भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-4

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2.काल और मूल पाठ

इन विभिन्न मतों का कारण यह तथ्य प्रतीत होता है कि गीता में दार्शनिक और धार्मिक विचार की अनेक धाराएं अनेक ढंगों से घुमा-फिराकर एक जगह मिलाई गई है; अनेक परस्पर-विरोधी दीख पड़ने वाले विश्वासों को एक सीधी-सादी एकता में गूंथ दिया गया है, जिससे वे सच्ची हिन्दू भावना से उस काल की आवश्यकता को पूरा कर सके और इन सब विश्वासों के ऊपर इस भावना ने परमात्मा की चारूता बिखेर दी है। गीता विभिन्न विचारधाराओं में मेल बिठाने में कहां तक सफल हुई है, इस प्रकार का उत्तर सारे ग्रन्थ को पढ़ने के बाद पाठक को अपने लिए स्वयं देना होगा। भारतीय परम्परा में सदा ही यह अनुभव किया गया है कि परस्पर असंगत दीख पड़ने वाले तत्व गीता के लेखक के मन में मिलकर एक हो चुके थे और जो शानदार समन्वय उसने सुझाया है। और स्‍पष्‍ट किया है, वह सच्चे आत्मिक जीवन को बढ़ाता है, भले ही गीताकार ने उसे युक्तियां देकर विस्तार पूर्वक सिद्ध नहीं किया। अपने प्रयोजन के लिय हम गीता के उस मूल पाठ को अपना सकते हैं, जिसे शंकराचार्य ने अपनी टीका में अपनाया हैं, क्योंकि इस समय गीता की वही सबसे पुरानी विद्यमान टीका है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कश्मीरी संस्करणों में मूल पाठ में जो थोड़े-बहुत अन्तर दिखाई पड़ते हैं, उनका गीता की सामान्य शिक्षाओं पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। देखिए एफ़० ए० श्रेडर की पुस्तक ‘दि कश्मीर रिसैन्शन ऑफ़ दि भगवद्गीताद्’ (1930)

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