एक शहर की कहानी -अवतार एनगिल

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मेरे आबाद शहर में
तंग रास्तों पर
चलती है
बरबाद भीड़ें
और कुलबुलाते हैं
बड़े कैलेण्डरों वाले छोटे कमरों में
शापित भगवान

मेरे शहर के रोज़गार के दफ़्तर के दरवाज़ों पर
भटकते हैं
रोज़ी तलाशते आदमियों के रेवड़

इसी नये शहर की पुरानी एक गली में
रहती है, बुधिया की बहू, बुंदू की बीवी
दो बेटियों की मां
एक बेटे की लालसा लिए
हर रोज़ एक सपना बुनती है

इधर शहर के शमशान में
पंजों के बल चलती है
सर्द सुनहरी शाम संग
लम्बे दांतों वाली एक चुड़ैल
बुनती है जो
करोड़ों जादुई रंगों के जाल
लहराती है काले बाल
बुंदू की बीवी नहीं जानती
क्यों नाचती है भूख की डायन
उसके आंगन में
कि क्यों जलते हैं हर रोज़
उसकी रसोई में
पेटों के अलाव ?

गंठिये का मरीज़ सठियाया ससुर
लगातार बोलती बीमार मां
चिड़्चिड़ाता ख़ाबिंद
मांस नोचती बेटियां दो
और सपने सहेजती---बूंदू की बीवी

हर रोज़ मेरे नये शहर में
पुराने पीपल की बूढ़ी शाखाओं पर
निगलता है रात का अजगर
सांझ के सूरज की सिंदूरी मणि

और पेटों के अलाव भूलकर
बूंदू की बीवी
बुधिया की बहू
हर रोज़ एक सपना बुनती है।



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