भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-84

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 07:03, 13 August 2015 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (1 अवतरण)
Jump to navigation Jump to search

भागवत धर्म मिमांसा

2. भक्त लक्षण

देखने में ऐसा लगता है कि भक्तों का दूसरा दर्जात कठिन नहीं है। किंतु वह भी सरल बात नहीं है। उसमें ईश्वर को प्रेम देने की बात कही है। इस पर सवाल आएगा कि हमारे जो निकट संबंधी हैं, उनके लिए प्रेम होना चाहिए या नहीं? सच पूछें तो हमारा प्रेम उन्हीं में बँटा हुआ है। किंतु वहाँ हमें आसक्ति है। तो, पहले वह आसक्ति हटानी पड़ेगी। मतलब यह कि जिस पर हमारा प्रेम है, उसे ईश्वर की भावना से देखा जाए। इसके लिए क्या करना होगा? उस व्यक्ति की सेवा करनी होगी। सेवा लेनी नहीं होगी। सेवा लेते हैं, तो हम लोग भोग रहे हैं, ऐसा होगा। भोग भोगना प्रेम नहीं। दूसरी बात, संबंधियों, रिश्तेदारों पर हक पुत्र आदि रिश्तों में कामना का अंश होता है। इसलिए वह प्रेम भक्ति में मान्य नहीं। निष्काम प्रेम ही भक्ति को मान्य होता है। मित्र समानशील होते हैं, एक साथ खेलते हैं, उनमें मैत्री होती है, प्रेम बनता है। वैसा ही यहाँ कहा है कि भक्तों के साथ हमें मैत्री करनी चाहिए। मैत्री के लिए क्या करना होगा? आदर-सत्कार की बात अलग है और मैत्री जरा कठिन है। भक्तों के साथ मैत्री करनी है, तो हमें भी भक्त बनना पड़ेगा। सामान्य मूढ़जनों के लिए चित्त में करुणा आनी चाहिए। उनके लिए तिरस्कार न हो। मन में दूरीभाव न होना, प्रतीकार न करना, कुछ टेढ़ी बात मालूम होती है। पर ईसा न तो इससे भी टेढ़ी बात कही है। वह कहता है : लव् दाय एनिमी- शत्रु पर प्यार करो। तुम उससे द्वेष करते हो, तो द्वेष से द्वेष बढ़ेगा, कम नहीं होगा। द्वेष के विरोध में तो प्रेम ही चाहिए। पूर्ण प्रेम करो। दुश्मनों पर भी प्रेम करो। ईसा ने यह एक विधायक (पॉजिटिव) बात कही, केवल निषेधक (निगेटिव) नहीं। जिसने आप पर अपकार किया है, मौका देखकर उसका भला करो, तब उसका हृदय जीता जा सकेगा। किसी ने गलत काम किया हो, तो उसका प्रभाव अपने पर न होने दें, यह बात कुछ आसान है। लेकिन ईसा विधायक (पॉजिटिव) बात कहता है कि हम अपने ऊपर असर होने दें। ऐसा असर हो कि हम अधिक प्रेम करने लगें। मुझे लगा कि यह बात जरा साफ होनी चाहिए, क्योंकि द्वितीय श्रेणी में सफर करनी है, तो उसके लिए कितना खर्चा पड़ेगा, यह भी तो देख लेना होगा। उतने पैसे हमारी जेब में हों, तभी द्वितीय श्रेणी में सफर कर सकेंगे, नहीं तो तृतीय श्रेणी है ही। फिर तीसरे दर्जे की बात जो बतायी है कि मूर्ति, मंत्र, चिह्न, पुस्तक आदि के लिए विशेष भाव है, पर प्रत्यक्ष भक्त आ जाए तो उस पर कई परिणाम नहीं होता, वह आरंभमात्र है। बच्चों को सिखाते समय चित्र दिखाते हैं, वैसा ही वह केवल आरंभ है। कुछ लोगों का सवाल है कि तीसरे वर्ग में जो कहा गाय है, उसका स्थान मुहम्मद पैगम्बर ने नहीं माना। किंतु “मुसलमानों की ‘कुरान’ पर बहुत निष्ठा होती है।” यह उसी का एक प्रकार है। यह ठीक है कि इसका जितना स्थूलरूप अपने यहाँ है, उतना उनमें नहीं है, सूक्ष्म है। किंतु मूर्तिपूजा देहधारी के लिए टल नहीं सकती। उसके प्रकार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। यह प्रकार आरंभ में होता है, इसलिए इसको नाम दिया है ‘प्राकृत’ यानी पामर। एक प्रकार से निषेध किया है और एक तरह से स्वीकृति भी दी है। [1] यानी दोनों को इकट्ठा कर लिया है, वह भागवत की खूबी है। इससे भागवत यही कहना चाहती है कि जल्दी से जल्दी दूसरे दर्जे में आ जाएं, तो अच्छा।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्राकृत- पामर या प्रकृतिसिद्ध। पहले अर्थ से निषेध स्पष्ट हैं। प्रकृतिसिद्ध होने से टाला नहीं जा सकता है, इसलिए स्वीकृति भी। सं.

संबंधित लेख

-


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः