श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 3 श्लोक 61-72

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 12:49, 29 July 2015 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

तृतीय (3) अध्याय

श्रीमद्भागवत माहात्म्य: तृतीय अध्यायः श्लोक 61-72 का हिन्दी अनुवाद

संसार के मनुष्य नान प्रकार कर्मों में रचे-पचे हुए हैं, ये लोग आज तक प्रायः भागवत-श्रवण की बात भी नहीं जानते । तुम्हारे ही प्रसाद से इस भारतवर्ष में रहने वाले अधिकांश मनुष्य श्रीमद्भागवत कथा की प्राप्ति होने पर शाश्वत सुख प्राप्त करेंगे । महर्षि भगवान श्रीशुकदेवजी साक्षात् नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के स्वरुप हैं, वे ही तुम्हें श्रीमद्भागवत की कथा सुनायेंगे; इसमें तनिक भी सन्देह की बात नहीं है । राजन्! उस कथा के श्रवण से तुम व्रजेश्वर श्रीकृष्ण के नित्य धाम को प्राप्त करोगे। इसके पश्चात् इस पृथ्वी पर श्रीमद्भागवत-कथा का प्रचार होगा । अतः राजेन्द्र परीक्षित्! तुम जाओ और कलियुग जीतकर अपने वश में करो। सूतजी कहते हैं—उद्धवजी के इस प्रकार कहने पर राजा परीक्षित् ने उनकी परिक्रमा करके उन्हें प्रणाम किया और दिग्विजय के लिये चले गये । इधर वज्र ने भी अपने पुत्र प्रतिबाहु को अपनी राजधानी मथुरा का राजा बना दिया और माताओं को साथ ले उसी स्थान पर, जहाँ उद्धवजी प्रकट हुए थे, जाकर श्रीमद्भागवत सुनने की इच्छा से रहने लगे । तदनन्तर उद्धवजी ने वृन्दावन में गोवर्धन पर्वत के निकट एक महीने तक श्रीमद्भागवत कथा के रस की धारा बहायी । उस रस का आस्वादन करते समय प्रेमी श्रोताओं की दृष्टि में सब ओर भगवान की सच्चिदानन्दमयी लीला प्रकाशित हो गयी और सर्वत्र श्रीकृष्णचन्द्र का साक्षात्कार होने लगा । उस समय सभी श्रोताओं ने अपने को भगवान के स्वरुप एन स्थित देखा। वज्रनाभ ने श्रीकृष्ण के दाहिने चरणकमल में अपने को स्थित देखा और श्रीकृष्ण के विरह शोकसे मुक्त होकर उस स्थान पर अत्यन्त सुशोभित होने लगे। वज्रनाभ की वे रोहिणी आदि माताएँ भी रास की रजनी में प्रकाशित होने वाले श्रीकृष्ण रूपी चन्द्रमा के विग्रह में अपने को कला और प्रभा के रूप में स्थित देख बहुत ही विस्मित हुई तथा अपने प्राण प्यारे की विरह-वेदना से छुटकारा पाकर उनके परमधाम में प्रविष्ट हो गयीं । इनके अतिरिक्त भी जो श्रोतागण वहाँ उपस्थित थे वे भी भगवान की नित्य अन्तरंग लीला में सम्मिलित होकर इस स्थूल व्यावहारिक जगत् से तत्काल अन्तर्धान हो गये । वे सभी सदा ही गोवर्धन-पर्वत के कुंज और झाड़ियों में, वृन्दावन-काम्यवन आदि वनों में तथा वहाँ की दिव्य गौओं के बीच में श्रीकृष्ण के साथ विचरते हुए अनन्त आनन्द का अनुभव करते रहते हैं। जो लोग श्रीकृष्ण के प्रेम में मग्न हैं, उन भावुक भक्तों को उनके दर्शन भी होते हैं । सूतजी कहते हैं—जो लोग इस भगवत्प्राप्ति की कथा को सुनेंगे और कहेंगे, उन्हें भगवान मिल जायँगे और उनके दुःखों का सदा के लिये अन्त हो जायगा ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः