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नाभिक (अंग्रेज़ी भाषा- Nucleus) अत्यंत सूक्ष्म आकार का होता है और परमाणु के केंद्र में स्थित होता है। यह धन आवेशित होता है तथा नाभिक में परमाणु का लगभग समस्त द्रव्यमान केंद्रित होता है।

नाभिक के अस्तित्त्व

नाभिक के अस्तित्त्व और इसके गुणों का पता लगाने का श्रेय विख्यात वैज्ञानिक रदरफ़ोर्ड को जाता है। रदरफ़ोर्ड की प्रयोगशाला में विघटन से प्राप्त ऐल्फा (Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): {\alpha } ) कणों पर विस्तृत प्रयोग हो रहे थे। इन प्रयोगों में यह पाया गया कि धातु की पतली पन्नियों में से होकर जब ऐल्फा कण जाते हैं तब वे अपने मार्ग से बहुत अधिक विचलित हो जाते हैं। उस समय तक यह माना जाता था कि परमाणु में धन और ऋण आवेश समरूप से वितरित होते हैं। इस धारणा के आधार पर टॉमसन ने ऐल्फा कणों के प्रकीर्णन की गणना की थी, परंतु प्रयोगात्मक रूप से प्रकीर्णन का जो मान प्राप्त होता था वह गणना द्वारा प्राप्त मान से कई कोटि अधिक था। इस वैषम्य को स्पष्ट करने के लिए रदरफ़ोर्ड ने 1911 ई. में नया सिद्वान्त प्रतिपादित किया, जिससे नाभिक का अस्तित्त्व स्पष्ट हुआ। रदरफ़ोर्ड ने यह माना की परमाणु में धन आवेश समरूप से वितरित नहीं होता, बल्कि उसके केंद्र पर अत्यंत सूक्ष्म आयतन में ही सीमित होता है। परमाणु के केंद्र में स्थित अत्यंत सूक्ष्म और धनावेशित भाग को नाभिक कहा जाता है। परमाणु का समस्त द्रव्यमान उसके धन आवेशों में निहित होता है और रदरफ़ोर्ड के अनुसार समस्त धन आवेश नाभिक में केंद्रित होते हैं, अत: स्पष्ट है कि परमाणु का समस्त द्रव्यमान उसके नाभिक में केंद्रित होता है। इस प्रकार मोटे रूप में रदरफ़ोर्ड ने 1911 ई. में नाभिक का अस्तित्त्व सिद्ध किया।

नाभिक का आकार

किसी परमाणु के नाभिक का व्यास उस परमाणु के व्यास की अपेक्षा लगभग दस हजार गुना छोटा होता है। रदरफ़ोर्ड ने 1911 ई. में गाइगर और मार्सडेन के प्रयोगों के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि नाभिक का अर्धव्यास 10-12 से भी कम ही होना चाहिए। कई प्रयोगों के आधार पर एवं सैद्धांतिक विवेचना के अनुसार यह पाया जाता है कि किसी नाभिक का अर्धव्यास 'r' निम्नलिखित सूत्र से ज्ञात होता है :

(Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): {\mathrm {r}} = Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): {\mathrm {r}} ο Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): {\mathrm {A}} 1/3)

यहाँ A उस नाभिक में न्यूट्रॉनों तथा प्रोटॉनों की कुल संख्या है और Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): {\mathrm {r}} ο एक स्थिरांक है, जिसे एक नाभिकाणु का अर्धव्यास माना जा सकता है। नाभिक का अर्धव्यास न्यूट्रॉन प्रकीर्णन, ऐल्फा उत्सर्जन, समस्थानिक प्रभाव और इलेक्ट्रॉन प्रकीर्णन आदि, कई प्रयोगों द्वारा ज्ञात किया जा सकता है। नाभिक का आकार ज्ञात करने में या तो नाभिक के आवेश वितरण का आकार ज्ञात किया जाता है, अथवा नाभिकीय बलों के आधार पर अर्धव्यास ज्ञात होता है। विद्युतीय बलों एवं नाभिकीय बलों के आधार पर अर्धव्यास ज्ञात होता है। विद्युतीय बलों एवं नाभिकीय बलों के आधार पर ज्ञात किए गए Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): {\mathrm {r}} ο के मान में कुछ अंतर आता है। फिर भी Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): {\mathrm {r}} ο के लिए 1.2 x 10-13 सेन्टीमीटर लिया जा सकता है।

नाभिक का आवेश

ऐल्फा कण जब धातु की पतली पन्नी में से जाते हैं तब वे नाभिक द्वारा प्रतिकर्षित होते हैं। इसके फलस्वरूप वे अपने मार्ग से विचलित हो जाते हैं। रदरफ़ोर्ड ने इस प्रतिकर्षण बल की गणना की तथा विचलन कोण का मान ज्ञात किया। उसके समीकरण से नाभिक का आवेश ज्ञात किया जा सकता है। धनावेशित ऐल्फा कण नाभिक से प्रतिकर्षित होता है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नाभिक पर धन आवेश होता है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नाभिक पर धन आवेश होता है। वोर के परमाणु प्रतिरूप के अनुसार किसी परमाणु में से निकलने वाली एक्स किरणों की आवृति निम्न सूत्र से ज्ञात होती है:

Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): {\upsilon } = Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): {\mathrm {Z}} 2 Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): {\mathrm {R}} Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): \left({\frac {1}{n_{1}^{2}}}-{\frac {1}{n_{2}^{2}}}\right)

इसमें R एक स्थिरांक और Z नाभिक पर धन आवेश की मात्रा है। Z को परमाणु संख्या भी कहते हैं। यह नाभिक में उपस्थित प्रोटॉनों की संख्या व्यक्त करता है। संक्रमण n1 और n2 कक्षाओं के बीच होते हैं। यदि भीतर की ओर परिक्रमा करते हुए अन्य इलेक्ट्रॉनों द्वारा आवरणन (screening) की भी गणना की जाए तो प्रभावी आवेश Z से कम होता है। मोज़ले ने Ka श्रेणी की एक्स किरणों के लिए

Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): {\sqrt {\upsilon }} = स्थिरांक x (Z - 1)

तथा LFailed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): {\alpha } श्रेणी की एक्सकिरणों के लिए

Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): {\sqrt {\upsilon }} = स्थिरांक x (Z - 7.4)

मौज़ले के प्रयोगों द्वारा विभिन्न तत्वों की Ka तथा La श्रेणी की एक्स किरणों की आवृत्ति ज्ञात करके विभिन्न तत्वों के लिए Z, अर्थात्‌ नाभिक पर आवेश का मान शुद्धतापूर्वक ज्ञात किया गया।

नाभिक का कोणीय संवेग

नाभिक के प्रत्येक प्रोटॉन और न्यूट्रॉन का अपने अक्ष पर घूमने के कारण कोणीय संवेग Failed to parse (SVG (MathML can be enabled via browser plugin): Invalid response ("Math extension cannot connect to Restbase.") from server "https://api.formulasearchengine.com/v1/":): {\frac {1}{2}} h/2p होता है। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक प्रोटॉन और न्यूट्रॉन का अपने कक्ष (orbit) पर घूमने के कारण एक कोणीय संवेग १ h/२p होता है, जहाँ १ कक्षीय क्वांटम संख्या तथा प्लांक स्थिरांक है। सभी न्यूट्रॉनों और प्रोटॉनों के कोणीय संवेग मिलाकर नाभिक का कोणीय संवेग होता है। नाभिक में न्यूट्रॉन और प्रोटॉन अपनी कक्षा तथा अपने अक्ष पर घूर्णन इस प्रकार संमजित करते हैं कि प्रत्येक दो प्रोटॉन तथा प्रत्येक दो न्यूट्रॉन के कोणीय संवेग मिलकर परस्पर शून्य हो जाते हैं। यदि न्यूट्रॉनों अथवा प्रोटॉनों की संख्या विषम हो, तो दो दो के युग्म बनने पर एक शेष रह जाता है, जिसका कोणीय संवेग ही नाभिक का परिणामी संवेग होता है। विषम परमाणुभारवाले नाभिक का कोणीय संवेग सदैव

h/2p के गुणन के बराबर होता है। सम परमाणुभारवाले नाभिक दो प्रकार के हो सकते हैं : (क) वह जिसमें प्रोटॉनों और न्यूट्रॉनों, दोनों की संख्या सम है। इस स्थिति में समस्त न्यूट्रॉन युग्मों में संमजित हो जो हैं और उने केणीय संवेग शून्य हो जाते हैं। इसी प्रकार समस्त प्रोटॉनों का परिणामी कोणीय संवेग शून्य हो जाता है। इस कारण सम प्रोटॉन का परिणामी कोणीय संवेग शून्य हो जाता है। इस कारण सम प्रोटॉन और सम न्यूट्रॉनवाले समस्त नाभिकों का कोणीय संवेग शून्य होता है। (ख) वह जिसमें प्रोटॉनों और न्यूट्रॉनों, दोनों की ही संख्या विषम है। इसमें एक प्रोटॉन और एक न्यूट्रॉन शेष रहेंगे, जिनके कोणीय संवेग

h/2pके गुणज होंगे। इन दो कोणीय संवेगों का योग h/2pका पूर्ण सांख्यिक गुणन होता है। अतएव समस्त विषम प्रोटॉन सम न्यूट्रॉन नाभिकों का कोणीय संवेग h/2pका पूर्ण सांख्यिक गुणन होता है।

चित्र २. परमाणु की रचना अत्यंत सूक्ष्म आकार के केंद्रस्थ नाभिक (ना) के चतुर्दिक्‌ इलेक्ट्रान (इ) घूमते हैं। चुंबकीय आघूर्ण - प्रोटॉन जब अपने अक्ष पर घूर्णन करता है, अथवा किसी कक्षा में घूमता है, तब उसका आघूर्णी धन आवेश वृत्ताकार विद्युद्वारा के तुल्य हो जाता है। इसके कारण घूर्णन अक्ष की दिशा में चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है। इसका मान चुंबकीय आघूर्ण द्वारा व्यक्त किया जाता है। नाभिकीय चुँबकीय आघूर्ण की इकाई 'नाभिकीय मैगनेटॉन' कहलाती है। प्रोटॉन की कक्षा पर घूर्णन के कारण जो चुंबकीय आघूर्ण होता है उसका मान कक्षीय क्वांटम संख्या १ पर निर्भर करता है। प्रत्येक दो प्रोटॉनों के कोणीय संवेग मिलकर शून्य हो जाने के कारण उनके चुंबकीय आघूर्ण भी शून्य हो जाते है। अक्ष पर न्यूट्रॉन के घूर्णन के कारण ऋणात्मक चुंबकीय आघूर्ण होता है, परंतु कक्षा में घूमने से चुंबकीय आघूर्ण नहीं होता। न्यूट्रॉनों का चुंबकीय आघूर्ण भी युग्मों में संमजित होकर शून्य हो जाता है और केवल अकेले बचे नयूट्रॉन का चुंबकीय आघूर्ण प्रभावी होता है। इससे स्पष्ट है कि शून्य कोणीय सवेगवाली नाभिक का चुंबकीय आघूर्ण सदैव शून्य होता है। विषम प्रोटॉन वाले नाभिक का चुंबकीय आघूर्ण प्रोटॉन की १ संख्या पर निर्भर करता है, परंतु विषम न्यूट्रॉनवाले नाभिक का चुंबकीय आघूर्ण न्यूट्रॉन की १ संख्या पर निर्भर नहीं करता। नाभिकीय संरचना (structure) - न्यूट्रॉन के आविष्कार के बाद से यह माना जाता है कि नाभिक न्यूट्रॉन और प्रोटॉन से मिलकर बने हैं। नाभिक में प्रोटॉनों की संख्या Z से व्यक्त की जाती है। यह परमाणुसंख्या के बराबर होती है। नाभिक में न्यूट्रॉनों की संख्या इतनी होती है कि न्यूट्रॉनों और प्रोटॉनों की संख्या मिलकर परमाणुभार के बराबर हो जाए। इस प्रकार परमाणुसंख्या Z और परमाणुभार A वाले नाभिक में Z प्रोटॉन और AZ न्यूट्रॉन होते यहाँ हैं। नाभिक को

से व्यक्त करते हैं। X उस तत्व का रासायनिक संकेत है, Z परमाणु संख्या तथा A परमाणुभार है। हल्के नाभिकों (A£ 20) में प्राय: प्रोटॉनों और न्यूट्रॉनों कीं संख्या बराबर होतीं है। ज्यों ज्यों नाभिक भारी होता जाता है प्रोटॉनों से न्यूट्रॉनों की संख्या अधिक होती जाती है। यूरेनियम जैसे भारी तत्व, के नाभिक में न्यूट्रॉनों की संख्या प्रोटॉनों की संख्या से लगभग ड्योढ़ी होती है। किसी नाभिक में प्रोटॉनों और न्यूट्रॉनों का अनुपात ऐच्छिक नहीं होता। इनका निश्चित अनुपात होने पर ही नाभिक स्थायी होता है। प्राय: एक ही तत्व के विभिन्न नाभिकों में प्रोटॉनों की संख्या वही रहने पर भी न्यूट्रॉनों की संख्या में कुछ अंतर हो जाता है। उदाहरण के लिए टिन (Sn) के सभी नाभिकों में प्रोटॉनों की संख्या तो ५० ही होती है, परंतु न्यूट्रॉन ५२ से लेकर ७४ तक हो सकते हैं। ऐसे नाभिक, जिनमें प्रोटॉनों की संख्या वही हो परंतु न्यूट्रॉनां की संख्या भिन्न हो, समस्थानिक (isotope) कहलाते हैं। इसे अतिरिक्त दो भिन्न तत्वों के नाभिक ऐसे भी हो सकते हैं जिनमें से एक के प्रोटॉनों की संख्या दूसरे के न्यूट्रॉनों की संख्या के बराबर होती है। इन्हें प्रतीपनाभिक (mirror nuclei) कहते हैं। जैसे १H३ और २He३ में क्रमश: एक प्रोटॉन, दो न्यूट्रॉन और दो प्रोटॉन तथा एक न्यूट्रॉन हैं। नाभिकीय बल - नाभिक के समस्त प्रोटॉन एक दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं। न्यूट्रॉन अनावेशित होते हैं, अत: उनपर विद्युतीय बल नहीं लगता। विद्युतीय आवेशों के कारण नाभिक में प्रतिकर्षण बल लगता है। नाभिक के समस्त न्यूट्रॉन और प्रोटॉन एक आकर्षक बल के कारण एकत्रित रहते हैं। इसे नाभिकीय बल कहते हैं। नाभिकीय बल की प्रकृति अभी तक पूर्णतया स्पष्ट नहीं है। इस बल के कुल गुण ज्ञात हैं, जो निम्नलिखित हैं: 1. ये बल केवल १०- १३ सेंमी. तक ही प्रभावी होते है। इस कारण न्यूट्रॉन अथवा प्रोटॉन अपने निकटस्थ न्यूट्रॉन अथवा प्रोटॉन को ही आकर्षित करता है। 2. नाभिकीय बल आवेश सममित होता है, अर्थात्‌ यह विद्युतीय आवेश पर निर्भर नहीं करता। फलस्वरूप यह प्रोटॉन प्रोटॉन, प्रोटॉन-न्यूट्रॉन और न्यूट्रॉन-न्यूट्रॉन के बीच बराबर मान का होता है। 3. यह टेंसर (tensor) बल है, अर्थात्‌ यह केवल दो कणों के बीच की दूरी पर ही निर्भर नहीं करता बल्कि उनको मिलानेवाली रेखा और कणों के कोणीय संवेग के बीच के कोण पर भी निर्भर करता है। 4. यह संतृत्प बल है, अर्थात्‌ यह केवल कुछ नाभिकाणुओं के बीच ही लगता है। उन्हीं नाभिकाणुओं के बीच यह बल लगता है जिनकी '१' क्वांटम संख्या समान होती है। इसे विनिमय बल भी कहा जाता है। बंधन ऊर्जा - प्रत्येक नाभिक का द्रव्यमान उसके अंदर स्थित न्यूट्रॉनों और प्रोटॉनों के द्रव्यमान के येग से कम होता है। यदि किसी नाभिक में Z प्रोटॉन और N न्यूट्रॉन हैं तो Mnuc=ZMp+NMn- D M होता है। यहाँ Mnuc नाभिक का द्रव्यमान तथा Mp और Mn क्रमश: प्रोटॉन और न्यूट्रॉन के द्रव्यमान है। DM को द्रव्यमानन्यूनता कहते हैं। आइन्स्टाइन ने सापेक्षवाद के सिद्धांत से यह सिद्ध किया है कि द्रव्यमान और ऊर्जा एक दूसरे में परिवर्तित किए जा सकते हैं। ऊर्जा और द्रव्यमान का संबंध निम्न है : E=mc2 यहाँ m द्रव्यमान, c प्रकाश का वेग और E ऊर्जा है। इसके अनुसार जब कुछ प्रोटॉन और न्यूट्रॉन एकत्रित होकर नाभिक बनाते हैं तब कुछ द्रव्यमान न्यूनता होती है, जो ऊर्जा के रूप में स्वतंत्र हो जाती है। उदाहरण के लिए, एक प्रोटॉन और एक न्यूट्रॉन मिलकर जब ड्यूटेरान बनाते हैं तो २.२२ M e V (mllion electron volt) ऊर्जा स्वतंत्र होती है। यही ड्यूटेरान की बंधनऊर्जा होती है। यदि ड्यूटेरॉन को उसके अवयवों नयूट्रॉन और प्रोटॉन में विभक्त करना चाहें, तो कम से कम २.२२ MeV ऊर्जा आवश्यक होगी। अन्य नाभिकों की बंधन ऊर्जा लगभग ८ MeV होती है। विभिन्न परमाणुभार के नाभिकों के लिए यह मान अलग अलग होता है। परमाणुभार A£ २० तक प्रति नाभिकाणु बंधन ऊर्जां ८ MeV से कम होती है। A=२० से A=१८० तक यह ८ MeV से अधिक होती है तथा A£ १८० के लिए यह फिर घटने लगती है। इससे ज्ञात होता है कि जब नाभिक इतना भारी हो जाता है कि A >> १८० हो जाए, तब वह अस्थायी होने लगता है। A>२०८ पर नाभिक का स्थायित्व इतना कम हो जाता है कि उसमें से नाभिकविघटन के कारण ऐल्फा कण इत्यादि अपने आप निकलने लगते हैं। नाभिकीय अभिक्रिया - नाभिकीय तत्वांतरण (transmutation) का पहला प्रयोग रदरफ़ोर्ड की प्रयोगशाला में हुआ। जब नाभिकीय विघटन से प्राप्त उच्च ऊर्जावाले कण नाइट्रोजन गैस में छोड़े गए तब उसमें से प्रोटॉन प्राप्त हुए। ब्लैकेट ने इसी प्रयोग को विलसन मेघकक्ष की सहायता से दुहराया। इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकला कि नाइट्रोजन का नाभिक ऑक्सीजन के नाभिक में तत्वांतरित हो जाता है : 2H4+7N14® 8O17+1H1 इसी प्रकार की अन्य अभिक्रियाएँ, जिनमें एक नाभिक का दूसरे नाभिक में तत्वांतरण होता है, नाभकीय अभिक्रियाएँ कहलाती हैं। नाभिकीय अभिक्रियाओं के लिए न्यूट्रॉनों अथवा अधिक ऊर्जावाले आवेशित कणों तथा प्रोटॉनों, ड्यूटेरानों एवं ऐल्फा कणों का उपयोग किया जाता है। नाभिक पर धन आवेश होता है, अत: उसके कूलाम (Coulomb) प्रतिकर्षण के विपरीत, नाभिक तक पहुँचने के लिए धन आवेशित कणों में अधिक ऊर्जा वांछनीय है, जबकि न्यूट्रॉन यदि मंद हों तब भी वे अनावेशित होने के कारण नाभिक तक पहुँच जाते हैं। नीचे कुछ अन्य अभिक्रियाओं के उदाहरण दिए गए हैं : 1. जब 5B10 में न्यूट्रॉन आवेशित होता है, तब ऐल्फा कण और लीथियम उत्पन्न होते हैं। सूत्र रूप में 5B10+n® 2He4+3Li7 2. जब प्रोटॉन लीथियम के नाभिक से टकराता है तब तो ऐल्फा करण निकलते हैं, अर्थात्‌: 1H1+3Li7® 2He4+2He4 नाभिकीय अभिक्रिया को समझने के लिए बोर ने एक सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसके अनुसार जब कोई कण एक नाभिक से टकराता है तब उसमें अवशोषित हो जाता है। इस प्रकार एक यौगिक नाभिक बनता है जो बहुत उत्तेजित अवस्था में होता है। अब वह किसी भी प्रकार उत्तेजित अवस्था की ऊर्जा निकालना चाहता है। यदि यह यौगिक नाभिक अस्थायी हो तो उसमें से एक कण निकल पड़ता है, अन्यथा केवल गामा किरणें निकलती हैं। उदाहरणस्वरूप, अभिक्रिया (२) तके लिथियम में प्रोटॉन अवशोषित हो जाता है तो बेरीलियम बनता है, जो अस्थायी है। यह ऐल्फा कणों में विभक्त हो जाता है। बोर के अनुसार यह अभिक्रिया निम्न रूप में लिखी जाएगी : 3Li7+1H1® 4Be8® 2He4+2He4 नाभिकीय विखंडन - यदि किसी भारी अस्थायी नाभिक, उदाहरणस्वरूप यूरेनियम के नाभिक (A=२२५), को दो बराबर भागों में विखंडित कर दिया जाए तो प्रत्येक भाग के लिए A» १२० हो जाता है। यद्यपि दोनों खंडों को मिलाकर न्यूट्रॉनों और प्रोटानों की संख्या उतनी ही रहती है, तथापि प्रत्येक खंड का स्थायित्व बढ़ जाता है। फलस्वरूप जब एक भारी नाभिक दो लगभग बराबर खंडों में विभाजित होता है, तब ऊर्जा स्वतंत्र होती है। एक यूरेनियम के विखंडन में लगभग २०० MeV ऊर्जा स्वतंत्र होती है। यूरेनियम के तीन समस्थानिक U२३४, U२३५ और U२३८ प्राकृतिक रूप में पाए जाते हैं। प्राकृतिक यूरेनियम में अधिकांश भाग U२३८ का ही होता है। विखंडन के लिए U२३५ और U२३८ महत्वपूर्ण हैं। विखंडन के लिए इनपर न्यूट्रॉन की बौछार की जाती है, जिससे ये न्यूट्रॉन अवशोषित कर लें। U२३८ के विखंडन के लिए यह आवश्यक है कि इसमें अवशोषित किए जानेवाले न्यूट्रॉनों की ऊर्जा १ MeV या इससे अधिक हो, परंतु U२३५ का विखंडन अत्यंत कम ऊर्जावाले न्यूट्रॉनों से भी हो सकता है। इसलिए U२३५ की उपादेयता अधिक है। जब किसी यूरेनियम नाभिक का विखंडन होता है, तब उसमें से औसत में ~ ३ न्यूट्रॉन भी निकलते हैं। प्रत्येक विखंडन में एक न्यूट्रॉन अवशोशित होता है और ~ ३ नए न्यूट्रॉन निकलते हैं, अर्थात्‌ २ न्यूट्रॉनों की वृद्धि होती है। यदि प्रत्येक न्यूट्रॉन एक नाभिक का विखंडन करने में सफल हो सके, तो शीघ्र ही बहुत अधिक न्यूट्रॉन उत्पन्न होने लगेंगे और प्रति सेकंड विखंडित होनेवाले नाभिकों की संख्या बढ़ती ही जाएगी। अत: एक बार आरंभ होने पर विखंडन अभिक्रिया तब तक स्वत: चलती रहेगी जब तक कि यूरेनियम के नाभिक विखंडन के लिए प्राप्य हैं। इसे शृंखला अभिक्रिया कहते हैं। शृंखला अभिक्रिया दो प्रकार की

चित्र ३. नाभिक का विखंडन छोटे काले गोले न्यूट्रॉन को व्यक्त करते हैं। जब ये न्यूट्रॉन यूरेनियम के नाभिक (यू) से टकराते हैं, तो यूरेनियम नाभिक दो भागों मैं विभक्त हो जाता है और औसतन तीन नए न्यूट्रॉन निकलते हैं। विभक्त खंड रेखांकित अर्ध गोलों से व्यक्त किए गए हैं। हो सकती है : (१) अनियंत्रित शृंखला अभिक्रिया तथा (२) नियंत्रित शृंखला अभिक्रिया। अनियंत्रित शृंखला अभिक्रिया - जब यूरेनियम के एक नाभिक से विखंडन द्वारा प्राप्त सभी न्यूट्रॉन एक एक नाभिक का विखंडन करें, तब न्यूट्रॉनों की संख्या बढ़ती जाती है और फलस्वरूप प्रति सेकंड विखंडित होनेवाले नाभिकों की संख्या भी बढ़ती जाती है। जितने ही अधिक नाभिक प्रति सेकंड विखंडित होते हैं उतनी ही अधिक ऊर्जा प्रति सेकंड निकलती है। यह ऊर्जा जब बहुत अधिक हो जाती है तब विस्फोट हो जाता है। U२३५ में विस्फोट तभी संभव है जब आरंभ में यूरेनियम पिंड का द्रव्यमान एक निश्चित मात्रा से अधिक हो। इस मात्रा को क्रांतिक द्रव्यमान कहते हैं। परमाणु बम - परमाणु बम बनाने के लिए U२३५ के दो ऐसे पिंड लिए जाते हैं जिनमें से प्रत्येक का द्रव्यमान क्रांतिक द्रव्यमान के आधे से कुछ अधिक होता है। जब तक ये पिंड अलग अलग होते हैं, विस्फोट नहीं होता। जब ये दोनों पिंड मिला दिए जाते हैं तब क्रांतिक द्रव्यमान से अधिक द्रव्यमान एकत्रित होने के कारण विस्फोट हो जाता है। इस विस्फोट में बहुत अधिक ऊर्जा मुक्त होती है। परमाणु बम की शक्ति दस लाख टन, या इससे अधिक, टी-एन-टी (TNT, or trinitro toluene) की शक्ति के बराबर होती है। नियंत्रित शृंखला अभिक्रिया - U२३५ के विखंडन की शृंखला अभिक्रिया यदि इस प्रकार नियंत्रित की जा सके कि यह विस्फोट की सीमा से कम रहे, तो इसे नियंत्रित शृंखला अभिक्रिया कहते हैं। इसके लिए यह आवश्यक है कि प्रति सेकंड विखंडन में निकलनेवाले और प्रति सेकंड U२३५ में अवशोषित होनेवाले न्यूट्रॉनों की संख्या बराबर रहे। नियंत्रित शृंखला अभिक्रिया में जो ऊर्जा मुक्त होती है उसका रचनात्मक कार्यों में, उदाहरणार्थ विद्युत्‌ उत्पन्न करने में, उपयोग किया जा सकता है। नाभिकीय रिऐक्टर (reacto) - नाभिकीय रिएक्टर में शृंखला अभिक्रिया को नियंत्रित रखकर ऊर्जा उत्पन्न की जाती है। विखंडन से जो न्यूट्रॉन निकलते हैं उनकी ऊर्जा लगभग १ MeV होती है। इतनी ऊर्जा के कारण न्यूट्रॉनों की गति भी बहुत अधिक होती है और वे U२३५ के खिंडन के लिए अधिक उपयोगी नहीं होते। U२३५ में न्यूट्रॉन के अवशोषण की संभावना गति की विलोमानुपाती होती है। अत: U२३५ के अधिक से अधिक विखंडन के लिए यह आवश्यक है कि न्यूट्रॉनों की गति मंद की जाए। गति मंद करने के लिए हलके तत्व, जैसे ड्यूटेरान, ग्रैफाइट (कार्बन) इत्यादि, का उपयोग किया जाता है। इन्हें मंदक (moderator) कहते हैं। जब अधिक ऊर्जावाले न्यूट्रॉन कार्बन अथवा ड्यूटेरान से टकराते हैं तब उनमें गतिज ऊर्जा का विनिमय होता है। इससे न्यूट्रॉन की गतिज ऊर्जा और वेग कम हो जाते हैं। शृंखला अभिक्रिया को नियंत्रित करने के लिए ऐसे तत्वों का उपयोग किया जाता है जो न्यूट्रॉनों को अत्यधिक अवशोषित कर लेते हैं, परंतु उनमें विखंडन नहीं होता। कैडमियम ऐसा ही तत्व है जिसमें न्यूट्रॉन अवशोषित करने की क्षमता बहुत अधिक होती है। रिऐक्टर में U२३५ की छड़ ग्रैफाइट, अथवा भारी पानी (heavy water), के बीच में रख दी जाती है। ट्रांबे (Trombay) में बने पहले रिऐक्टर 'अप्सरा' में मंदक के रूप में भारी पानी का उपयोग किया जाता है। यूरेनियम के विखंडन से जो न्यूट्रॉन निकलते हैं, वे भारी पानी के ड्यूटेरान से टकराकर मंद पड़ जाते हैं। नियंत्रण के लिए


टंकी में भारी पानी भरा है, जिसमें U२३५ (यूरेनियम) के कई छड़ रहते हैं। अभिक्रिया को नियंत्रित करने के लिए (कैड) कैडमियम के छड़ों का उपयोग होता है। कैडमियम की छड़ों का उपयोग किया जाता है। इनको इच्छानुसार बाहर निकाला या अंदर डाला जा सकता है। जब कैडमियम की छड़ों को रिऐक्टर में अधिक अंदर घुसा दिया जाता है तब वे अधिक न्यूट्रॉनों के संपर्क में आती हैं और इनका अधिक अवशोषण करती हैं। पूर्णतया नियंत्रित शृंखला अभिक्रिय में कैडमियम की छड़े इतना अधिक अंदर होती है कि न्यूट्रॉनों की संख्या स्थायी बनी रहती है और शृंखला अभिक्रिया नियंत्रित रूप से चलती रहती है। मंदक से टकराकर न्यूट्रॉन जब मंदित होते हैं तब मंदक गरम हो जाता है। इसी उष्मा से पानी खौलाकर भाप बनाई जाती है और उससे विद्युत्‌ उत्पन्न की जाती है। न्यूक्लीय संलयन (fusion), हाइड्रोजन बम - भारी नाभिकों के विखंडन के अतिरिक्त हलके नाभिकों के संलयन से भी ऊर्जा प्राप्त होती है। हीलियम के नाभिक की कुल बंधनऊर्जा २५ MeV होती है। यदि चार प्रोटॉनों की संलयित कर हीजियम का एक नाभिक बनाया जाए तो लगभग उपर्युक्त ऊर्जा स्वतंत्र होगी, परंतु अभिक्रिया का आरंभ होने के लिए यह आवश्यक है कि ताप १०,००,०००° सें. से भी ऊँचा हो। हाइड्रोजन बम में ऊर्जा इसी अभिक्रिया द्वारा उत्पन्न होती है। इस क्रिया को आरंभ करने तथा आवश्यक उच्च ताप प्राप्त करने के लिए परमाणु बम का उपयोग किया जाता है। जब परमाणु बम का विस्फोट होता है तब बहुत ऊँचा ताप उत्पन्न होता है। इस ताप पर प्रोटॉनों से हीलियम बनने लगता है और हाइड्रोजन बम की क्रिया आरंभ हो जाती है। इससे प्राप्त ऊर्जा द्वारा ही अब ऊँचा ताप बना रहता है और संलयन क्रिया चलती रहती है। हाइड्रोजन बम में परमाणु बम से हजार गुना से अधिक शक्ति होती है। तारों में ऊर्जा का स्त्रोत - ऐसा माना जाता है कि सूर्य तथा अन्य तारों में ऊर्जा का स्त्रोत भी नाभिकीय संलयन ही है। सूर्य के केंद्र में ताप एवं दाब बहुत ऊँचा होता है। सूर्य में हाइड्रोजन भी प्रचुर मात्रा में है। अत: ऐसा विश्वास किया जाता है कि वहाँ भी हाइड्रोजन के संलयन से हीलियम बनता है। इससे प्राप्त ऊर्जा प्रकाश और ऊष्मा के रूप में चतुर्दिक्‌ विकीर्ण होती रहती है। अन्य तारों में दूसरी नाभिकीय संलयन क्रियाएँ चलती हैं। नाभिकीय प्रतिरूप - विभिन्न तत्वों के नाभिकों के गुणों में कुछ नियमितता पाई जाती है। यद्यपि अभी तक ऐसा कोई सिद्धांत प्राप्त नहीं है जिससे इन सब गुणों एवं नियमितताओं को समझा जा सके, फिर भी एतदर्थ निरंतर प्रयत्न किए जा रहे हैं। इस विषय में सबसे बड़ी कठिनाई इस बात की है कि नाभिकीय बल ही अभी तक स्पष्ट रूप से नहीं समझे जा सके हैं, यद्यपि नाभिक को समझने के लिए अनेक प्रतिरूप बनाए गए हैं और विभिन्न प्रतिरूपों के कुछ अंश मिलाकर मिश्रित प्रतिरूप भी बनाए गए हैं। यहाँ पर केवल दो प्रतिरूपों का संक्षिप्त वर्णन किया जाएगा। ये सामूहिक प्रतिरूप और शेल प्रतिरूप हैं। यद्यपि इन दोनों प्रतिरूपों की आधारभूत मान्यताएँ एक दूसरे के सर्वथा विपरीत हैं, फिर भी ये विभिन्न परमाणुभारवाले नाभिकों के गुणों का संतोषजनक वर्णन करते हैं। शेल प्रतिरूप - हलके, अर्थात्‌ कम परमाणुभारवाले, नाभिकों का वर्णन करने में यह प्रतिरूप अत्यंत सफल रहा है। इस प्रतिरूप की आधारभूत मान्यता यह है कि नाभिक के भीतर प्रत्येक नाभिकाणु अत्यंत तीव्र आकर्षण क्षेत्र में, विभिन्न कक्षाओं में एक दूसरे से सर्वथा स्वतंत्र घूमता है। यह आकर्षण क्षेत्र प्रत्येक नाभिकाणु के परस्पर आकर्षण के कारण उत्पन्न होता है। इस प्रतिरूप में यह माना जाता है कि प्रत्येक नाभिकाणु का कक्षीय कोणीय संवेग १ और चक्रण कोणीय संवेग द्म परस्पर संयोग कर पूर्ण कोणीय संवेग j बनाता है, अर्थात्‌ १+s=j। अब प्रत्येक नाभिकाणु के पूर्ण कोणीय संवेग j एक दूसरे से प्रभावित होते हैं, इसे jj युग्मन (coupling) कहते हैं। इस प्रतिरूप में पारमाणविक शेल रचना की भाँति विभिन्न कक्षाओं में नाभिकाओं की अलग अलग संख्या आती है। यदि किसी कक्षा में महत्तम आठ प्रोटॉनों के लिए स्थान है, तो उसी कक्षा में प्रोटॉनों के अतिरिक्त आठ न्यूट्रॉन और हो सकते हैं। इस प्रकार प्रत्येक कक्षा में न्यूट्रॉन और प्रोटॉन एक दूसरे से सर्वदा स्वतंत्र माने जा सकते हैं। इस प्रतिरूप में कुछ पड़ोसी कक्षाओं के मध्य ऊर्जा का अंतर बहुत अधिक होता है। अतएव इलेक्ट्रॉनिक कक्षाओं की भाँति यहाँ भी अधिक ऊर्जा अंतर पर निम्न कक्षा को पूर्ण शेल मान लेते हैं। किसी एक पूर्ण शेल तक में जितने प्रोटॉन अथवा न्यूट्रॉन होते है उनकी संख्याएँ नीचे व्यक्त की गई हैं : २, ८, २०, ५०, ८२, १२६। इन्हें स्थायित्व संख्याएँ (magic numbers) कहा जाता है। दो कक्षाओं के बीच ऊर्जा का अंतर बहुत अधिक होने का अर्थ होता है कि निम्न पूर्ण कक्षा वाला नाभिक अधिक स्थायी होना चाहिए। प्रयोगों में भी ऐसा ही पाया जाता है। यदि न्यूट्रॉन और प्रोट्रॉन दोनों स्थायित्व संख्यावाले हों तो नाभिक अत्यधिक स्थायी होते हैं। इनके उदाहरण हैं 2He4, 8O16, 20Ca40, 82Pb208 इत्यादि। इस प्रतिरूप के आधार पर विषद् गणना द्वारा हलके नाभिकों के विभिन्न ऊर्जास्तर आदि भी अत्यधिक शुद्धतापूर्वक प्राप्त हो जाते हैं। विभिन्न नाभिकों के चक्रण (spin) इत्यादि भी इस प्रतिरूप के आधार पर संतोषजनक रूप में समझे जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त यह प्रतिरूप हलके नाभिकों के अन्य कई गुणों का संतोषजनक स्पष्टीकरण करता है। संक्षेप में, हलके नाभिकों के लिए यह प्रतिरूप गुणात्मक एवं मात्रात्मक दोनों प्रकार से ठीक है। सामूहिक प्रतिरूप - यद्यपि हलके नाभिकों के लिए शेल प्रतिरूप अत्यंत संतोषप्रद है तथापि जब नाभिक भारी होता है तब उसकी व्याख्या इस प्रतिरूप के आधार पर शुद्ध नहीं होती। इसका कारण यह हो सकता है कि जब नाभिकाणुओं की संख्या बहुत अधिक हो जाती है तब उनमें परस्पर क्रिया बढ़ जाती है और शेल प्रतिरूप की आधारभूत मान्यता कि नाभिकाणु एक दूसरे से सर्वथा स्वतंत्र घूमते हैं, ठीक न होती हो। एक अन्य प्रतिरूप, जिसे सामूहिक प्रतिरूप कहते हैं, भारी नाभिकों के वर्णन में काफी सफल रहा है। इस प्रतिरूप की आधारभूत मान्यता यह है कि नाभिक के भीतर प्रत्येक नाभिकाणु की परस्पर क्रिया बहुत अधिक होती है। दूसरे शब्दों में, सामूहिक प्रतिरूप की आधारभूत मान्यता शेल प्रतिरूप की मान्यता के सर्वथा विपरीत है। इसका प्रतिपादन सर्वप्रथम नील्स बोर ने नाभिकीय अभिक्रियाओं की व्याख्या के लिए किया था। वाइत्सेकर ने एक अर्धसैद्धांतिक समीकरण द्वारा विभिन्न नाभिकों का द्रव्यमान व्यक्त किया है। इस प्रतिरूप के अनुसार नाभिक की विभिन्न ऊर्जा स्थितियाँ किस अकेले नाभिकाणु के कारण नहीं हैं, बल्कि संपूर्ण नाभिक के कारण होती हैं। संपूर्ण नाभिक द्रव की एक बूँद की भाँति व्यवहार करता है। यह एक अक्ष पर घूमता है तथा इसमें स्पंदन होते हैं। जब इसका स्पंदन आयाम बहुत अधिक हो जाता है, तब यह दो भागों में विभक्त हो जाता है। इसे नाभिकीय विखंडन कहते हैं। बोर और मोटलसन ने इन दो एकदम विपरीत प्रतिरूपों का सामंजस्य करने का प्रयत्न किया है। इन्होंने एक नया प्रतिरूप बनाया है, जिसमें दोनों ही प्रतिरूपों की आधारभूत मान्यताएँ संनिहित हैं। इसके अनुसार किसी नाभिक में हर एक नाभिकाणु, शेल प्रतिरूप के अनुसार, अन्य नाभिकों द्वारा उत्पन्न नाभिकीय क्षेत्र में नियत कक्षाओं में घूमता है। परंतु संपूर्ण शेल में सामूहिक स्पंदन होते हैं। इस सामूहिक स्पंदन के कारण प्रत्येक नाभिकाणु की गति परिवर्तित हो जाती है, क्योंकि इससे नाभिकीय क्षेत्र विकृत हो जाता है। पूर्ण कक्षावाले नाभिकों का स्थायित्व अधिक होता है, अत: उनमें सामूहिक गति न्यूनतम होती है। जिन नाभिकों में न्यूट्रॉनों की संख्या पूर्ण शेल के बीच की होती है, उनमें यह गति महत्तम होती है। द्रव की बूँद की भाँति इसमें ज्वारीय तरंग (tidal wave) हो सकती है, जिससे कोणीय संवेग होता है। इस प्रकार के प्रतिरूप को काफी सफलता मिली है एवं आगे और अधिक सफलता की आशा है।(धनवंतकाोिर गुप्त)