देंने की बात है... कि अगर मान अपमान का ध्यान है तो वह प्रेम ही नहीं है... चातक पक्षी माँगता है पानी... पर बादल बदले में ओले बरसाता है... पर इसके बाद भी चातक का प्रेम और बढ़ता है... बढ़ता ही जाता है बादल के प्रति। हे वज्रनाभ ! प्रेम उसे नहीं कहते जो क्षण में बढ़े और क्षण में घटे। प्रेम तो निरन्तर बढ़ने का नाम है। जैसे अग्नि में सुवर्ण को तपाया जाए तो उसकी कीमत, उसकी स्वच्छता निर्मलता और बढ़ती है... ऐसे ही प्रेमी जितना अपमानित होता है... वो और निखरता है... निखरता ही जाता है। नेत्रों में भाव के अश्रु भरकर हँसे महर्षि शाण्डिल्य... पर प्रेम करना तो एक मात्र श्रीकृष्ण को ही आता है... । देखो ! ऐसा प्रेमी कहाँ मिलेगा?
तुम्हे क्या हो गया कन्हैया? दो दिन हो गए... तुम गुमसुम से रहते हो... किसी से अच्छी तरह बातें भी नहीं करते। बताओ हमें तो ! बताओ ! हम तुम्हारे सखा हैं?
वृन्दावन की भूमि में कृष्ण सखाओं ने कृष्ण से आज पूछा था।
क्यों की दो दिन हो गए... न ये पहले की तरह बोलते हैं... न पहले की तरह हँसते हैं... कभी फूलों को देखते हैं... कभी मोरों को... कभी बहती हुयी यमुना में त्राटक करते हैं। पता नहीं... पर मेरा मन नहीं लग रहा... ये श्रीधाम की दिव्य शोभा भी मुझे चुभने लगी है... गूँजा की माला तोड दी थी ये कहते हुए... या टूट गयी थी। हमारी ओर देखो !
मधुमंगल सखा ने कृष्ण के चिबुक को पकड़ कर ऊपर उठाया।
अब बताओ ! क्या बात है? "राधा" नहीं आई दो दिन हो गए हैं ...उदास से कृष्ण बोले। अब कौन राधा? तोक सखा ने पूछा। बरसाने की राधा?... मनसुख हँसता हुआ बोला हाँ... पर तुम लोग मेरा मजाक उड़ाओगे इसलिये मैने तुम लोगों को नहीं बताया... बड़ी मासूमियत से बोले थे कृष्ण। हमारे सखा कृष्ण का कौन मजाक उड़ा सकता है... अच्छा ! ये तो बता मिले कहाँ थे तुम दोनों?
हँसते हुए मनसुख ने ही पूछा।
तू फिर हँस रहा है... इसलिये मैं तुझे नहीं बताता... रोनी सी सूरत बना ली थी कृष्ण ने। अच्छा ! अच्छा ! मुझे बता ...कहाँ मिले थे तुम दोनों?
तोक ने सब सखाओं को हटा कर कृष्ण को बड़े प्रेम से पूछा था।
बरसाने ! कृष्ण ने अपनी बात बताई... अब तू बरसाने कब गया कन्हैया? परसों ! ... सब सखा ऐसे पूछ रहे थे जैसे मनोचिकित्सक हों ये सब। हूँ... सखा हैं कृष्ण, तो सबको चिन्ता होनी स्वाभाविक ही है। अरे ! इतना क्यों सोचते हो... पास में ही तो है बरसाना... चलो ! मनसुख ने तुरन्त समाधान किया। कृष्ण प्रसन्न हुये... सिर उठाकर मनसुख को देखा। क्या तुम इन सबसे पूछते हो... हम से पूछो... तुरन्त समाधान है... अरे ! ब्राह्मण हैं... सबका समाधान करने के लिये ही तो पैदा हुए हैं... मनसुख सहजता में बोलता है... ये कुछ भी बोले... सुनने वालों को हँसी आही जाती है। तो पोथी पत्रा धर लिए हो पण्डित मनसुख लाल !... कि अभी मुहूर्त ठीक है? देख लो... कहीं इस नन्द के सपूत के चक्कर में हम न पिट जाएँ... तोक ने ये बात मनसुख को छेड़ने के उद्देश्य से कही। नाटक करने में माहिर है मनसुख... आँखें बन्दकर उँगलियों में कुछ गिना... हाँ शुक़्र उच्च है... इसलिये प्रेम के लिये ये समय ठीक है चलो... कृष्ण उतावले हैं बरसाने जाने के लिए। रुको रुको ! फिर रोक दिया मनसुख ने... नाक के साँस की स्थिति देखि... दाहिना स्वर चल रहा है या बाँया... चल रहा था बाँया... तो लेट कर... लोट कर मनसुख ने दाहिना स्वर चला ही दिया ( ज्योतिष में स्वर विज्ञान भी है ...कोई भी कार्य करने से पहले नाक से साँस किस तरफ से निकल रही है देख लो... अगर दाहिना चल रहा है... तो उस समय काम पर निकलो तो कहते हैं सफलता मिलेगी... अगर बायाँ चल रहा है तो रुक जाओ ) चलो ! अब ठीक है... कृष्ण तो इस समय प्रेम रस में डूबे हैं... जैसा कह रहे हैं सखा वैसा ही मान रहे हैं... सखाओं की बातों में ध्यान भी नहीं है कृष्ण का... उनका समूचा ध्यान तो "बृषभान नन्दिनी" की ओर ही है। चल दिए बरसाने की ओर... सब सखा मिलकर।
आज किसी ने कुछ नहीं खाया है... क्यों की जब कृष्ण ही नहीं खायेगा... तब सखाओं के खाने का तो कोई मतलब ही नहीं है। और कृष्ण को भूख कहाँ... जेठ का महीना अभी अभी लगा ही है... पर सूर्य का ताप अपनी चरम पर है... बरसाने में बृषभान जी के महल के पीछे छुपे हैं... श्रीराधारानी कब निकलेंगी... महल में से कोई भी जाता है आता है तो सब धीरे से बोल उठते हैं... "श्रीराधा निकलीं"... ये सुनते ही टकटकी लगाकर कृष्ण देखने लग जाते हैं... अपने हृदय के धड़कन को भी रोक लेते हैं... पर नहीं... फिर उदास ही जाते हैं। पसीने से नहा रहे हैं कृष्ण... गर्मी आज ज्यादा ही है। तभी... पायल की आवाज आई... कृष्ण ने सुनी... वही सुगन्ध... अब पहचानते हैं कृष्ण... क्यों नहीं पहचानेगें ! अपने आपको नहीं पहचानेगें? आगे बढ़ें... तो सामने से दौड़ी हुयीं श्रीराधा अपने महल की ओर जा रही थीं... कृष्ण ने देखा... वो तो जड़वत् खड़े रह गए। कितना अद्भुत सौन्दर्य ! अलौकिक सौन्दर्य... वे ठिठक गए। पर श्रीराधा रानी चली गयीं अपने महल के भीतर... कृष्ण दौड़े... पाँव में कुछ पहने नहीं थे श्रीराधा ने। इसलिये जमीन पर श्रीराधा के चरण चिन्ह बन गए। श्रीकृष्ण ने देखा... ओह ! फिर आकाश की ओर देखा... सूर्य की गर्मी बढ़ती ही जा रही थी... नेत्रों से जल बरस पड़े... बैठ गए वहीँ... श्रीराधा के चरण चिन्ह के पास। निकाली अपनी पीताम्बरी... और चरण चिन्ह के ऊपर पीताम्बरी से छाँया करने लगे... नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं... रोम रोम से श्रीराधे ! श्रीराधे ! नाम प्रकट हो रहा है... सखा सब आये... सबने श्रीकृष्ण को सम्भाला... चलो ! अब हे कृष्ण ! चलो ! इस तरह से मत बैठो यहाँ... देखो ! कितनी गर्मी हैं... सूर्य का ताप कितना है ! सब सखा बोलने लगे थे। नेत्रों से अश्रु निरन्तर बहते ही जा रहे थे कृष्ण के... हाँ ! मैं भी तो यही कह रहा हूँ... सूर्य का ताप कितना है... मेरी प्यारी के इन कोमल चरण चिन्हों को कितना ताप लग रहा होगा ना ! तुम जाओ ! मैं यहीं हूँ... गर्मी लग रही है मेरी "श्रीराधा के पद चिन्हों" को... ये कहते हुए कृष्ण अपनी पीताम्बरी को फैलाये हुये ही बैठे रहे। हे वज्रनाभ ! ये प्रेम की रीत है... इसे केवल ये श्याम सुन्दर ही जानते हैं... ये बड़ी विलक्षण है... इसे बुद्धि से कौन समझ पाया है आज तक... ये तो हृदय में खिला फूल है। प्रीत की रीत रंगीलो ही जाने ! यद्यपि अखिल लोक चूड़ामणि, दीन अपन को माने।
प्रेम की अगन हो...
चित्त के दो पाट चिर जाते हैं... एक राधा और एक माधव। पर ये प्रेम कि आग दोनों और ही लगी है... और आग बढ़ती जा रही है। प्रेम कि इस दिव्य झाँकी का दर्शन तो करो... "प्रिय सामने हैं... और उनके आगे श्रीराधारानी नाच रही हैं -... प्रियतम की ओर देखना... मुस्कुराना... प्रेम से उन्हें निहारना... पर ये क्या ! एकाएक रूठ जाना... बात ही न करना... फिर प्रियतम का मनाना... मनाने पर भी न मानना... क्यों? अजी ! प्रेम कि अपनी ठसक होती है... हे वज्रनाभ ! ये चरित्र जो मैं तुम्हे सुना रहा हूँ... इसके सब अधिकारी नहीं हैं... जिनकी बहिर्मुखता है... जिनका हृदय पवित्र नहीं है... वो इस दिव्य प्रेम के अधिकारी कहाँ?... क्यों कि उनको ये सब समझ में ही नहीं आएगी... की ये क्या है ! जो मात्र नैतिकता के थोथे मापदण्ड में बंधे हैं... पुरुष की सत्ता को ही जो सर्वोच्च मानकर चलते हैं... सामाजिक तथाकथित धारणा में बंध कर ही सोचते हैं... वो इस अनन्त प्रेम के नीले आकाश में उड़ने का प्रयास भी न करें... ये वो पन्थ है... जिसे बड़े बड़े ज्ञानी भी नहीं समझ पाते... तो सामाजिक धारणा में बंधे लोगों से... जिनके लिये उदर भरना... अपनी महत्वाकांक्षा ही सर्वोच्च है... ..वो बेचारे क्या समझेंगें? चलो ! तथाकथित प्रेम को लोग समझ भी लें... पर ये तो और ऊंचा प्रेम हैं... संसार के लोगों का प्रेम ये है कि प्रेम हम कर रहे हैं ...क्यों की हमें सुख मिले... पर ये प्रेम तो अपने सुख में नहीं जीता... प्रियतम सुखी है... तो हम सुखी है... प्रियतम दुःखी है तो हम भी दुःखी हैं... यानि - इनसे हमें सुख मिले... ये संसार का प्रेम है... पर हमसे इन्हें सुख मिले... इसी भावना में सदैव भावित रहना... ये दिव्य प्रेम है... हम इसी दिव्य प्रेम की चर्चा कर रहे हैं। अद्भुत रहस्य खोल दिया था प्रेम का, महर्षि शाण्डिल्य ने आज।
आग दोनों तरफ लगी है हे वज्रनाभ !... कृष्ण श्रीराधा के लिये तड़फ़ रहे हैं... तो श्रीराधा कृष्ण के लिये उन्मादिनी हो चली हैं। हे ललिते ! मैं देख रही हूँ... अग्नि कुण्ड है मेरे सामने वो धड़क रहा है... धीरे धीरे मैं उसमें जा रही हूँ... पर मैं जलती नहीं... जलूँ कैसे सखी ! ऊपर से श्याम सुन्दर बादल बनकर बरस रहे हैं। कृष्ण विरह से तप्त हो उठीं हैं श्रीराधा... और ललिता सखी का हाथ पकड़ कर रो रहीं हैं... कल आये थे वे... अपने सखाओं के साथ... छुप कर देख रहे थे मुझे... पर मैं लजा गयी... मैं रुकी नहीं... मैं महल के भीतर आगयी... पर वे मेरे पद चिन्हों को अपनी पीताम्बरी से छाँया करके बैठे रहे... उनका वो कोमल शरीर सूर्य के ताप से झुलस गया होगा ना? मैं कैसे मिलूं उनसे... कुछ समझ नहीं आरहा... मेरी बुद्धि काम नहीं दे रही... मैं महल में आयी... तो ये चित्रा सखी का बनाया हुआ कृष्ण का चित्र मेरे सामने आगया... इन चित्र को देखकर तो मैं और विरहाग्नि में जलने लगी हूँ... इस चित्र को हटा दे सखी ! रँगदेवी सखी उस चित्र को हटाने लगीं... तो उठकर दौड़ीं फिर श्रीराधा... नहीं... यही तो मेरे जीवनाराध्य हैं... उस चित्र को लेकर अपने हृदय से लगा लिया फिर। तुम सब जाओ अब ! जाओ ! मैं कुछ देर एकान्त में बैठूँगी। सखियाँ चली गयीं। मन नहीं लगा श्रीराधा का महल में... बारबार कृष्ण की वही छबि याद आरही है... मेरे पदचिन्हों को अपनी पीताम्बरी से छाँया कर रहे थे... और उनका मुखमण्डल पसीने से नहा गया था। उफ़ ! फिर एकाएक मन में आया... लोक लज्जा की परवाह है तुझे राधे ! देख ! उन श्याम सुन्दर को... तेरे लिए वो बरसाने में? तुरन्त उठीं श्रीराधा और... मैं भी जाऊँगी आज नन्दनन्दन से मिलने... क्यों न जाऊँ? वो मेरे लिये आसकते हैं तो ! झरोखे से उतरीं श्रीराधा रानी... द्वार से जातीं तो सब सखियाँ देख लेतीं... और नन्दगाँव कोई दूर तो नहीं था बरसाने से।
अरी ! ब्रजरानी यशोदा !
देख ! कोई लाली बड़ी देर से खड़ी है तेरे द्वार पर... द्वार तो खोल दे।
श्रीराधारानी चली गयीं थीं नन्दगाँव... पर नन्द महल के द्वार पर जाकर खड़ी हो गयीं... द्वार खटखटाया भी नहीं... वो तो एक ग्वालिन जा रही थी उसने देख लिया... तो आवाज लगा दी ब्रजरानी को। भीतर से ब्रजरानी यशोदा ने... अपने लाल कन्हैया से कहा... देख ! कोई खड़ा है द्वार पर... जा खोल दे। ठीक है मैया ! कृष्ण गए और द्वार जैसे ही खोला... राधे ! आनन्द से भर गए... कुछ बोल भी नहीं पाये... बस अपलक देखते ही रहे... उस दिव्य रूप सुधा का अपने नेत्रों से पान करते ही रहे। अरे ! तू भी ना लाला ! कौन है?... बता तो दे? बहुत बार बोलती रहीं ब्रजरानी यशोदा... पर कृष्ण को कहाँ होश !... उनका सर्वस्व आज उनके ही पास आगया था। अरे ! कौन है? ये कहते हुये ब्रजरानी जैसे ही द्वार पर आईँ। सुन्दरता की साक्षात् देवी... नहीं नहीं... जगत के सौन्दर्य ने ही मानों आकार लिया हो... ऐसा अद्भुत सौन्दर्य ! ऐसा लोकोत्तर सौन्दर्य ! देखने की बात तो दूर गयी... सुना भी नहीं था कि ऐसा भी रूप होता है... मूर्छित हो गयीं ब्रजरानी यशोदा तो। पर होश नहीं है कृष्ण को... वो तो आगे बढ़ीं श्रीराधा रानी... और बोलीं... आपकी मैया को क्या हुआ? कन्हैया ने देखा मुड़कर... तो महल के भीतर ब्रजरानी मूर्छित पड़ी हैं। जल का छींटा दिया... तब जाकर होश आया था यशोदा मैया को। अरे ! बाबरे ! देख कितनी सुन्दर लाली है... भीतर तो बुला... बेचारी कितनी देर से खड़ी है बाहर... कन्हैया को बोलीं उनकी मैया। आओ ना !... बड़े प्रेम से बुलाया कृष्ण ने अपने महल में। धीरे धीरे नंदमहल में प्रवेश किया श्रीराधा रानी ने... बड़े संकोच के साथ। किसकी बेटी हो? कहाँ रहती हो? अपनी गोद में बिठा लिया था ब्रजरानी ने... और उन गोरे कपोल को चूमती हुयी पूछ रही थीं। बरसाने की हूँ... कीर्ति रानी मेरी मैया हैं... मिश्री की मधुरता भी इनकी वाणी के आगे तुच्छ प्रतीत हो रही थी। "राधा" नाम है मेरा... बृषभान जी की बेटी हूँ। ओह ! कीर्तिरानी की राधा तुम हो? आनन्द से उछल पडीं ब्रजरानी। मैया ! मैं भी बैठूंगा तेरी गोद में ! कृष्ण मचलने लगे। अच्छा अच्छा ! आजा... तू इधर बैठ... एक तरफ श्रीराधा रानी और दूसरी और अपने लाला को बैठाकर माखन खिलाने लगीं। सुगन्धित तैल उन काले काले श्रीजी के केशों में लगाकर उन्हें संवार दिया... सुन्दर लहंगा पहना दिया... ऊपर से चूनरी ओढ़ा दी... पायल पहना दी ब्रजरानी ने। सुन्दर सा मोतियों का हार पहना दिया। कृष्ण बड़े खुश हैं... बारबार देख रहे हैं अपलक श्रीराधा रानी को। मैं जाऊँ अब बरसाने? मेरी मैया मेरी बाट देख रही होंगी। श्रीराधा रानी के मुख से इतना सुनते ही... ब्रजरानी ने राई नॉन उतारा... श्रीराधारानी का। अब जाऊँ? संकोच से धसी जा रही हैं ये बृषभान की लली। जा ! जा छोड़ के आ ! कन्हैया को बोलीं यशोदा। बड़े खुश होते हुये कन्हैया चले... श्रीजी का हाथ भी पकड़ लिया कृष्ण ने... ब्रजरानी देखती रहीं और मुग्ध होती रहीं... मेरी बहु है ये... कितनी प्यारी जोड़ी है... हे विधाता ! मैं अचरा पसार के मांगती हूँ... ये जोड़ी ऐसे ही बनी रहे।
अकेली आगयीं राधे? कृष्ण ने पूछा। हूँ... इससे ज्यादा कुछ बोलती ही नहीं हैं। अब कब मिलोगी? पता नहीं... तुम्हारा महल आगया है... अब तो बता दो... कहाँ मिलोगी? पता नहीं... इतना बोलकर भागी, क्यों की महल आगया था। पर बातें बनाने वाले तो होते ही हैं... बरसाने के हर नर नारी ने देख लिया था... सजी धजी श्रीराधा कृष्ण के साथ आरही है। कीर्तिरानी ने देखा... कुछ रोष भी किया... कहाँ गयीं थीं? चलते चलते नन्दगाँव चली गयी थी... कृष्ण दूर खड़े होकर देख रहे हैं... कीर्तिरानी ने अपनी लली को सजी धजी देखा... ये सब हार पायल लहंगा किसने पहनाया?
यशोदा मैया ने... श्रीराधा रानी धीरे से बोलीं।
बरसाने की महिलाएं सब देख रहीं थीं... और बातें भी बनाने लगी थीं। कीर्तिरानी अपनी लली को लेकर चलीं गयीं महल के भीतर। कृष्ण लौट आये थे अपने नन्दगाँव।
कृष्ण अपने आपसे ही तो मिल रहे हैं... महर्षि शाण्डिल्य ने कहा। हे गुरुदेव ! अपने आपसे मिलना क्या होता है? "जैसे कोई आईने में अपने आपको देखकर मोहित होजाता है" महर्षि का कितना सटीक उत्तर था... वज्रनाभ आनन्दित हुए।
"बरसाने की देवी सांचोली"- एक अद्भुत कहानी
फूट जाएँ वे आँखें जो प्रियतम को छोड़, किसी और को निहारें... फूट जाएँ वे कान जो प्रिय की बातों के सिवा कुछ और सुने... जल ही जाए वे जीभ जो अपने प्रेमास्पद के सिवा किसी और का नाम भी पुकारे... अरे ! जिन आँखों ने "प्रिय" को निहार लिया... अब क्या चाहिये? और फिर भी, किसी और को निहारने की... सुनने की... अन्य को पुकारने की कामना है... तो सम्भालो अपनी इन्द्रियों को... ये सब व्यभिचारी होगयी हैं... इन्हें दण्ड मिलना ही चाहिये। हे अनिरुद्ध सुत वज्रनाभ ! गोपियों ने कात्यायनी की पूजा अर्चना की... पर श्रीराधा रानी ने वह भी नहीं किया। पार्वती देवि की पूजा करने ब्रज गोपियाँ गयीं... पर श्रीराधा रानी ने किसी देवि देवता को नहीं मनाया... क्यों मनाये? उनका देवता कृष्ण ही था... उनकी देवी कृष्ण ही थी... उनका भगवान, कृष्ण था... उनका ईश्वर... उनका इष्ट... उनका सर्वस्व कृष्ण... कृष्ण बस कृष्ण... श्रीराधा रानी के लिए कृष्ण के सिवा और कुछ नहीं... महर्षि शाण्डिल्य आज प्रेम में "अनन्यता" की विलक्षण चर्चा कर रहे थे। इस "अनन्यता" के सिद्धान्त को हर व्यक्ति नहीं समझ सकता... क्यों की ये आरोपित नहीं होता... ये प्रेम की उच्चावस्था में सहज घटित होता है... सिर्फ तू ! और कुछ नहीं। या, तू ही तू... सर्वत्र, तू ही तू। इस "ढ़ाई आखर" में अनन्त रहस्य भरे हैं... चन्द्र मिट जाए ...सूर्य प्रलय में खतम हो जाए... अनन्त काल तक इस प्रेम पर चर्चा करते रहें फिर भी ये "प्रेम" रहस्य ही बना रहेगा... हँसे ये कहते हुए महर्षि शाण्डिल्य।
बृषभान जी की कुल देवी हैं ये - सांचोली। कई बार ले जाना चाहा... कीर्तिरानी ने... और बृषभान जी ने अपनी लाडिली श्रीराधा को... पर नहीं... ये क्यों जाने लगीं किसी देवी को पूजने...? इनके नयनों में... इनके अंग अंग और अन्तःकरण में वही साँवरा समाया है... फिर क्यों जाएँ देवी देवताओं के पास ..? कामना के लिये? तो कामना पूरी होगी इनकी कृष्ण से ही... उसे देखने से ही हृदय शीतल होगा इनका। दूसरे ही दिन कृष्ण आगये बरसाने, नन्दगाँव से... पर ये दोनों प्रेमी अब मिलें कहाँ? "सांचोली देवी के मन्दिर में"... श्रीराधा रानी के मुख से निकल गया। सांचोली देवी? कृष्ण ने मुस्कुराते हुये पूछा। हाँ... हमारी कुल देवी... वो कब काम आएँगी... श्रीराधा ने प्रेमपूर्ण होकर कहा था। अच्छा ! कहाँ हैं ये तुम्हारी देवी? हमारे महल से दूर एक पर्वत पड़ता है... उसी के पीछे। श्रीराधारानी ने स्थान का पता भी बता दिया था। कोई आता जाता तो नहीं है?
प्रेमियों को सदियों से एकान्त ही प्रिय रहा... जैसे मनीषियों को... ऋषियों को... अरे ! ये प्रेमी भी कोई ऋषि मुनि या मनीषियों से कम तो नहीं हैं।
जितनी एकाग्रता ऋषियों में योगियों में पाई जाती है... उससे भी ज्यादा अपने प्रियतम के प्रति एकाग्रता प्रेमियों में पाई जाती है... क्या इस बात को कोई इंकार कर सकता है...? पूरक कुम्भक रेचक... योगी क्या सिद्ध करेगा... प्रेमी का सहज सिद्ध होता है ...ये प्राणायाम... जब प्रेम की उच्च अवस्था में पहुँचता है प्रेमी... तब साँस की गति, क्या किसी प्राणायाम सिद्ध योगियों की तरह नहीं होती? त्राटक, सिद्ध योगी क्या करेगा... प्रेमी का सहज सिद्ध होता है त्राटक... प्रेमी की हर इन्द्रियाँ प्रियतम में ही त्राटक करती हैं... क्या इस बात में सच्चाई नहीं है? चलो ! आज ही चलते हैं... कम से कम तुम्हारी देवी के दर्शन तो कर लें... कृष्ण ने मुस्कुराते हुये श्रीराधा रानी से कहा। पर अभी? अजी ! चलो ना ! हाथ पकड़े कृष्ण ने श्रीराधा के... और दौड़ पड़े पर्वत की ओर... फिर उतर गए नीचे... ओह ! दोनों की साँसे फूल गयीं थीं... हँसते हुये मन्दिर के द्वार पर ही बैठ गए दोनों... साँसों की गति जब सामान्य हुयी... तब उठे... और मन्दिर के भीतर चले गए। पर यहाँ देवी कहाँ हैं? कृष्ण ने उस मन्दिर को देखा... पर वहाँ कोई विग्रह नहीं था... ये शिला ही सांचोली देवी हैं... इन्हीं शिला को हमारे पूर्वज देवी मानकर पूजते आरहे हैं। तुम नहीं आईँ कभी इस मन्दिर में? श्रीकृष्ण ने पूछा। मेरे लिए तो तुम्ही देवी हो... और देवता भी तुम हो... मेरे ईश्वर तुम हो... मेरे सर्वस्व तुम हो... इतना कहते हुये कृष्ण को छू रही थीं श्रीराधा। अपनी बाहों में भर लिया था कृष्ण ने अपनी प्राण बल्लभा श्रीराधारानी को।
अब तो नित्य का नियम ही बन गया इन दोनों सनातन प्रेमियों का... सांचोली देवी के मन्दिर में आना... और प्रेमालाप में मग्न हो जाना। पर उस दिन क्या पता था... अमावस्या थी।... और पूर्णिमा अमावस्या को इन विशेष काल में तो बृषभान जी और कीर्तिरानी अपनी कुलदेवी की पूजा करने आते ही थे। राधे ! मैं तुम्हे देखता हूँ तो ऐसा लगता है... देखता रहूँ... युगों तक... अनन्त काल तक... तुम अघा जाओगे प्यारे ! नहीं राधे ! तुम्हारे रूप की यही तो विशेषता है... जितना देखूँ लगता है - और देखूँ और देखूँ... नया नया सौन्दर्य प्रकट होता है... मैं अपने आपको भूल जाता हूँ। फिर उठकर बैठ गए कृष्ण... और श्रीराधा रानी के लटों से खेलते हुए बोले... कभी कभी मुझे लगता है... मैं राधा हूँ और तुम कृष्ण... श्रीराधा हँसी... मुझे भी लगता है मैं कृष्ण बन गयी और तुम मेरी राधा। कीर्तिरानी !
चलो मन्दिर आगया... पर पद पक्षालन करके ही मन्दिर में जायेंगें... बृषभान जी और कीर्तिरानी मन्दिर में आज आपहुँचे थे पूजा अर्चना के लिये। बगल में ही सरोवर था उसमें पद पक्षालन करने चले गए। श्रीराधारानी ने देख लिया...
मेरे बाबा आगए ! श्रीराधारानी घबडा के उठीं... अपने केशों को सम्भाला... अब क्या करें? तुम अच्छी लगती हो... ऐसे घबड़ाई हुयी... फिर चूम लिया कृष्ण ने। तुम बाबरे हो गए हो क्या? मेरे बाबा और मैया आगये हैं... आने दो... जब प्रेम है... तो है... कृष्ण मुस्कुराये जा रहे हैं। मैं जा रही हूँ... पर तुम क्या करोगे? मैं आँखें बन्द कर लूंगा... और हृदय में बैठी अपनी राधा से बातें करता रहूंगा... कृष्ण श्रीराधा को देखकर सहज ही बोलते जा रहे थे। मैं गयी... श्रीराधारानी बाहर निकलीं... पर... अरे ! राधा ! तू ! यहाँ? कीर्तिरानी ने चौंक कर पूछा। अचम्भित तो बृषभान जी भी हुये थे... बेटी राधा ! ललिता बिशाखा रँगदेवी सुदेवी ये सब कहाँ है... अकेली तुम? बाबा ! मैं आज देवी के दर्शन करने चली आई... श्रीराधारानी ने घबडा कर कहा। आज तक तो तुम आई नहीं... आज ही क्यों? कीर्तिरानी ने इधर उधर देखते हुए पूछा था। नहीं... वो देवी को हार मुकुट... और वस्त्र... देवी के विग्रह को कई दिनों से किसी ने स्नान भी नहीं कराया था... तो मैं? बेटी राधा ! क्या बात है... स्वास्थ ठीक तो है ना तुम्हारा? बेटी ! विग्रह कहाँ है हमारी कुल देवी का... वो तो एक शिला के रूप में ही हैं... चलो अब... हम भी दर्शन करते हैं... तुम ने क्या धारण कराया है देवि को... हाथ पकड़ कर कीर्तिरानी मन्दिर के भीतर ले चलीं... श्रीराधारानी घबडा रही थीं... कृष्ण भीतर ही हैं... अब क्या होगा? वो दीख जायेंगें तो? मैं मैं... मैं महल जा रही हूँ... श्रीराधारानी मन्दिर में जाना ही नहीं चाहतीं... क्यों की... "चलो अब"... हमारे साथ ही महल चलना कीर्तिरानी ने हाथ पकड़ा... और मन्दिर में ले चलीं... पर ये क्या? जैसे ही मन्दिर में पहुँचे ये सब... दिव्य प्रकाश झलमला रहा था... और एक सुन्दर सी मूर्ति खड़ी थी... बृषभान जी चौंके... कीर्तिरानी स्तब्ध हो गयीं... पर इनसे भी ज्यादा चकित और आनन्दित श्रीराधा रानी थीं... कि मूर्ति जो सांचोली देवी की खड़ी थी... वो कोई देवी नहीं थीं... उनका प्यारा कृष्ण ही देवी के रूप में वहाँ खड़ा हो गया था। उछल पडीं श्रीराधा रानी आनन्द से... बाबा ! देखो ! ये हैं देवी, हमारी "देवी सांचोली"... सच्ची देवी यही हैं मैया ! बाकी सब देवी देवता झूठे हैं... पर सच्ची देवी तो यही हैं... करो दर्शन... श्रीराधा रानी आनन्दित होते हुए साष्टांग प्रणाम कर रही थीं... पर ये क्या... सांचोली देवी के गले से माला गिरी और सीधे श्रीराधारानी के गले में... अजी ! देखो ना... ये मूर्ति रातों रात कैसे प्रकट हुयी? हाँ वही तो कीर्तिरानी !... यहाँ तो सदियों से शिला के रूप में हमारी देवि थीं... मूर्ति के रूप में तो नहीं थीं... बृषभान जी क्या कहें... कीर्तिरानी की बुद्धि जबाब दे गयी थी। बाबा ! मैया ! प्रेम में बहुत ताकत है... पत्थर भी आकार ले लेते हैं। हाँ... कीर्तिरानी बारबार उस मूर्ति की ओर देखे... क्यों की मूर्ति मुस्कुराती थी... साँवली मूर्ति... कितनी सुन्दर थी ना मूर्ति... श्रीराधा रानी रास्ते भर उसी मूर्ति की चर्चा करते हुए आईँ... पर पूरे बरसाने में ये रहस्य ही रहा... कि ये मूर्ति प्रकट कैसे हुयी। मैने प्रकट की है... मूर्ति... है ना प्यारे ! एक दिन ये कहते हुए श्रीराधा ने कृष्ण को अपने हृदय से लगा लिया था। हे वज्रनाभ ! श्रीराधारानी ने केवल उसी "सांचोली देवी" की ही पूजा की... क्यों की वो सांचोली कोई देवी नहीं थी... श्रीराधा का परमदेवता कृष्ण ही था। !! रसिक रसिलो छैल छबीलो गुण गर्बिलो श्रीकृष्ण !!
"अधरामृत" - शक्ति "प्रेम" में ही है
हे यदुवीर वज्रनाभ ! शक्ति है तभी शक्तिमान है... अगर शक्ति ही नहीं है तो शक्तिमान कैसा? ब्रह्म तारता है या मारता है... वो सब शक्ति के कारण ही है... इस बात को सभी सिद्धान्त वाले स्वीकार करते हैं... क्यों न करें सत्य यही तो है... हे यादवों में श्रेष्ठ वज्रनाभ ! कृष्ण श्रीराधा के बिना कुछ नहीं हैं... जो भी तुम देखते हो... सुनते हो कृष्ण के बारे में... कि वो योगेश्वर, वो निर्मोही, वो एक दार्शनिक गीता जैसे गम्भीर विषय के गायक... वो एक अद्भुत योद्धा... वो एक मदविनाशक... ये जितने रूप हैं कृष्ण के... ये सब श्रीराधा के प्रेम की ही तो देन है... श्रीराधा ने ही संवारा है सजाया है कृष्ण को। त्याग तो महान है श्रीराधा का... कृष्ण के लिये सब कुछ त्यागा। वैसे प्रेम का अर्थ ही यही होता है कि... "वे सुखी रहें"... । हे वज्रनाभ ! श्रीराधा के प्रेम की धूप छाँव ही कृष्ण को और निखारती चली जाती है... कृष्ण में इतनी अविचल शक्ति... इतना उद्वेग रहित भाव... कर्म करने के बाद भी कर्म से बंधे नहीं... ! ये सब बिना किसी अल्हादिनी शक्ति के सम्भव नहीं है... कृष्ण को ये सब बनाने में श्रीराधा का ही हाथ है... श्रीराधा ही पीछे खड़ी दिखाई देंगीं तुम्हे... चाहे वो वृन्दावन में... चाहे मथुरा में... चाहे द्वारिका या कुरुक्षेत्र में... जो भी कृष्ण में ये सब विलक्षण पौरुष दिखाई देता है... इन सबके पीछे श्रीराधा ही हैं... पर श्रीराधा दिखाई नहीं देतीं... दिखाई देती हैं रूक्मणी... यही तो श्रीराधा का त्याग है... और यही तो प्रेम की महिमा है... प्रेम छुपा रहे... प्रेम अव्यक्त रहे। कृष्ण में रँग है... कृष्ण का रँग अपना है... पर उस रँग में गन्ध नहीं है... और जो भी गन्ध महसूस होता है... बस... बस वही सुगन्ध श्रीराधा है... । श्रीराधा सजाती है... कृष्ण ! तुम्हे अभी आगे बहुत जाना है... श्रीराधा संवारती है... कृष्ण ! तुम्हे अभी बहुत कुछ करना है... श्रीराधा सम्भालती है... कृष्ण ! तुम्हे अभी बहुत दावनल पान करना है। क्या दावानल ! कहाँ लगी है दावानल? बड़े भोले हो प्रिय !... झुलस जाओगे... फिर राधा सम्भालते हुए... अपने अधरामृत का पान कराती हैं। महर्षि शाण्डिल्य सावधान करते हैं... नैतिकता के छूछे मापदण्ड से हर वस्तु - विषय को देखने वाले... इस "दिव्य प्रेमप्रसंग" से दूर रहें।
वृन्दावन जल रहा है... धूं धूं कर जल रहा है... चारों ओर आग ही आग है ...नर नारी भाग रहे हैं ...गौएँ इधर उधर भाग रही हैं और कुछ धरती पर पड़ गयीं हैं... उन्हें बचाने वाला कौन? पक्षियों के घोंसले जल गए... उनमें उनके बच्चे थे... वे सब जल गए... नर नारी फंस गए हैं उस दवानल में... किधर जाएँ। श्रीराधा घबड़ाई हुयी नींद से उठीं... स्वेद से नहा गयी थीं... उनके श्रीधाम की ये दशा ! सपना था ये... पर आल्हादिनी शक्ति का सपना भी सत्य होगा ही। ओह ! शीघ्रातिशीघ्र अपने बिस्तर को त्यागकर उठीं। बेटी ! उठ गयी? अब नहा ले... कीर्तिरानी ने अपनी लाडिली को जब देखा तो स्नान के लिये कह दिया। हाँ मैया ! गयीं स्नान करने... पर श्रीराधा ऐसे कैसे स्नान करेगी... सखियाँ खड़ी हैं उबटन लेकर... बिठा दिया उन्हें सखियों ने... और अंग अंग में उबटन लगाने लगीं... "अब तो नहाने दो" श्रीराधारानी ने सखियों से कहा। ... उबटन लग चुका है... श्रीराधारानी को जल्दी है... उन्हें आज श्रीधाम वृन्दावन को बचाना है... वहाँ दावानल लगने वाला है... पर ये बात कहें कैसे? "अब इतनी जल्दी भी क्या है... मिल लेना उस साँवरे से !... पूरा दिन पड़ा है... हँसते हुए सखियाँ बोलीं... और फिर बिठा दिया। उबटन को सूखने तो दो लाडिली जू ! सूख गया... पर अब फिर उसे रगड़ कर निकालेंगीं ये सखियाँ। अत्यन्त कोमल शरीर है... श्रीजी का... बहुत धीरे धीरे करना पड़ता है... देखो इनको कष्ट न हो... चलिये ! उबटन भी हो गया... अब स्नान की बारी... । स्नान में भी समय तो लगता ही है... लगा समय... फिर वस्त्र... उनका श्रृंगार... अरे कहाँ चलीं स्वामिनी ! सखियाँ जोर से पुकारने लगीं। आकर बताउंगी... अभी समय नहीं है... अकेली मत जाओ ना... हम भी आती हैं... सखियों ने फिर पुकारा। नहीं... मैं शीघ्र ही आजाऊंगी... कोई मत आओ मेरे साथ। श्रीराधा तो देखते ही देखते यमुना के किनारे चली गयीं थीं... और अपनी नौका लेकर पतवार चलाते हुये कुछ ही देर में नंदगांव पहुँच गयीं। नन्दभवन की ओर चलीं... पर आज ये दौड़ रही थीं... चल नहीं रही थीं... देखने वाले... ये तो भानु दुलारी है ना? हाँ ये राधा ही तो है। द्वार खटखटाते हुए नन्दभवन में।
.राधा ! आओ आओ बेटी !
ब्रजरानी यशोदा ने द्वार खोला था। नहीं मैया ! अभी नहीं आऊँगी... कन्हैया कहाँ हैं? वो... वो तो वृन्दावन गया है गौचारण करने... ब्रजरानी ने इतना कहा... और भीतर आने के लिये आग्रह करने लगीं ...पर - नहीं मैया ! मैं फिर आऊँगी... श्रीराधारानी जल्दी जल्दी नन्दभवन से उतरीं... और फिर अपनी नौका में। नौका को वृन्दावन की ओर मोड़ दिया था... हे वज्रनाभ ! आल्हादिनी शक्ति के संकल्प के विपरीत ब्रह्म नहीं जा सकते... तो ये प्रकृति कैसे जा सकती हैं... वायु भी अनुकूल चल पड़े थे... ताकि इन कोमलांगी को तनिक भी श्रम न करना पड़े।
पूतना मर गयी... शकटासुर को मार दिया गया ग्वालों के द्वारा ...तृणावर्त, अघासुर, कागासुर... ओह ! मेरे बड़े बड़े वीरों को इन ग्वालों ने... इन अहीर के बालकों में मार दिया... और मैं ! मैं कंस !... मैं वो वीर कंस जिसने परसुराम जी की पर्वत मालाओं को उठा दिया था... मैं वो वीर कंस... जिसने बाणासुर को झुकने पर मजबूर कर दिया था... उसे आज एक ग्वाला कृष्ण चुनौती दे रहा है... शर्म की बात है ये मेरे लिये ! चिल्ला उठा था कंस उस दिन... तुम लोग चुप क्यों हो? क्या अब कोई उपाय नहीं बचा तुम लोगों के पास... अपने राक्षसों को देखकर चीख रहा था कंस। "अब एक ही उपाय है... वृन्दावन में दावानल लगा दी जाए" दावानल? कंस को ये बात कुछ जँची। क्या फिर कहना? कंस उस राक्षस से फिर पूछने लगा। महाराज कंस ! मैं ये कह रहा हूँ... वृन्दावन में गौ चारण करने समस्त ग्वाले आते हैं नित्य... आपका शत्रु कृष्ण उन सबका मुखिया बन आगे आगे चलता है... बस उसी समय अगर चारों ओर से आग लगा दी जाए... तो सब मर जायेंगें। अरे वाह ! तू तो बहुत बुद्धिमान है... ले... अपने गले का हार उतारकर दे दिया उस राक्षस को कंस ने। अब जाओ ! और जब कृष्ण गौ चराने वृन्दावन में आये... आग लगा दो... उन ग्वालों को घेरकर आग लगा देना... कृष्ण बचने न पाये। हा हा हा हा हा हा... क्रूर हँसी हँस रहा था कंस।
पहुँच गयीं थीं श्रीराधा रानी वृन्दावन... नौका को किनारे से लगा कर... वहीँ बैठ गयीं... इधर उधर दृष्टि दौड़ाई... चलो ! कंस ने अभी आग लगाई नहीं है... राहत की साँस ली थीं उन कृपा की राशि किशोरी जू ने। तभी कृष्ण ने नौका को देख लिया... अपनी प्राणबल्लभा की नौका... उचक कर देखा कृष्ण ने तो उनके आनन्द का और पारावार न रहा... कि उस नौका पर "श्रीजी" बैठीं हैं... वो दौड़े... नौका के पास आये... राधे ! ओ राधे ! आवाज दी। आँखें खोलीं श्रीराधा रानी ने... ".मैं तुम्हे ही पुकार रही थी ..प्यारे ! आओ ना इधर "... नौका में ही बुलाया श्रीराधा रानी ने। पर तुम इतनी घबड़ाई हुयी क्यों हो? नौका में चढ़ते हुए बोले कृष्ण। प्रिय ! आज बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता... श्रीराधा अभी भी घबड़ाई हुयी थीं... पर हो क्या जाता? ये हमारा वृन्दावन... ये हमारी गौएँ... ये हमारे ग्वाल बाल सब जल जाते... और तुमसे भी कुछ न होता... क्या कह रही हो राधे ! मैं कुछ समझा नहीं... दावानल पान करने की शक्ति तुममें नहीं है... श्रीजी ने कहा। हाथ जोड़ लिए कृष्ण ने... हे स्वामिनी ! मेरी शक्ति तो तुम हो ना ! इसलिये ही तो आई हूँ, दौड़ी दौड़ी बरसाने से... ताकि इस जगत में भी लगे या लगने वाले दावानल का तुम पान कर सको... कैसे? कैसे मेरी आल्हादिनी ! श्रीराधा ने इधर देखा न उधर... खींचा अपनी ओर अपने प्राण कृष्ण को... और अपने अधर कृष्ण के अधरों में रख दिए... पान करने लगे कृष्ण श्रीराधा के अधरामृत का... कृष्ण प्रगाढ़ आलिंगन में अपनी श्रीजी को बाहों में भरते हुए उनके अधरों को पी रहे थे... बड़ी गुणवती हैं श्रीराधा अपने प्रियतम को रमा रही हैं... अपना अमृत प्रदान कर रही हैं... ताकि इस जगत में फैलने वाले दावानल का पान कर जीवों को ये शान्ति प्रदान कर सकें। श्रीजी के मुख पर लटें लहराने लगीं थीं... साँस बड़ी तेज़ गति से चल पड़ी थी... माधव ने चूमा... प्रगाढ़ चूमा अधरों को। पर एकाएक हट गयी श्रीराधा... देखो माधव ! देखो ! आग लग गयी है वृन्दावन में... वो देखो ! जाओ प्यारे अब !... पान कर लिया ना... अब इसी के सहारे इस दावानल का भी पान करो... मैं तुम्हे शक्ति प्रदान करने आयी थी... जाओ ! जाओ इस वृन्दावन को बचाने का अभिप्राय ही ये होगा कि तुम समस्त जगत को भी बचा रहे हो... कृष्ण को आल्हादिनी के द्वारा वो अमृत मिल गया था... जो इस धरा का अमृत नहीं था... वो अधरामृत था... यानि अलौकिक अमृत। श्रीराधा रानी खड़ी हो गयीं... कृष्ण उस कंस के द्वारा लगाये गए दावानल का पान करने लगे थे... श्रीराधा रानी मुस्कुराते हुये देखती रहीं... कृष्ण ने उस अग्नि का पूरी तरह से पान किया... पर ये शक्ति तो ब्रह्म को, आल्हादिनी ही दे रही थीं... है ना? हे वज्रनाभ ! जो इस प्रेमप्रसंग को गायेगा... पढ़ेगा ...सुनेगा... उसका मंगल ही मंगल होगा... वो इस जगत के दुखमय दावानल की अग्नि से कभी नहीं झुलसेगा। महर्षि शाण्डिल्य यही बोले थे। "स्तंराधिका चरण रेणु मनुस्मरामि"
"कंस जब सखी बना " - एक अनसुना प्रसंग
हे वज्रनाभ ! श्रीराधारानी पराशक्ति हैं... इनसे बड़ी कोई शक्ति नहीं... ऐसा मैं ही नहीं कह रहा... वेदों की ऋचाओं ने श्रीराधारानी को "पराशक्ति" कहकर उनके नाम का स्मरण किया है... आज महर्षि शाण्डिल्य गदगद् थे। हे वज्रनाभ ! वैसे तो श्रीराधारानी के अनन्त नाम हैं... जैसे कृष्ण के अनन्त नाम हैं... वैसे ही श्रीराधारानी के भी... क्यों न हों ...ये शक्ति हैं... ये पराशक्ति हैं... ये अल्हादिनी शक्ति हैं... यही हैं जिन्हें "ईश्वरी" नाम से, वेद भगवान भी स्तवन करते हैं... हे वज्रनाभ ! मुख्य नाम अट्ठाईस हैं श्रीराधारानी के... ये सब नामों का सार हैं... इन नामों का जो प्रातः और रात्रि सोते समय स्मरण करता है... उन्हें इन बृषभानु दुलारी की कृपा अवश्य प्राप्त होती हैं। ऐसी बात नहीं हैं... ये श्रीराधारानी निष्काम भक्तों को तो प्रेम प्रदान करती ही हैं... पर कामना रखकर भी जो इनके नामों का एक बार भी स्मरण कर लेता है... उसकी हर कामना पूरी करती हैं... इसे निश्चय जानों। इतना कहकर महर्षि शाण्डिल्य ने नेत्र बन्दकर श्रीराधारानी के अट्ठाईस नामों का स्मरण किया... " श्रीराधा, रासेश्वरी, रम्या, कृष्णमन्त्राधिदेवता, सर्वाद्या, सर्ववन्द्या, वृन्दावनविहारिणी, वृन्दाराध्या, रमा, आल्हादिनी, सत्या, प्रेमा, श्री, कृष्ण बल्लभा, बृषभानु सुता, गोपी, मूलप्रकृति, ईश्वरी, कृष्णप्रिया, राधिका, आरम्या, परमेश्वरी, परात्परता, पूर्णा, पूर्णचन्द्रानना, भक्तिप्रदा, भवव्याधिविनाशिनी, और हरिप्रिया "। हे वज्रनाभ ! इन नामों का जो प्रातः और रात्रि में स्मरण करता है उसकी हर मनोकामना पूरी होती ही है... इन नामों का स्मरण करने से मनुष्य प्रेमाभक्ति को प्राप्त कर... श्रीराधा माधव के दर्शन का अधिकारी हो जाता है। आज श्रीराधाभाव से भावित हो महर्षि शाण्डिल्य अब आगे की कथा सुनाने लगे थे...
नारायण ! नारायण नारायण ! आज पता नहीं क्यों देवर्षि नारद जी कंस के यहाँ जा पहुँचे... उदास था कंस... क्यों की अभी अभी उस तक ये सूचना पहुँची थी कि दावानल को पी गया वो ग्वाला कन्हैया। क्या ! कैसे पी गया? अग्नि को पी गया? तुम मुझे पागल समझते हो... चिल्लाया था कंस। हमें कुछ नहीं पता राजन् ! हमने चारों ओर से आग लगा दी थी... और वन ने आग पकड़ भी ली थी... चारों और आग ही आग ...ये देखकर हम सन्तुष्ट भी हुए थे... पर पता नहीं क्या हुआ... कुछ ही देर में अग्नि इस तरह शान्त हो गयी जैसे उसे किसी ने पी लिया हो... वो अग्नि ! कंस के राक्षस कंस को बता भी नहीं पा रहे थे कि उन्होंने वृन्दावन में क्या देखा ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! आगये उसी समय देवर्षि नारद जी। हम बताते हैं... अब जाओ तुम लोग पहले यहाँ से। कंस फिर बोला... "एकान्त"... और सब लोग वहाँ से चले गए। देवर्षि ! बताइये ना क्या हुआ? और अब आगे क्या होगा? कंस गिड़गिड़ाने लगा देवर्षि के चरणों में गिर कर। मैने तुमसे पहले ही कहा था... कृष्ण की शक्ति राधा हैं... और याद रहे जब तक बरसाने में राधा हैं... तब तक कृष्ण का कोई कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा। हूँ... सोचने लगा कंस... सोचना पड़ा कंस को... क्यों की वो इस घटना को भूलता नहीं है... कैसे पालने में सो रही श्रीराधा ने मात्र अपने छोटे चरण क्या पटके... वो सीधे बरसाने से आ गिरा था मथुरा... पर ये बात किसी को पता नहीं है। क्या सोच रहे हो कंस ! सोचो मत... कुछ करो... मैं तो तुम्हारा हितैषी हूँ... इसलिये हित की बातें कहने चला आता हूँ। "नारायण नारायण नारायण"... चल दिए देवर्षि नारद जी। मैं बरसाने जाऊँगा... और मार दूँगा उस राधा को... चीखा कंस। ... पर सावधान कंस ! बरसाने की गलियों से सावधान ! हँसते हुए आकाश मार्ग से चल दिए थे देवर्षि।
प्रेम सरोवर है... दिव्य सरोवर है बरसाने में... इसका नाम है "प्रेम सरोवर"... हर रँग के कमल खिले हैं इस सरोवर में... किनारे पर कदम्ब के घने वृक्ष हैं... उन वृक्षों में मोर आकर बैठ जाते हैं... और विचित्र बात ये कि वे सारे मोर बारी बारी से अपना नृत्य दिखाते हैं... कोयली मधुर स्वर देती है। वातावरण सुगन्धित है... क्यों की वन में नाना जाति के पुष्प खिले हैं। सरोवर के किनारे ही एक दिव्य सिंहासन है... उस सिंहासन में विराजमान हैं आज श्री बृषभानु नन्दिनी राधारानी। नीला रँग इन्हें बड़ा प्रिय है... क्यों कि इनके प्यारे का रँग नीला है ना !... और एक विचित्र बात ये है कि... इनके प्राणधन को पीला रँग प्रिय है... क्यों की तपे हुए सुवर्ण के समान रँग है श्रीराधा रानी का। तो नीली साड़ी पहनी हुयी हैं... मस्तक में चन्द्रिका की शोभा है... माथे में श्याम बिन्दु है... सखियाँ नवीन नवीन फूलों का हार बनाकर ला रही हैं... और वो सब "श्री जी" को पहनाती हैं... वीणा बजाने में लगीं हैं "ललिता सखी"... "विशाखा सखी" मृदंग लेकर बैठ गयीं हैं। "चित्रा सखी" मंजीरा बजा रही हैं... और "इन्दुलेखा सखी" इत्र और गुलाब जल का बीच बीच में छिड़काव करती जाती हैं... "चम्पकलता सखी" श्रीराधारानी के पीछे खड़ी हैं और चँवर ढुरा रही हैं... "तुंगविद्या सखी"... गायन कर रही हैं... ये बहुत सुन्दर गाती हैं... "रँगदेवी सखी" और "सुदेवी सखी" ये दोनों जुड़वाँ हैं... और देखने में बिल्कुल श्रीराधा रानी जैसी ही लगती हैं... ये दोनों उन्मुक्त भाव से नृत्य कर रही हैं... इन्दुलेखा पुष्पों की वर्षा कर देती हैं कभी कभी।
इतना आनन्द प्रवाहित हो रहा है इस बरसाने के प्रेम सरोवर में... सब झूम रहे हैं... श्रीराधिका जू की ओर ही सबकी दृष्टि है... पर -
एकाएक ललिता सखी ने वीणा बजाना बन्द कर दिया... विशाखा सखी ने भी मृदंग में थाप देना बन्द किया... तुंगविद्या का गायन रुकना स्वाभाविक था... । क्या हुआ? गायन, वादन सब क्यों रोक दिये?
ये प्रश्न रँगदेवी ने पूछा था... और श्रीराधा रानी ने भी यही प्रश्न नजरों से किया।
प्यारी ! वो देखो ! ललिता सखी ने दिखाया... कुञ्ज के रन्ध्र से कोई कुरूप सा पुरुष देख रहा था... ये कौन है? श्रीराधा रानी हँसी। मथुरा नरेश कंस ! ललिता सखी ने मुस्कुराते हुये कहा। ये फिर आगया? हे ललिते ! ये कंस एक बार पहले भी आचुका है... जब मेरा जन्म ही हुआ था... तब ये मेरे पद प्रहार को सह न सका और अपनी मथुरा में जाकर गिरा था... इतना कहकर कुछ सोचने लगीं श्रीराधा रानी... पर ये तो मेरे प्यारे को बड़ा ही कष्ट देता है ना? हाँ... ये कंस बड़ा दुष्ट है... आपतो सब जानती हैं... सुदेवी सखी ने आगे आकर कहा। पर तुम लोग क्या देख रही हो... ये निकुञ्ज है हमारा... यहाँ किसी पुरुष का प्रवेश वर्जित है... हाँ इस निकुञ्ज में तो एक ही पुरुष रह सकता है... कुछ शरमा गयीं ये कहते हुए। तो आपकी क्या आज्ञा है स्वामिनी? सखियों ने आज्ञा माँगी। "इस मथुरा नरेश को भी सखी बना दो" ... आल्हादिनी की आज्ञा कुञ्ज में गूँजी... बस फिर क्या था... कंस ने जब देखा अपने आपको... ओह ! वो सखी बन चुका था... ये क्या ! घबड़ाया कंस। सखियों ने ताली बजाकर हँसना शुरू कर दिया... अब ले आओ मथुरा नरेश को... हँसते हुये श्रीराधा रानी बोलीं। दो सखियाँ गयीं... पकड़ कर ले आईँ... श्रीराधा रानी के सामने खड़ा किया गया कंस को... वो क्या कहे?... वो तो कुछ सोच ही नहीं पा रहा था कि ये मेरे साथ क्या हो गया? अब ये मथुरा भी नहीं जा सकता था। "पर इस "कंससखी" को सखी के वस्त्र तो पहनाओ "... कंस को देखते हुये हँसती ही जा रहीं थीं श्रीराधा रानी... । सबने पकड़ा और लंहगा फरिया सब पहना दिया... हट्टा कट्टा कंस... काला कुरूप कंस... ऐसा कंस जब सखी बना... अब नाचके नहीं दिखाओगी कंस सखी... ! सब हँसते हुए नचाने लगीं कंस को... बेचारा कंस करे क्या... नाचना ही पड़ा उसे तो।
तू कौन है री? कहाँ से आयी है तू?
बरसाने में जब कंस घूँघट डालकर चलता था... तब महिलायें पूछती ही थीं... बड़ी पहलवान है ये तो... कहाँ से आयी है ये? अरी ! बता तो दे ! कहाँ से आयी है? कंस क्या उत्तर दे... कुछ नहीं बोलता था वो बेचारा। पर अब तो बरसाने में सब छेड़ने लगे... बारबार पूछने लगे। तब गौशाला में जाकर रहने लगा कंस... और गोबर फेंक कर वहीँ कुछ खा लेता था... और वहीँ सो जाता था।
देवर्षि ! बताइये ना ! हमारे महाराज कंस कहाँ गए? 1 महीना बीत चुका था... मथुरा में खलबली मच गयी... महाराज कंस कहाँ गए... राक्षस परेशान रहने लगे थे... । तब परम कौतुकी देवर्षि नारद जी पहुँचें मथुरा... बस नारद जी को देखते ही राक्षस तो चरणों में गिर पड़े... आपका ही सब किया धरा है... अब आप ही बताइये की हमारे कंस महाराज कहाँ हैं? देवर्षि नारद जी ने आँखें बन्द कीं... फिर जोर जोर से हँसे। इतना हँसे की उनका मुख मण्डल लाल हो गया था... । आप हँस रहें हैं? हमारे प्राण निकले जा रहे हैं... प्रजा को कौन संभालेगा देवर्षि? चाणूर मुष्टिक सब ने कहा। अच्छा ! अच्छा ! मैं लेकर आता हूँ... देवर्षि जाने लगे... तो दो कंस के ये राक्षस भी चल पड़े... "नहीं तुम नहीं जाओगे... मैं ही लेकर आऊंगा... तुम लोग बस अपने महाराज के आने की प्रतीक्षा करो... इतना कहते हुए देवर्षि हँसते हुए चल पड़े थे।
"जय हो बरसाने के अधिपति बृषभान जी की" ! बृषभान जी की गौशाला में ही पहुँच गए थे देवर्षि नारद। ओह ! देवर्षि !
उठकर स्वागत किया ..चरण वन्दन किया देवर्षि का .बृषभान जी ने।
कैसे पधारे प्रभु ! हाथ जोड़कर पूछा। वो आज कल आपकी गौशाला में कोई नई सेविका आयी है... ये कहते हुए इधर उधर देखने लगे थे देवर्षि। नहीं... हमारे यहाँ कौन आएगा? बृषभान जी के संज्ञान में अभी तक ये बात आयी ही नहीं थी। ... एक आई है... काली है... कुरूप है... और मोटी है... ये कहते हुये फिर इधर उधर देखने लगे देवर्षि। हाँ ..हाँ... एक है... पर पता नहीं वो आयी कहाँ से है? पहले उसे बुलाइये तो... मैं बता दूँगा वो कहाँ से आयी है। देवर्षि हँसते हुये बोले। देखिये वो रही आपकी मोटी ताज़ी सखी... बृषभान जी ने दिखाया... कंस गोबर की परात उठाकर फेंकने के लिये जा रहा था। देवर्षि ने कंस को जैसे ही देखा... अब तो हँसी और न रुके। ए सखी !
इधर आ ! इधर आ ! जोर से चिल्लाये नारद।
कंस को अब कुछ उम्मीद जागी... वो खुश हुआ देवर्षि को देखते ही। नहीं तो कंस ने समझ लिया था कि... इसी गोबर को फेंकते हुए अब जीवन बिताना पड़ेगा। ये पुरुष है बृषभान जी ! देवर्षि ने समझाया। क्या ये पुरुष है? चौंक गए... पर इसे सखी किसने बनाया? आपकी लाडिली श्रीराधा ने... हँसी को रोकते हुए बोले। बुलाओ श्रीराधा को... बृषभान जी को कुछ रोष हुआ। कुछ ही देर में अपनी अष्ट सखियों के साथ श्रीराधा रानी वहाँ उपस्थित थीं... बाबा !। ये क्या है? ये कौन है? ललिता सखी हँसीं... ये मोटी सखी है... सब सखियाँ हँसी। तुम सब हँस रही हो? ये पुरुष हैं और तुमने इसे नारी बना दिया। पर ये हमारे निकुञ्ज में प्रवेश करके हमारी लीलाओं को देख रहा था ! बड़े मासूमियत से श्रीराधा रानी ने कहा। पर ये है कौन? तुम्हे पता है? बृषभान जी ने फिर पूछा। "हाँ ...पता है... ये मथुरा नरेश कंस है" श्रीराधा रानी ने ही उत्तर दिया। क्या ! चौंक गए बृषभान जी। क्या ये सच है देवर्षि नारद जी ! बृषभान जी ने देवर्षि से पूछा। हाँ ...ये सच है... देवर्षि ने सहजता में कहा। अब जब बृषभान जी ने कंस को देखा... तब उनके भी भीतर से हँसी फूट रही थी... पर हँसे नहीं... चलो ! इनको वापस पुरुष बना दो... श्रीराधा को आज्ञा दी बृषभान जी ने। ठीक है बाबा ! मैं बना तो दूंगी... पर एक शर्त है... ये कंस अब इस बरसाने में कभी आएगा नहीं... इस बरसाने की सीमा का अतिक्रमण नहीं करेगा... बोलो? बड़ी ठसक से बोलीं थीं बृषभान दुलारी... । तुरन्त चरणों में गिर गया कंस... हे राधिके ! मैं कभी आपके बरसाने में नहीं आऊंगा... मैं आपसे सच कहता हूँ... चरणों में अपने मस्तक को रख दिया था कंस ने। कृपालु की राशि "श्रीजी" ने तुरन्त अपनी सखी ललिता को आज्ञा दी... और कंस वापस पुरुष देह में आगया। देवर्षि मुस्कुराये... और श्रीराधा रानी के चरणों में प्रणाम करते हुये... कंस को लेकर मथुरा चले गए थे। हे वज्रनाभ ! ये श्रीराधा हैं... बाहर से देखने में लगता है कृष्ण लीला कर रहे हैं... हाँ लीला तो कृष्ण ही करते हैं... पर उस लीला में जो शक्ति काम कर रही होती है वो ये आल्हादिनी श्रीराधा ही होती हैं... ये कृपा की राशि हैं... । सहज स्वभाव पर्यो नवल किशोरी जू को, मृदुता दयालुता कृपालुता की राशि हैं।