अर्थवाद

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अर्थवाद भारतीय पूर्वमीमांसा दर्शन का विशेष पारिभाषिक शब्द, जिसका अर्थ है प्रशंसा, स्तुति अथवा किसी कार्यात्मक उद्देश्य को सिद्ध कराने के लिए इधर उधर की बातें जो कार्य संपझ करने में प्रेरक हों। पूर्वसीमांसा दर्शन में वेदों के-जिनको वह अपौरुषेय, अनादि और नित्य मानता है- सभी वाक्यों का समन्वय करने का प्रयत्न किया गया है, और समस्त वेदवाक्यों का मुख्य प्रयोजन मनुष्य को यज्ञादि धार्मिक क्रियाओं में प्रवृत्त कराने का साधन मात्र माना है, किसी विशेष, वास्तविक वस्तु का वर्णन नहीं माना। विधि, निषेध, मंत्र, नामध्येय-क्रियात्मक वाक्यों को छोड़कर और सब वाक्य अर्थवाद के अंतर्गत है। यज्ञ से, जो वेदों का मुख्य विधान हैं, उनका केवल इतना ही संबंध है कि वे बच्चों की लिखी हई सत्यासत्यनिरपेक्ष कहानियों की नाईं मनुष्यों को यज्ञ करने की प्रेरणा करते हैं तथा न करने से हानि का संकेत करते हैं।

'समस्त अर्थवादात्मक वाक्य तीन प्रकार के हैं:

  1. गुणवाद, जिसमें मनुष्यों के साधारण ज्ञान के विरुद्ध वस्तुओं के गुणों का वर्णन मिलता है;
  2. भूतार्थवाद, जिसमें वे वाक्य आते हैं जो मनुष्यों को ऐसी बातें बतलाते हैं जिनका ज्ञान वेदवाक्यों के अतिरिक्त और किसी प्रमाण द्वारा नहीं हो सकता;
  3. अनुवाद, वे वाक्य जिनमें उन वाक्यों का वर्णन है जिनका ज्ञान मनुष्यों को पहले से है। मीमांसकों के अनुसार वेदवाङ्‌मय में आए हुए ब्रह्म, ईश्वर, जीव, देवता, लोक और परलोक आदि संबंधी सभी वर्णन अर्थवाद मात्र हैं। उनका उद्देश्य हमको इन वस्तुओं का ज्ञान देना नहीं है, केवल क्रिया (यज्ञ) में प्रवृत्त कराना है। इस सिद्धांत का उत्तरमीमांसा (वेदांत) के आचार्यो ने, विशेषत: श्री शकराचार्य ने, खंडन किया है। साधारण बोलचाल में अर्थवाद का अभिप्राय झूठी सच्ची बातें कहकर अपना मतलब सिद्ध करना हो गया है।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 238 |

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