सिंहासन बत्तीसी दस

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एक दिन विक्रमादित्य अपने बगीचे में बैठा हुआ था। वसन्त ऋतु थी। टेसू फूले हुए थे। कोयल कूक रही थीं। इतने में एक आदमी राजा के पास आया। उसका शरीर सूखकर कांटा हो रहा था। खाना पीना उसने छोड़ दिया था, आंखों से कम दिखता था। व्याकुल होकर वह बार-बार रोता था। राजा ने उसे धीरज बंधाया और रोने का कारण पूछा।

उसने कहा: मैं कालिंजर का रहने वाला हूँ। एक यती ने बताया कि अमुक जगह एक बड़ी सुन्दर स्त्री तीनों लोकों में नहीं है। लाखों राजा-महाराज और दूसरे लोग आते हैं। उसके बाप ने एक कढ़ाव में तेल खौलवा रक्खा है। कहता है कि कढ़ाव में स्नान करके जो निकल आयगा, उसी के साथ वह अपनी पुत्री का विवाह करेगा। वहाँ कई राजा जल चुकें है। जबसे उस स्त्री को देखा है, तबसे मेरी यह हालत हो गई है।"

राजा ने क: घबराओ मत। कल हम दोनों साथ-साथ वहाँ चलेंगे।

अगले दिन राजा ने स्नान पूजा आदि से छूट्टी पाकर दोनों वीरों को बुलाया।

राजा के कहने पर वे उन्हें वहीं ले चले, जहाँ वह सुन्दर स्त्री रहती थी। वहाँ पहुंचकर वे देखते क्या हैं कि बाजे बज रहे है। और राजकन्या माला हाथ में लिये घूम रही है। जो कढ़ाव में कूदता है, वही भून जाता है।

राजा उस कन्या के रूप को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और कढ़ाव के पास जाकर झट उसमें कूद पड़ा। कूदते ही भुनकर राख हो गया।

राजा के दोनों वीरों ने यह देखा तो अमृत ले आये और जैसे ही राजा पर छिड़का, वह जी उठा।

फिर क्या था! सबको बड़ा आनन्द हुआ। राजकन्या का विवाह राजा के साथ हो गया। करोड़ो की सम्पत्ति मिली।

राजकन्या ने हाथ जोड़कर राजा से कहा: हे राजन्! तुमने मुझे दु:ख से छुड़ाया। मेरे बाप ने ऐसा पाप किया था कि वह नरक में जाता और मैं उम्र भर क्वांरी रहती।

राजा के साथ जो आदमी गया था, वह अब भी साथ था। राजा ने उस स्त्री को बहुत-से माल-असबाब सहित उसे दे दिया।

इतना कहकर पुतली बोली: देखा तुमने! राजा विक्रमादित्य ने कितना पराक्रम करके पाई हुई राजकन्या को दूसरे आदमी को देते तनिक भी हिचक न की। तुम ऐसा कर सकोगे तभी सिंहासन पर बैठने के योग्य होगे।

राजा बड़े असमंजस में पड़ा। सिहांसन पर बैठने की उसकी इच्छा इतनी बढ़ गई थी कि अगले दिन वह फिर वहाँ पहुँच गया, लेकिन पैर रखने को जैसे ही बढ़ा कि ग्यारहवीं पुतली पद्मावती ने उसे रोक दिया।

पुतली बोली: ठहरो मेरी बात सुनो।

राजा रूक गया। पुतली ने अपनी बात सुनायी।


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