रूपकुंड झील

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गढ़वाल हिमालय के अन्तर्गत अनेक सुरम्य ऐतिहासिक स्थल हैं जिनकी जितनी खोज की जाय उतने ही रहस्य सामने आ जाते हैं। इन आकर्षक एवं मनमोहक स्थलों को देखने के लिये प्राचीन काल से वैज्ञानिक, इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ताओं भूगर्भ विशेषज्ञों एवं जिज्ञासु पर्यटकों के कदम इन स्थानों में पड़ते रहे हैं।

यहां उच्च हिमालय क्षेत्र के अन्तर्गत अनेक ताल एवं झील हैं जिनमें लगभग 16200 फीट की ऊंचाई पर स्थित प्रसिद्ध नंदादेवी राजजात यात्रा मार्ग पर एक चर्चित रहस्यमय स्थान है ‘रूपकुंड। यह रूपकुंड झील त्रिशूली शिखर (24000 फीट) की गोद में ज्यूंरागली पहाड़ी के नीचे 150 फीट ब्यास एवं 500 फीट की परिधि में अंडाकार आकार में फैली स्वच्छ एवं शांत मनोहारी झील है। इससे रूपगंगा जलधारा निकलती है। किवदंती है कि अपने स्वामी गृह कैलाश जाते समय अनुपम सुंदरी हिमवन्त पुत्री नंदादेवी ने बीच मार्ग में स्नान करते एवं श्रृंगार करने के बाद जब अपनी आधी सुन्दर छवि उस कुंड में देखी तो अत्यंत प्रफुल्लित हुई। उसने इस कुंड का नाम रूपकुंड रख दिया। अपनी मनोहारी छटा के लिये यह झील जिस कारण अत्यधिक चर्चित है वह है झील के चारों ओर पाये जाने वाले रहस्यमय नरकंकाल, अस्थियां, विभिन्न उपकरण, कपड़े, गहने, बर्तन, चप्पल आदि वस्तुऐं।

रूपकुंड के आसपास पड़े अस्थियों के ढेर एवं नरकंकालों की खोज सर्वप्रथम वर्ष 1942 - 43 में भारतीय वन निगम के एक अधिकारी द्वारा की गई। उप्र वन विभाग के एक अधिकारी ने 1955 के सितम्बर में रूपकुंड क्षेत्र का भ्रमण किया व कुछ नरकंकाल, अस्थियां, चप्पल आदि वस्तुऐं एकत्रित कर लखनऊ विश्वविद्यालय के मानव शरीर रचना अध्ययन विभाग के डा. डी.एन.मजूमदार को परीक्षणार्थ सौंप दी थीं। डा. मजूमदार भी इसके बाद इस क्षेत्र में भ्रमणार्थ गये और वहां से अस्थियां आदि कुछ सामग्री एकत्रित कर ले गये। वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार डा. मजूमदार के द्वारा ये अस्थियां 600 वर्ष से पहले की प्रमाणित की गई।

अनेक जिज्ञासु-अन्वेशक दल भी इस रहस्यमय रूपकुंड क्षेत्र की ऐतिहासिक यात्रा सम्पन्न कर चुके हैं। भारत सरकार के भूगर्भ वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों के एक दल ने भी दुर्गम क्षेत्र में प्रवेश कर अपने विषय का अन्वेशण व परीक्षण किया था। वर्ष 1955 में भारत सरकार के मानव शास्त्र विभाग के प्रसिद्ध मानव शास्त्री एवं विभाग के डायरेक्टर जनरल डा. दत्त मजूमदार ने गढ़वाल पर्वतीय क्षेत्र का व्यापक भ्रमण कर बताया कि यह घटना तीन-चार सौ वर्ष से कहीं अधिक पुरानी है और ये अस्थि अवशेष किसी तीर्थ यात्री दल के हैं। ब्रिटिश व अमेरिका के वैज्ञानिकों ने रूपकुंड क्षेत्र के मानव कंकालों के रहस्यों को सुलझाते हुए विश्वास व्यक्त किया कि ये कंकाल लगभग 600 वर्ष पुराने हैं।

रूपकुंड के वैज्ञानिक पहलू को प्रकाश में लाने का श्रेय प्रसिद्ध पर्यटक एवं हिमालय अभियान के विशेषज्ञ एवं अन्वेशक स्वामी प्रणवानन्द को है जो अनेक बार रूपकुंड गये और उन्होंने रूपकुंड के रहस्य का सभी दृष्टि से अध्ययन किया। स्वामी जी ने सन् 1956 में लगभग ढाई माह तथा सन् 1957 व 58 में दो-दो माह रूपकुंड में शिविर लगाकर नरकंकाल, अस्थियां, बालों की चुटिया, चमड़े के चप्पल व बटुआ, चूड़ियां, लकड़ी व मिट्टी के बर्तन, शंख के टुकड़े, आभूषणों के दाने आदि पर्याप्त वस्तुऐं एकत्रित कीं। उन्होंने ये वस्तुऐं वैज्ञानिक जांच हेतु बाहर भेजीं। वैज्ञानिक शोध के आधार पर ये नरकंकाल, अस्थियां आदि लगभग 650 वर्ष पुराने साबित हुए हैं। स्वामी प्रणवानन्द ने अपने अध्ययन के निष्कर्ष में रूपकुंड में प्राप्त अस्थियां आदि वस्तुऐं कन्नौज के राजा यशोधवल के यात्रा दल के माने हैं जिसमें राजपरिवार के सदस्यों के अलावा अनेक दास-दासियां, कर्मचारी तथा कारोबारी आदि सम्मिलित थे। बताया गया है कि हताहतों की संख्या कम से कम तीन सौ होगी। पशुओं का एक भी अस्थि पंजर नहीं पाया गया। स्वामी प्रणवानन्द जब पुन: चौथी बार अन्वेशण हेतु रूपकुंड गये तो बताया गया कि उप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. सम्पूर्णानन्द द्वारा प्रदत्त नाव में बैठकर उन्होंने झील की परिक्रमा की। यह झील लगभग 12 मीटर लम्बी, 10 मीटर चौड़ी व 2 मीटर गहरी है व झील का धरातल प्राय: सर्वत्र समतल प्रतीत हुआ है।

रहस्यमय इतिहास

रूपकुंड रहस्य की ऐतिहासिक एवं वैज्ञानिक आधार पर जांच पड़ताल के बाद यह निष्कर्ष निकाला जा चुका है कि एक बार नंदादेवी के दोष के कारण कन्नौज के राजा यशोधवल के राज्य में भयंकर अकाल, सूखा तथा अनेक प्राकृतिक प्रकोप होने लगे जिससे भयभीत होकर राजा यशोधवल ने नंदादेवी की मनौती की और गढ़वाल हिमालय में नंदा देवी राजजात हेतु सदल-बल प्रस्थान किया। गढ़वाल हिमालय के इस पावन क्षेत्र की धार्मिक यात्रा के नियमों एवं मर्यादाओं की राजमद में पालन न करते हुए घोर उपेक्षा की। राजा अपनी गर्भवती रानी व दास-दासियों सहित तमाम लश्कर दल के साथ त्रिशूली पर्वत होते हुए नंदादेवी यात्रा मार्ग पर स्थित रूपकुंड में पंहुचे। नंदादेवी के दोष के परिणामस्वरुप उस क्षेत्र में अचानक भयंकर वर्षा व ओलावृष्टि हो गई और राजा यशोधवल सपरिवार आदि सभी यात्री दल उस बर्फानी तूफान में फंस गये व दबकर मर गये। अत: ये नरकंकाल व अस्थियां आदि वस्तुऎं उसी समय के बताये गये हैं।

स्थिति जो कुछ भी हो लेकिन इतिहासकारों एवं वैज्ञानिकों के लिये रूपकुंड रहस्य एक बहुचर्चित विषय बन गया है। इस बीच इन पांच-छह दशकों में इस क्षेत्र में जितनी भी खोज तथा अन्वेशण कार्य किये गये हैं उसमें विशेषज्ञ एकमत व निष्कर्ष पर नहीं पंहुच पाये हैं। लेकिन अनेक अन्वेशक व खोजकर्ता प्राय: इस निष्कर्ष पर तो अवश्य पंहुचे हैं कि ये नरकंकाल व अस्थियां आदि वस्तुऐं छह-सात सौ वर्ष पुराने रहे होंगे।

यह रहस्यमय झील ग्रीष्मकाल वर्षा ऋतु के तीन-चार महीने (जून से सितम्बर तक) बर्फ पिघलने से दिखाई देती है और शेष अवधि में हिमाच्छादित रहती है। आज भी रूपकुंड के आसपास यत्र-तत्र व किनारों पर छुटपुट मानव कंकाल व अस्थियां के टुकड़े पड़े दिखाई देते हैं लेकिन पर्यटकों, अन्वेशकों आदि भ्रमणकर्ताओं के आगमन के बाद अब इस क्षेत्र में ये वस्तुऐं धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं।

इस विश्वप्रसिद्ध रहस्यमय रूपकुंड स्थान में पंहुचने के लिये मुख्यत
निम्न मार्ग हैं -
  • कर्णप्रयाग से थराली, देवाल, वाण, गैरोलीपातल, वेदिनी बुग्याल, कैलोविनायक, रूपकुंड (लगभग 155 किमी)।
  • नन्दप्रयाग से घाट, सुतोल, वाण, वेदिनी बुग्याल, रूपकुंड।
  • ग्वालदम से देवाल, वाण, वेदिनी बुग्याल, रूपकुंड।



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