श्यामलाल गुप्त 'पार्षद'

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श्यामलाल गुप्त पार्षद झंडा गान के रचयिता थे उनका जन्म 16 सितम्बर 1893 को कानपुर जिले के नरवल कस्बे कस साधारण व्यवसायी विश्वेश्वर गुप्त के घर पर हुआ था आप अपने पांच भाइयों में सबसे छोटे थे आपने मिडिल की परीक्षा के बाद विशारद की उपाधि हासिल की जिसके पश्चात जिला परिषद तथा नगरपालिका में अध्यापक की नौकरी प्रारंभ की परन्तु दोनों जगहों पर तीन साल का बान्ड भरने की नौबत आने पर नौकरी से त्यागपत्र दे दिया वर्ष 1921 में गणेश शंकर विद्यार्थी के संपर्क में आये तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागिता की । आपने एक व्यंग्य रचना लिखी जिसके लिये तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने आपके उपर 500 रूपये का जुर्माना लगाया । आपने वर्ष 1924 में झंडागान की रचना की जिसे 1925 में कानपुर में कांग्रेस के सम्मेलन में पहली बार झंडारोहण के समय इस गीत को सार्वजनिक रूप से सामूहिक रूप से गाया गया। यह झंडागीत इस प्रकार है

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा झंडा उंचा रहे हमारा सदा शक्ति बरसाने वाला वीरों को हर्षाने वाला शंाति सुधा सरसाने वाला मातृभूमि का तन मन सारा झंडा उंचा रहे हमारा

इस गीत की तीसरी पंक्ति में गांधी जी ने ’शांति’ के स्थान पर ’प्रेम’ शब्द जोडकर इसे शंशोंधित किया आदरणीय गुप्तजी ने गांधी जी के नमक आन्दोलन 1930 में भाग लिया और गिरिफ्तार हुये 1932 1934 1940 में आप लंबे समय तक भूमिगत रहे आपने कानपुर में गंगादीन गौरी शंकर विद्यालय की स्थापना की जिसे अब दोसर वैश्य इंटर कालेेज के नाम से जाना जाता हैै। आपने एक अनाथालय और एक बालिका विद्यालय की भी स्थापना की । भारत भूमि से उनका प्रेम आजादी के बाद उत्पन्न हुयी परिस्थितियों में उन्होंने एक नये गीत की रचना 1972 में की जिसे 12 मार्च को लखनउ के कात्यायिनी कार्यक्रम में सुनाया


देख गतिविधि देश की मैं मौन मन से रो रहा हूं आज चिंतित हो रहा हूं बोलना जिनको न आता था, वही अब बोलते है रस नहीं वह देश के , उत्थान में विष घोलते हैं

आप अत्यंत स्वाभिमानी व्यक्ति थे । 10 अगस्त 1977 को आपने इस संसार से विदा ली। यह इस देश का दुर्भाग्य रहा कि झंडागीत के माध्यम से जिस देश की आजादी के आन्दोलन को उन्होने आगे बढाया उसी आजाद देश में उनके देहावसान के अवसर पर राष्ट्रीय झंडा एक दिन के लिये भी नहीं झुकाया गया


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