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(पुस्तक ‘ग़ालिब’) पृष्ठ संख्या- 07 से   ग़ालिब मिर्ज़ा असद उल्लाह ख़ाँ ‘ग़ालिब’ 27 सितम्बर, 1797 को पैदा हुए। सितम्बर, 1796 में एक फ़्राँसीसी, पर्रों, जो अपनी क़िस्मत आज़माने हिन्दुस्तान आया था, दौलत राव सिंधिया की शाही फ़ौज का सिपहसलार बना दिया गया। इस हैसियत से वह हिन्दुस्तान का गवर्नर भी था। उसने दिल्ली का मुहासरा करके[1] उसे फ़तह[2] कर लिया और अपने एक कमांडर, ले मारशाँ को शहर का गवर्नर और शाह आलक का मुहाफ़िज[3] मुक़र्रर[4] किया। उसके बाद उसने आगरा पर क़ब्ज़ा कर लिया। अब शुमाली[5] हिन्दुस्तान में उसके मुक़ाबले का कोई भी नहीं था और उसकी हुमूमत एक इलाक़े पर थी, जिसकी सालाना मालगुज़ारी[6] दस लाख पाउण्ड से ज़्यादा थी। वह अलीगढ़ के क़रीब एक महल में शाहाना[7] शानौ-शौकत[8] से रहता था। यहीं से वह राजाओं और नवाबों के नाम अहकामात[9] जारी करता और बग़ैर किसी मदाख़लत[10] के चंबल से सतलुज तक अपना हुक्म चलाता था। 15 सितम्बर, 1803 ई. को जनरल लेक सिंधिया के एक सरदार बोर्गी ई को शिकस्त[11] देकर फ़ातेहाना[12] अंदाज़ से दाख़िल हुआ। बोर्गी ई का कुछ अर्से तक शहर पर क़ब्ज़ा रह चुका था और उसने इसे अंग्रेज़ों के लिए ख़ाली करने से पहले बहुत एहतेमाम[13] से लूटा था। जनरल लेक शहंशाह क ख़िदमत में हाज़िर हुआ, उसे बड़े-बड़े ख़िताब[14] दिए गए और शाहआलम और उसके जा-नशीन[15] ईस्ट इण्डिया कम्पनी के वज़ीफ़ा-ख़्वार</ref>वज़ीफ़ा पाने वाले</ref> हो गए। अट्ठाहरवीं सदी का दूसरा हिस्सा वह ज़माना था, जब यूरोप से सिपाही और ताजिर[16] हिन्दुस्तान में अपनी क़िस्मत आजमाने आए और उन्होंने ख़ूब हंगामे किए। इसके मुक़ाबले में बस्त[17] एशिया से मौक़े और मआश[18] की तलाश में आने वालों की तादाद कम थी, मगर थोड़े-बहुत आते ही रहे। इन्हीं में से एक मिर्ज़ा क़ोक़न बेग, मुहम्मद शाही दौर के आख़िर में समरकन्द से आए और लाहौर में मुईन-उल-मुल्क के यहाँ मुलाज़िम[19] हुए। उनके बारे में हमें कम ही मालूम है। उनके दो लड़के थे, मिर्ज़ा ग़ालिब के वालिद[20] अब्दुल्लाह बेग और नस्र उल्लाह बेग। अब्दुल्ला बेग को सिपगहरी[21] के पेशे में कोई ख़ास कामयाबी प्राप्त नहीं हुई। पहले वह आसिफ़ उद्दौला की फ़ौज में मुलाज़िम हुए, फिर हैदराबाद में और फिर अलवर के राजा बख़्तावर सिंह के यहाँ। बेशतर[22] वक़्त उन्होंने ‘ख़ाना दामाद’[23] की हैसियत से गुज़ारा। सन 1802 ई. में वह एक लड़ाई में काम आए, जब ग़ालिब की उम्र पाँच साल की थी। उनसे सबसे क़रीबी[24] अज़ीज़, [25] लोहारू के नवाब, भी तुर्किस्तान से आए हुए ख़ानदान के थे और उनके जद्दे-आला[26] भी उसी ज़माने में हिन्दुस्तान आए थे, जिस वक़्त मिर्ज़ा क़ोक़म बेग आए थे। ऐसे हालात, जबकि निज़ामे-ज़िन्दगी[27] के क़ायम रहने का ऐतबार[28] और निराज[29] और तसद्दुद[30] का दौर हो, जब मालूम होता हो कि सब कुछ चंद[31] जाँबाज़ों[32] के हाथ में हैं, असर डालते हैं और मुस्तक़िल[33] मायूसी[34] की फ़िजा[35] पैदा कर देते हैं। वैसे भी हस्सास[36] तबीअतं खुशी से ज़्यादा दर्द और ग़म की तरफ़ माइल[37] रहती है। ग़ालिब की ज़िन्दगी का पसे-मंज़र[38] मुग़ल सल्तनत का ज़वाल[39], देहाती सरदारों का उभरना और इक़्तिदार[40] हासिल करने के लिए उनके मुसलसल[41] मुक़ाबिले है, अगर इन्हें कुछ ख़ास अहमियत[42] नहीं दी जा सकती। हिन्दुस्तान में सियासी[43] ज़िन्दगी का दायरा विस्तृत नहीं था। नमक-हलाली की क़द्र की जाती थी, लेकिन सियासी वफ़ादारी को आमतौर पर एक अख़्लाक़ी[44] उसूल[45] नहीं माना जाता था। रिआया[46] के ख़ैर-ख़्वाह[47] हाकिम[48] अम्न[49] और इत्मीनान[50] क़ायम रखने की अपने बस भर कोशिश करते थे। मगर देहाती आबादी में ऐसे अनासिर [51] थे, जो कि मौक़ा पाते ही रहज़नी[52] शुरू कर देते। हम अगर अंदाज़ करना चाहें की शुमाली[53] हिन्दुस्तान की मुश्तरिक[54] शहरी तहज़ीब[55] और उस अदब[56] पर, जो उस तहज़ीब का तुर्जुमान[57] था, क्या-क्या असरात[58] पड़े, तो हम देखेंगे की उसकी तशकील[59] में बर्तानवी[60] तसल्लुत[61] से पहले की बदनज़्मी[62] से ज़्यादा दख़्ल[63] उन आदतों और उन तसव्वुरात[64] को था, जो सदियों से उस तहज़ीब को एक ख़ास शक्ल[65] दे रहे थे। उस मुश्तरिक शहरी तहज़ीब को शहरी होने और शहरी रहने की ज़िद थी। उसके नज़दीक शहर की वही हैसियत थी, जो सहरा[66] में नख़लिस्तान[67] की, शहर की फ़सीलCite error: Closing </ref> missing for <ref> tagमानो, जैसे की</ref> तहज़ीब को उस बरबरियत[68] से बचाती थी, जो उसे चारो तरफ़ से घेरे हुए थी। ज़िन्दगी सिर्फ़ शहर में मुमकिन[69] थी, और जितना बड़ा शहर उतनी ही मुकम्मल[70] ज़िन्दगी। यह हो सकता था कि इश्क़ और दीवानगी में कोई शहर से बाहर निकल जाए, क़ुदरत[71] से क़रीब होने के शौक़ में शायद ही कोई ऐसा करता, इसलिए की यह मानी हुई बात थी कि क़ुदरत की तकमील[72] शहर में होती है और शहर के बाहर क़ुदरत की कोई जानी-पहचानी शक्ल नज़र नहीं आती। शहर में बाग़ हो सकते थे और फूलों के हुजूम,[73] सर्व[74] की क़तारों के दरमियान[75] ख़िरामेनाज़[76] के लिए रविशें, [77] पत्तियों और पंखुड़ियों पर मोतियों की सी शबनम[78] की बूँदें, यहाँ बादे-सबा[79] चल सकती थी। बुलबलें गुलाबों को अपने नग़्में[80] सुना सकती थीं। क़फ़स[81] के गिरफ़्तार आज़ादी से लुत्फ़[82] उठाते हुए परिन्दों पर रश्क़[83] कर सकते थे। आशियानों[84] पर बिजलियाँ गिर सकती थीं। बे-शक शाइर का तसव्वुर[85] तशबीहों[86] और इस्तआरों[87] की तलाश में शहर से बाहर जाने पर मजबूर था, जिनकी मिसाल[88] क़ाफ़िले और कारवाँ और मज़िलें, तूफ़ानों से दिलेराना मुक़ाबिले, दश्त[89] सहरा, समंदर और साहिल[90] थे। लेकिन इस्तआरों की इफ़रात[91] भी शहर ही के अन्दर थी। मयख़ाना, साक़ी, शराब, जाहिद, [92] वाइज़,[93] कूच-ए-यार,[94] दरबान, दीवार, सहारा लेकर बैठने या सर फोड़ने के लिए, वह बाम[95] जिस पर माशूक इत्तफ़ाक़[96] से या जल्व:गरी[97] के इरादे से नमूदार[98] हो सकता था, वह बाज़ार जहाँ आशिक़ रुस्वाई[99] की तलाश में जा सकता था या जहाँ दार[100] पर चढ़ने के मंज़र[101] उसे दिखा सकते थे कि माशूक की संगदिली[102] उसे कहाँ तक पहुँचा सकती है। शहरों ही में महफ़िलें हो सकती थीं, जिसको शम्मए रौशन[103] करतीं और जहाँ परवाने शोले पर फ़िदा होते, जहाँ आशिक़ और माशूक़ की मुलाक़ात होती। हम शहरों पर इसका इल्ज़ाम[104] नहीं रख सकते कि उन्होंने शहर को यह अहमियत दे दी,शहर और देहात की बेगानिगी सदियों से चली आ रही थी, ये गोया हिन्दुस्तान के दो मुतज़ाद[105] हिस्से थे। मुल्क की तक़सीम[106] इसी एक नहज[107] पर नहीं थी। बादशाह, उमरा[108] सिपहसलार इक़तिदार[109] की कशमकश[110] में मुब्तिला[111] थे, एक जुए के खेल में जहाँ हर एक हिम्मत, मौक़ा और अपनी मस्लेहत[112] के लहहाज़ से[113] बाज़ी लगाता, बाक़ी आबादी को बस अपनी सलामती[114] की फ़िक्र थी। ज़मीर[115] और अख़्लाकी[116] उसूल बहस में नहीं आते थे। बाज़ी हारना और जीतना क़िस्मत की बात थी। आम मफ़ाद[117] का कोई तसव्वुर था भी तो वह ज़ाती[118] अग़राज़[119] की गंजलक़[120] में खो जाता और अगर कोई आम मफ़ाद को महसूस करता और उसे बयान करना चाहता तो उसे दीनी[121] और फ़िक़ही[122] इस्तलाहों[123] का सहारा लेना पड़ता, जिसका लाज़मी[124] नतीजा यह होता कि एक मज़हबी बहस खड़ी हो जाती। शाह इस्माइल शहीद की तसानीफ़[125] में जहाँ कहीं सियासी मसाइल[126] मोज़ू-ए-बहस[127] है, वहाँ हम देखते हैं कि एक नेकनीयत इंसान, जिसकी ख़्वाहिश यह थी कि हुकूमत की बुनियाद अदल[128] पर हो सिर्फ़ अपने ग़म और ग़ुस्से का इज़हार[129] कोई वाज़िह[130] और मुदल्लल[131] बात कहना मुमकिन ही नहीं था। शाइर को इख़्तियार था कि अहले-दौलतो-सर्वत[132] की शान में क़सीदे[133] लिखे या तवक्कुल[134] पर दरवेशों की सी ज़िन्दगी गुज़ारे। किसी मुरब्बी[135] पर भरोसा करने से आला[136] मेयार[137] की शायरी करने में रुकावट पैदा नहीं होती थी। मुरब्बी का एहसान मानना एक रस्मी[138] बात थी, इश्क़ और वफ़ादारी का मुस्तहक़[139] सिर्फ़ माशूक था, और शाइर अपनी तारीफ़ भी जिस अंदाज़ से चाहता कर सकता था। अगर वह किसी हद तक भी नाम पैदा करता तो उसका शुमार मुन्तख़ब[140] लोगों में होता और उसकी दुनिया मुन्तख़ब लोगों की दुनिया होती थी। एक और तक़सीम ‘आज़ाद’ यानी शरीफ़ मर्दों और औरतों की थी। आमतौर पर लोगों को अंदेशा[141] था कि देखने से गुफ़्तगू[142] और गुफ़्तगू से बदन छूने तक बात पहुँचती है, और बदन छूने का नतीजा यह हो सकता था कि दोनों फ़रीक़[143] बेक़ाबू हो जाएँ। इस अंदेशे ने एक रस्म बनकर आज़ाद ना-महरम[144] मर्दों-औरतों को सख़्ती के साथ एक-दूसरे से अलग कर दिया गया। इसी वजह से आज़ाद औरतों के बारे में लिखना उन्हें ज़बान और अदब की आँखों से देखने के बराबर और इसीलिए ना-मुनासिब[145] क़रार दिया गया।[146] इश्क़ से मुराद[147] मर्द-औरत की वह मुहब्बत नहीं थी, जिसका मक़सद[148] रफ़ीके-हयात[149] बनना हो, और इस बिना[150] पर शाइर यह जाहिर नहीं कर सकता था कि उसका माशूक मर्द है या औरत। माशूक़ के चेहरे और कमर का ज़िक्र किया जा सकता था। इसके अलावा उसके जिस्म के बारे में कुछ कहना बेहूदगी में शुमार होता था, अगरचे[151] ऐसे दौरे भी गुज़रे हैं जब बयान में उयानी[152] वज़:[153] के ख़िलाफ़ नहीं समझी जाती थी। लेकिन क़ायदे की पाबंदी का मतलब यह नहीं था कि औरत वुजूद[154] को ही नज़रअंदाज़[155] किया गया। उन मिसालों को छोड़कर जहाँ ईरानी रिवायत[156] की पैरवी में माशूक़ को अमरद[157] माना गया है, यह साफ़ जाहिर हो जाता है कि उर्दू के शाइर का ‘माशूक़’ औरत है। अलबत्ता इस बात का पता उसके तौर-तरीक़े, नाज़ो-अंदाज़ से चलता है, जिस्मानी[158] तफ़सीलात[159] से नहीं, और पसे-मंज़र घर नहीं है, बल्कि तवाइफ़[160] की बज़्म[161]। ‘मुरक़्क़:[162]-ए-देहली’ से, जो 1739 ई. की तसनीफ़[163] है, मालूम होता है कि तवाइफ़ें किस दर्जा[164] शहर की तहज़ीबी[165] और समाजी ज़िन्दगी पर हावी[166] थीं। लखनऊ और दूसरे बड़े शहरों की हालत वही होगी, जो कि देहली की। शाह इस्माईल शहीद के बारे में एक क़िस्सा है कि, उन्होंने बहुत-सी औरतों की टोलियों को, जो बहुत आरास्ता-पैरास्ता[167] थीं, रास्ते पर से गुज़रते देखा। दरयाफ़्त[168] करने पर मालूम हुआ कि वे तवाइफ़ें हैं और किसी मुमताज़[169] तवाइफ़ के यहाँ तक़रीब[170] शिरकत[171] के लिए जा रही हैं। शाह साहब ने उन्हें ‘राह:-ए-रास्त’[172] पर चलने की तरग़ीब[173] दिलाने के लिए इसे एक बहुत अच्छा मौक़ा समझा और फ़क़ीर का भेस बनाकर उस मकान के अन्दर पहुँच गए जहाँ तवाइफ़ें जमा हो रही थीं। उनकी शख़्सियत[174] में बड़ा वक़ार[175] था और अगरचे उन्हें इस्लाह[176] का काम शुरू किए ज़्यादा अर्सा नहीं हुआ था। साहिबे-ख़ान:[177] ने उन्हें फ़ौरन पहचान लिया। उसके सवाल के जवाब में कि वह कैसे तशरीफ़ लाए है, शाह साहब ने क़ुरआन की एक आयत[178] पढ़ी और एक वाज़[179] कहा, जिसको सुनकर तवाइफ़ें आबदीद:[180] हो गईं। नदामत[181] से आँसू बहाना तवाइफ़ों की तहज़ीब में शामिल था, अगरचे निजात[182] की ख़ातिर पेशा तर्क कर देना[183] क़ाबिले-तारीफ़[184] मगर ख़िलाफ़े-मामूल[185] समझा जाता था। तवाइफ़ें अपने ख़ास क़ायदों और रस्मों के मुताबिक़[186] ज़िन्दगी बसर करती थीं और अगर एक तरफ़ उनका पेशा बहुत गिरा हुआ माना जाता था तो दूसरी तरफ़ बाज़[187] ऐतबार से[188] इस नुक़सान की कुछ तलाफ़ी[189] भी हो जाती थी। वह बज़्म, जिसका उर्दू शाइरी में इतना ज़िक्र आता है, दोस्तों की महफ़िल नहीं होती थी। लोग किसी मेज़बान की दावत[190] पर जमा नहीं होते थे, न तहज़ीबी मशाग़िल[191] के लिए आम इज़्तमा[192] होता था। ऐसी महफ़िलों में माशूक़ और रक़ीब[193] और ग़ैर[194] का क्या काम होता, मगर तवाइफ़ की बज़्म में यह सब मुमकिन था। ग़ालिब ने ये शेर कहे तो ऐसी बज़्म उनकी नज़र में होगी- मैंने कहा कि बज़्मे-नाज़[195] चाहिए ग़ैर से तही[196] सुनकर सितम-ज़रीफ़[197] ने मुझको उठा दिया कि यूँ हाँ वो नहीं ख़ुदा-परस्त[198] जाओ वो बेवफ़ा सही जिसको हो दीनो-दिल अज़ीज़[199] उसकी गली में जाएँ क्यों।   हम जितना उन सूरतों पर ग़ौर करें, जिनमें की माशूक़ एक औरत है और देखें कि वह आशिक़ के साथ क्या बर्ताव करती है, उतना ही यह वाज़ह[200] हो जाता है कि इस शाइराना इस्तआर:[201] से मुराद क्या है और उतना ही साफ़ बज़्म का नक़्शा हो जाता है। इसका हरग़िज़ यह मतलब नहीं है कि वो तमाम शाइर जो माशूक़ की बज़्म का ज़िक्र करते हैं, तवाइफ़ों की बज़्म में शरीक[202] होते थे, जैसे शराब और मयख़ाना का ज़िक्र करने का यह मतलब नहीं है कि वो शराब की दुकान पर बैठकर ठर्रा चलाते थे। मगर इसमें शक नहीं कि शहर में लौंडियों और ख़ादिमाओं[203] और मज़दूर पैशा औरतों के अलावा सिर्फ़ तवाइफ़ें बे-नक़ाब[204] नज़र आती थीं। नाज़ो-अदा दिखाने, तल्ख़[205] और शीरीं[206] गुफ़्तगू करने, लुत्फ़ और सितम से पेश आने का मौका उन्हीं को था। उन्हें नाच और गाने के अलावा गुफ़्तगू का फ़न[207] सिखाया जाता था और तवाइफ़ों की बज़्म ही एक ऐसी जगह थी, जहाँ मर्द बे-तकल्लुफ़ी[208] और आज़ादी के साथ रंगीन गुफ़्तगू, फ़िक़रेबाज़ी और हाज़िर जवाबी में अपना कमाल दिखा सकते थे। बड़ी ख़ानदानी तक़रीबों[209] तवाइफ़ों का नाच गाना कराना खुशहाल घरानों का दस्तूर[210] था, और जो लोग ‘बज़्म’ में शिरकत करना पसंद न करते, वे ऐसे मौक़ों पर गुफ़्तगू के फ़न में अपना हुनर दिखा सकते थे। शरीफ़ों और तवाइफ़ों के यक-जा[211] होने के मौक़े उर्स फ़राहम[212] करते थे, जिनमें से अक्सर में तवाइफ़ों को शरीक़होने की इजाज़त थी। अब हम खुद ही सोच सकते हैं कि माशूक़ की तस्तीरें किस बुनियादी अक्स[213] को सामने रखकर बनाई गई होगी, और ऐसी औरत कौन हो सकती थी, जिसका कोई ख़ानदान न हो, ताल्लुक़ात[214] और ज़िम्मेदारियाँ न हों और जो इस वजह से एक वुजूदे-महज़[215] एक ख़ालिस[216] जमालियाती[217] तसव्वुर[218] में तब्दील की जा सके। उन्नीसवीं सदी के निस्फ़-आख़िर[219] की जहनी क़ैफ़ियत[220] और इस्लाह की मुख्लिसाना[221] कोशिशों ने इस हक़ीकत[222] पर पर्दा डाल दिया है। दूसरी तरफ़ पारसा मिजाज़[223] और हया-ज़दा[224] लोग इस पर मुसिर[225] रहे कि मयख़ाना और शराब की तरह माशूक़ भी एक अलामत[226], एक इस्तआर: है, जिसे मजाज़ी[227] कसाफ़तों[228] से कोई निस्वत[229] नहीं। उन्हें अपने जिद पूरी करने में कोई दुश्वारी[230] नहीं होती। इसलिए की सूफ़ियाना[231] शाइरी की रिवायत[232] ने तमाम कैफ़ियतों[233] को, और ख़ासतौर से आसिक़ो-माशूक़ के रिश्ते को एक रूहानी[234] हक़ीक़त का अक्स माना जाता है। लेकिन इस वजह ने हमारे ज़माने के नक़्क़ाद[235] क्यों समाजी हालात को नज़रअंदाज़ करें और क्यों शहर को इस इल्ज़ाम से न बचाएँ कि उसका माशूक़ बिल्कुल फ़र्जी[236], उसका इश्क़ महज धोका और एहसासात[237] ख़ालिस तमन्ना[238] हैं। अब कुछ समाजी हालात को देखिए, जिनका अदब पर अक्स पड़ा। शहरों में शरीफ़ों के लिए पैदल चलना दस्तूर न था। किसी क़िस्म की सवारी पर आना-जाना लाज़िमी था। घोड़े-गाड़ी का रिवाज़ अंग्रेज़ों की वजह से हुआ, घोड़े की सवारी लम्बे सफ़र पर की जाती, शहर के अन्दर इसका रिवाज़ न था। आम सवारी किसी क़िस्म की पालकी थी। इसका नतीजा यह था कि कोई हैसियत वाला अकेला टहन नहीं सकता था। रास्ते में खड़े होकर लोगों को अपने काम से आते-जाते नहीं देख सकता था, सेहत[239] की ख़ातिर भी पैदल सैर नहीं कर सकता था। अवाम[240] घुल-मिल नहीं सकता था। आवाम में घुलने-मिलने का और कोई इम्कान[241] नहीं था। शरई[242] क़ानून के मुताबिक़ सब इंसान बराबर थे और इस क़ानून को मानने से किसी ने भी इन्कार नहीं किया। लेकिन क़ानून ने इसका हुक्म नहीं दिया था कि लोग आला[243] और अदना[244], अमीर और ग़रीब के फ़र्क़ को नज़रअंदाज़ करके वजह से मुख़्तलिफ़[245] तब्क़े[246] अलग रहते थे, सख़्ती से अमल किया जाता था। मुमकिन है कि यह जातों की तक़सीम[247] के इन क़ायदों के वुजूद[248] से इन्कार नहीं किया जा सकता। इनकी वजह से शाइर अवाम से अलग और शाइरी के अवाम के ज़ज़्बात[249] से दूर रही। सिर्फ़ नज़ीर अकबरावादी ने शाइरी को इस करन्तीन: [250] से निकाला और उनके कलाम का हुस्न[251] और उसकी रंगीनी इसकी शहादत[252] देती है कि उर्दू शाइरी ने समाजी पाबंदी का लिहाज़ करके अपने आपको बहुत-सी वारदाते-क़ल्बी[253] से महरूम[254] रखा। लेकिन नज़ीर अकबरावादी के तरीक़े को शाइरों और नक़्क़ादों[255] ने पसंद नहीं किया, और उनके हम-अस्र[256] लोगों पर उनके कलाम का असर नहीं हुआ। इस तरह शाइर के एहसासात[257] का ताल्लुक[258] उसकी ज़ात[259] से ही रहा, उसकी कैफ़ियतें[260] समाज की ख़ुशी और रंज से अलग और मुख़्तलिफ़[261] सफ़र का रिवाज़ भी इंसानों को एक-दूसरे के क़रीब लाने का ज़रिया[262] है। लेकिन यह भी समाज में रब्त[263] पैदा न कर सका। सफ़र करना मुश्किल था, लोग शहर से बाहर निकलने से घबराते थे। ‘ग़ालिब’ का एक फ़ारसी का शेर है- अगर ब-दिल[264] न ख़लद[265] हर चे[266] दर नज़र[267] गुज़रद[268] खुशा[269] रवानी-ए-उम्रे[270] कि दर सफ़र[271] गुज़रद   लेकिन दरअसल वह सफ़र की ज़हमतों[272] से बचना चाहते थे। कलकत्ता जाते हुए उन्हें जो लुत्फ़[273] आया वह मुलाकालों और सुहबतों[274] का लुत्फ़ था, या फिर नया शहर देखने का। बनारस और कलकत्ता दोनों ही उन्होंने फ़ारसी की मस्नवियों में बहुत तारीरफ़ की है। क़ानून और रस्मों-रिवाज दोनों हर फ़र्द[275] को समाज और उस जमात[276] का, जिसका वह रुकन[277] होता, मातहत[278] और पाबंद रखते थे। शायद इसी से रिहाई[279] हासिल करने के लिए हस्सास[280] अफ़राद[281] दिलो-दिमाग की तन्हाई[282] में अपनी ज़िन्दगी अलग बनाते थे। इसके अलावा उस दौर में अलग-अलग जहनी[283] खानों में बन्द होकर सोचने और अमल[284] करने की एक अजीबो-ग़रीब कैफ़ियत थी। शाइर को उन सियासी[285] तब्दीलियों[286] से, जिनका शुरू में ज़िक्र किया गया, इस क़द्र कम वास्ता[287] था कि गौया[288] शाइरी और सियासी ज़िन्दगी में कोई लाज़िमी[289] और क़ुदरती[290] ताल्लुक़ नहीं। ‘ग़ालिब’ ने अपनी एक फ़ारसी की मस्नवी में वुजूदियों[291] और शहूदियों[292] के इख़्तलाफ़ात[293] का ज़िक्र किया है। मगर इसके बावजूद यह कहना ग़लत नहीं है कि उस दौर की इस्लाही[294] तहरीरों[295] का, जिनकी रहनुमाई[296] सैयद अहमद शहीद और शाह इस्माइल शहीद जैसे बुज़ुर्ग कर रहे थे। शाइरी पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा। ‘ग़ालिब’ ने जहाँ कहीं ज़ाहिद[297] और वाइज़[298] का ज़िक्र किया है। उससे मुराद[299] रिवायती[300] ज़ाहिद और वाइज़ हैं। उनके अपने ज़माने के लोग नहीं हैं। खुद ग़लत का तर्ज[301] खानों में बन्द होकर सोचने की एक नुमायाँ[302] मिसाल है कि ग़ज़ल के हर शेर का अलग मौजू[303] होता है और उसका पिछले और बाद के शेर से कोई ताल्लुक़ नहीं होता। बेशक ग़ज़लों में भी कभी-कभी ख़याल का तसल्सुल[304] मिलता है और कत:बंद की भी मुमानियत[305] नहीं थी, लेकिन मुनासिब[306] यह था कि हर शेर का मज़मून[307] अलग हो। मालूम होता है कि ‘ग़ालिब’ के दौर में शाइर के सियासत,[308] समाज और मज़हब[309] के मुआमलात[310] से अलग रहने का असल सबब[311] यह था कि ज़िन्दगी का मुख़्तलिफ़ ख़ानों में तक़सीम[312] होना आमतौर पर तस्लीम[313] कर लिया गया था। शहरों में इन-फ़रादियत[314] को फ़रौग[315] वहदत-उल-बुजूद[316] के नज़रिये[317] की वजह से भी हुआ। इस नज़रिए के मुताबिक़[318] इंसान और उसके ख़ालिक़[319] के दरमियान ब-राहे रास्त[320] ताल्लुक़ हो सकता था। किसी वसीले[321] की ज़रूरत नहीं थी। इस तरह शाइर अक़ीदे[322] और अमल के मुआमलात में ख़ुद फैसला करने का इख़्तियार[323] रखता था, और समाज से अलग होकर वह अपनी इन्फ़रादियत का जो तसव्वुर[324] चाहता क़ायम कर सकता था। अपनी ज़िन्दगी का अलग नस्ब-उल-ऐन[325] मुक़र्रर करके चाहता तो कह सकता था कि इश्क़, आशिक़ और माशूक़ के सिवा जो कुछ है, सब हेच[326] है।

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  1. घेरकर
  2. जीत
  3. रक्षक
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  5. उत्तरी
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  8. ठाट-बाट
  9. आदेश
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  55. सभ्यता, संस्कृति
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  98. प्रकट
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  110. संघर्ष
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  131. तर्क-संगत
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  152. नग्नता
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  155. उपेक्षित, उपेक्षा
  156. परम्परा
  157. वह लड़का जिसके अभी दाढ़ी मूंछ नहीं आई हो
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  161. महफ़िल
  162. वह ग्रन्थ जिसमें लेखन कला के सुन्दर नमूने या चित्र संग्रहीत हों
  163. रचना
  164. किस सीमा तक
  165. सांस्कृतिक
  166. छाई हुई
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  170. आयोजन
  171. भाग लेने, सम्मिलित होने
  172. सीधी राह
  173. प्रलोभन, आकर्षण
  174. व्यक्तित्व
  175. वैभव
  176. सुधार
  177. मेज़बान, आथितेय, गृह स्वामी
  178. वाक्य
  179. प्रवचन
  180. आँखें भर लाईं
  181. लज्जा, पश्चाताप
  182. मुक्ति
  183. छोड़ देना
  184. प्रवचन
  185. सामान्य आचरण के प्रतिकूल
  186. अनुसार
  187. कुछ
  188. दृष्टियों से
  189. क्षतिपूर्ति
  190. आमंत्रण
  191. कार्यों
  192. सभा, सम्मेलन
  193. प्रतिद्वन्द्वी
  194. पराया
  195. प्रेमिका की महफ़िल
  196. ख़ाली
  197. विनोद-विनोद में सताने वाला
  198. ख़ुदा-भक्त
  199. प्यारा, प्रिय
  200. स्पष्ट
  201. रूपक
  202. सम्मिलित
  203. सेविकाओं
  204. बेपर्दा
  205. कड़वी
  206. मीठी
  207. कला
  208. अनौपचारिक
  209. उत्सव आयोजन
  210. चलन
  211. एक स्थान पर
  212. उपलब्ध
  213. प्रतिबिम्ब
  214. सम्बन्ध
  215. अस्तित्व मात्र
  216. शुद्ध
  217. सौंदर्य शास्त्रीय
  218. कल्पना
  219. उत्तरार्ध
  220. मानसिक स्थिति, मनोदशा
  221. सौहार्दपूर्ण
  222. वास्तविकता
  223. धर्मनिष्ठ
  224. लोक लाज के मारे हुए
  225. आग्रही
  226. प्रतीक
  227. लौकिक
  228. विकारों
  229. सम्बन्ध
  230. कठिनाई
  231. सूफियों (सांसारिक मोहों से मुक्त ईश्वर की साधना में लगे हुए लोग)-जैसी
  232. परम्पराओं
  233. स्थिति
  234. आध्यात्मिक
  235. आलोचक
  236. कृत्रिम
  237. अनुभूतियाँ
  238. बनावटी
  239. स्वास्थ्य
  240. जनता, साधारण लोग
  241. सम्भावना
  242. इस्लाम धर्म के
  243. उच्च
  244. साधारण, तुच्छ
  245. विभिन्न
  246. वर्ग
  247. विभाजन
  248. अस्तित्व
  249. भावों, भावनओं
  250. दायरा
  251. सौंदर्य
  252. साक्षी, गवाही
  253. हार्दिक घटनाएँ
  254. वंचित
  255. आलोचकों
  256. समकालीन
  257. भावनाओं
  258. सम्बन्ध
  259. निज से, शरीर से
  260. स्थिति
  261. भिन्न रहीं।
  262. माध्यम
  263. सम्पर्क
  264. दिल में
  265. न चुभे
  266. जो कुछ
  267. नज़र में
  268. गुज़रे
  269. कितना अच्छा है
  270. उम्र की रवानी
  271. सफ़र में
  272. कष्टों
  273. आनन्द
  274. संग-साथ
  275. व्यक्ति
  276. समूदाय, वर्ग
  277. सदस्य
  278. अधीन
  279. मुक्ति
  280. संवेदन, शील
  281. व्यक्ति (फ़र्द का बहुवचन)
  282. एकान्त
  283. मानसिक
  284. आचरण
  285. राजनैतिक
  286. परिवर्तन
  287. सम्बन्ध
  288. मानो
  289. अनिवार्य
  290. प्राकृतिक, स्वाभाविक
  291. अस्तित्ववादी सूफ़ी
  292. साक्ष्यवादी सूफ़ी
  293. मतभेद
  294. सुधारक, सुधारकवादी
  295. आन्दोलन
  296. पथ-प्रदर्शन
  297. ईश्वर भक्त, ख़ुदापरस्त
  298. धर्मोपदेशक
  299. आशय
  300. पारम्परिक
  301. शैली
  302. प्रकट, खुला
  303. विषय
  304. निरन्तरता
  305. वर्ज़ना
  306. उचित
  307. विषय
  308. राजनीति
  309. धर्म
  310. मामलों
  311. कारण
  312. विभाजन
  313. स्वीकार
  314. व्यक्तित्ववाद
  315. प्रोत्साहन
  316. अद्वैतवाद
  317. विचारधारा, दृष्टिकोण
  318. अनुसार
  319. सृष्टा
  320. सीधा
  321. माध्यम
  322. दृढ़ विश्वास, आस्था
  323. अधिकार
  324. विचार, कल्पना
  325. उद्देश्य, लक्ष्य
  326. तुच्छ