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श्री एच. डी. देवगौड़ा (1933) श्री एच. डी. देवगौड़ा को तकनीकी रूप से भारत का ग्यारहवाँ प्रधानमंत्री माना जाता है। यह उस समय प्रधानमंत्री बने जब श्री अटल बिहारी वाजपेयी को 13 दिन सरकार चलाने के बाद प्रधानमंत्री का पद छोड़ना पड़ा था, क्योंकि वह बहुमत साबित करने की स्थिति में नहीं थे। यह संयुक्त मोर्चा सरकार के नेता के रूप में प्रधानमंत्री चयनित हुए। इन्होंने 1 जून 1996 को शपथ ग्रहण की थी। लेकिन यह भी ज़्यादा समय तक प्रधानमंत्री नहीं रहे। लगभग 10 माह तक प्रधानमंत्री रहने के बाद इन्हें भी अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा।   जन्म एवं परिवार- श्री एच. डी. देवगौड़ा का जन्म कर्नाटक के हरदन हल्ली ग्राम के हासन ताक़ुमा में 18 मई 1933 को हुआ था। यह एक खाते-पीते कृषक परिवार से सम्बन्धित थे। श्री एच. डी. देवगौड़ा ने सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा प्राप्त करने के बाद मात्र 20 वर्ष की उम्र में ही सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेना आरम्भ कर दिया था। इनके पिता का नाम श्री दोड्डे गौड़ा था तथा माता का नाम देवम्या था। इनकी पत्नी का नाम चेनम्मा है। इनके चार पुत्र एवं दो पुत्रियाँ हैं। एक पुत्र विधायक तथा एक पुत्र सांसद भी रह चुके हैं। श्री एच. डी. देवगौड़ा ने सर्वप्रथम 1953 में कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ली। वह 1962 तक कांग्रेस के सदस्य रहे। देवगौड़ा एक मध्यमवर्गीय परिवार की पृष्ठभूमि से राजनीति में आए थे, इस कारण वह किसानों के कठोर परिश्रम का मूल्य समझते थे। युवा देवागौड़ा ने ग़रीब किसानों और समाज के कमज़ोर वर्गों के उत्थान के लिए राजनीतिक आवाज़ बुलन्द की थी।   राजनीतिक जीवन- 1962 तक कांग्रेस में सक्रिय कार्यकर्ता की भूमिका निभाने के बावजूद जब देवगौड़ा को उचित सम्मान प्राप्त नहीं हुआ तो कांग्रेस से इनका मोहभंग हो गया। ऐसे में वह 1962 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में खड़े हो गए। श्री देवगौड़ा विधानसभा चुनाव में निर्वाचित हुए। इस प्रकार उनके कार्यों को जनता की स्वीकृति प्राप्त हुई। इसके बाद भी श्री देवगौड़ा अगले तीन चुनावों 1967, 1972 और 1977 में लगातार विधायक के रूप में चुने जाते रहे। लेकिन 1969 के पूर्व वह कांग्रेस पार्टी के पुन: सदस्य बन गए। ऐसा तब हुआ जब कांग्रेस पार्टी का विभाजन हुआ। उन्होंने इंदिरा गांधी की विरोधी कांग्रेस (ओ) को चुना था। श्री देवगौड़ा कांग्रेस (ओ) के अध्यक्ष निजलिंगप्पा से काफ़ी प्रभावित थे। उनकी प्रेरणा से ही देवगौड़ा ने ऐसा किया था। 1975 में आपातकाल के दौरान देवगौड़ा को भी जेलयात्रा करनी पड़ी थी। वह 18 महीनों तक जेल में रहे। कर्नाटक विधानवभा में वह पुन: निर्वाचित हुए तथा दो बार राज्यमंत्री भी बने। लेकिन 1982 में इन्होंने कर्नाटक मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया। अगले तीन वर्षों तक राजनीति में इनका सक्रिय योगदान नहीं रहा। लेकिन 1991 में देवगौड़ा हासन लोकसभा सीट से चुने गए और प्रथम बाद संसद में पहुँचे। वह 1994 में जनता दल की राज्य इकाई के अध्यक्ष भी बने। 1994 में जनता दल का अध्यक्ष चुने जाने के बाद देवगौड़ा के भाग्य ने ज़ोर मारा और वह कर्नाटक के मुख्यमंत्री बन गए। यह 1996 में भी कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने थे। जब इन्हें प्रधानमंत्री पद की चुनौती प्राप्त हुई, तब इन्होंने यह अवसर दोनों हाथों से लपक लिया और मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया। इस प्रकार अटलजी के 13 दिन के कार्यकाल के पश्चात् वह प्रधानमंत्री बने।   प्रधानमंत्री पद पर- यदि भाग्य का सितारा बुलन्द होता है तो ऐसा ही होता है। श्री देवगौड़ा मुख्यमंत्री से सीधे प्रधानमंत्री के पद पर जा पहुँचे। दरअसल 31 मई को अल्पमत में होने के कारण अटलजी ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया था। उसके अगले दिन 1 जून, 1996 को तुरत-फ़ुरत 24 दलों वाले संयुक्त मोर्चे का गठन किया गया। इसे कांग्रेस ने समर्थन देने का आश्वासन दिया। अत: देवगौड़ा को संयुक्त मोर्चे का नेता घोषित कर दिया गया। संयुक्त मोर्चा बहुमत प्राप्त था और उसे कांग्रेस (आई) का समर्थन हासिल था। लेकिन शीघ्र ही कांग्रेस ने घोषणा कर दी कि यदि उसका समर्थन चाहिए तो उन्हें नेतृत्व में परिवर्तन करना होगा। एच. डी. देवगौड़ा कांग्रेस की नीतियों के मनोनुकूल नहीं चल रहे थे। कांग्रेस द्वारा समर्थन वापस लेने का सीधा मतलब था-संयुक्त मोर्चा सरकार का पतन। अत: कांग्रेस (आई) की शर्त स्वीकार करते हुए देवगौड़ा को अप्रैल 1997 को अपने पद से हटना पड़ा।   समग्र विश्लेषण- लगभग दस माह तक देवगौड़ा भारत के प्रधानमंत्री रहे। एक तो उन्हें समय भी कम मिला और दूसरे वह चौबीस घोड़ों के रथ पर सवार थे। इस कारण देवगौड़ा अपनी प्रतिभा नहीं दिखा पाए। इन्हें केन्द्रीय राजनीति का रत्ती भर भी अनुभव नहीं था। इस कारण प्रधानमंत्री का पद इनकी क्षमताओं के फलक से ज़्यादा बड़ा था। देवगौड़ा हिन्दी नहीं जानते थे और अंग्रेज़ी भी धारा प्रवाह नहीं बोल पाते थे, इस कारण वह संवाद करने में भी विफल रहे। श्री देवगौड़ा कन्नड़ भाषा बोलते थे, जो कि अन्य लोगों की समझ में नहीं आती थी। यदि प्रधानमंत्री विचार संप्रेषण कला में विफल हो तो उसके लिए पद का दायित्व निभाना बेहद कठिन हो जाता है। देवगौड़ा सिद्धान्तवादी थे और मोर्चे की अंतर्कलह के कारण उनके निजी स्वार्थों की पूर्ति नहीं कर रहे थे, अत: प्रधानमंत्री पद से हटा दिए गए। लेकिन वह राजनीति में सक्रिय हैं।