गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-5

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गीता-प्रबंध
1.गीता से हमारी आवश्यकता और मांग

मालूम होता है कि शास्त्र शब्द से गीता में उस विधान से मतलब है जिसे मनुष्य-जाति ने असंस्कृत प्राकृत मनुष्य के केवल अहंभाव से प्रेरित कर्म के स्थान पर अपने ऊपर लगाया है, इस विधान का हेतु अहंकार को हटाना है, और मनुष्य की जो स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपनी वासनाओं की तृप्ति को ही अपने जीवन का मानक और उद्देश्य बना लेना चाहता है, उस प्रवृत्ति का नियमन करना है। ऐसे ही चातुर्वण्र्य भी एक आध्यात्मिक तथ्य का ही एक स्थूल रूप है, जो स्वयं उस स्थूल रूप से स्वतंत्र है। उसका अभिप्राय यह है कि कर्म, कर्ता के स्वभाव के अनुसार सम्यक् रूप से संपादित हों और वह स्वभाव सहज गुण और अपने-आपको प्रकट करनेवाली वृत्ति के अनुसार उसके जीवन की धारा और क्षेत्र को निर्धारित करे। इसलिये जब गीता में आये हुए स्थानिक और सामयिक उदाहरण इसी गंभीर और उदार भाव से प्रयुक्त हुए हैं तो हमारा इसी सिद्धांत का अनुसरण करना और स्थानिक और सामयिक दीखनेवाली बातों में छिपे गभीरतर सामान्य सत्य को ढूंढता समुचित ही होगा। कारण, यह बात पद-पद पर मिलेगी यह गभीरतर तथ्य और तत्व गीता की विवेचन-पद्धति में बीज- रूप से वहां भी छिपा है जहां वह स्पष्ट शब्दों में व्यक्त नहीं किया गया है।
गीता में तत्कालीन दार्शनिक परिभाषाओं और धार्मिक संकेतों के प्रयुक्त होने से जो दार्शनिक सिद्धांत या धार्मिक मत आ गये हैं या किसी प्रकार संग हो लिये हैं उनका विवेचन भी हम इसी भाव से करेंगे। गीता में जहां सांख्य और योग की बात आती है वहां हम गीता के एक पुरुष का प्रतिपादन करने वाले वेदांत के सांचे में ढले हुए सांख्य का, प्रकृति और अनेक पुरुषों का प्रतिपादन करने वाले अनीश्वरवादी सांख्य के साथ उतना ही तुलनात्मक विवेचन करेंगे जितना कि हमारी व्याख्या कि लिये आवश्यक होगा। इसी प्रकार गीता के बहुविध, सुसमृद्ध, सूक्ष्म और सरल स्वाभाविक योग के साथ पातंजल योग के शास़्त्रीय, सूत्रबद्ध, और क्रमबद्ध मार्ग का भी उतना ही विवेचन करेंगे, उससे अधिक नहीं। गीता में सांख्य और योग एक ही वेदांत के परम तात्पर्य की ओर ले जानेवाले दो मार्ग हैं, बल्कि यह कहिये कि वैदांतिक सत्य की सिद्धि की ओर जानेवाले दो परस्पर-सहकारी साधन हैं, एक दार्शनिक,बौद्धिक और वैश्लेषणिक और दूसरा अंतः स्फुरित, भक्तिभावमय, व्यावहारिक, नैतिक और समन्वयात्मक है, जो अनुभूति द्वारा ज्ञान तक पहुंचाता है। गीता की दृष्टि में इन दोनों शिक्षाओं में कोई वास्तविक भेद नहीं है। बहुत से लोग जो मानते हैं कि गीता किसी धार्मिक संप्रदाय या परंपरा-विशेष का फल है उसके बारे में विचार करने की भी हमें कोई आवश्यकता नहीं है। गीता का उपदेश सबके लिये है, उसका मूल भले ही कुछ भी रहा हो। गीता की दार्शनिक पद्धति, इसमें जो सत्य है उसका व्यवस्थापनक्रम इसके उपदेश का वह भाग नहीं हैं जो अत्यंत मुख और चिरस्थायी कहा जाये, किंतु इसकी रचना का अधिकांश विषय, इसके उद्बोधक और मर्मस्पर्शी प्रधान विचार जो इस ग्रंथ के जटिल सामंजस्य में पिरोये गये हैं उनका महत्व चिरंतन है, उनका मूल्य सदा बना रहेगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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