स्वर्णधूलि -सुमित्रानन्दन पंत

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स्वर्णधूलि सुमित्रानन्दन पंत का सातवाँ काव्य-संकलन है। इसका प्रकाशन सन 1947 ई. में हुआ। स्वर्णधूलि में संकलित रचनाओं की संख्या 80 है। इनके अंतर्गत 'आर्षवाणी' शीर्षक से 14 रचनाएँ और पंत द्वारा 1935 ई. में अनूदित 'सन्यासी का गीत' है और अंत में 'मानसी' रूपक है। 'सन्यासी का गीत' स्वामी विवेकानन्द कृत 'सांग ऑफ द संन्यासिन' का रूपांतर है।

कवि-मानस की स्वर्ण चेतना

'स्वर्णधूलि' कवि-मानस की स्वर्ण चेतना का प्रतीक है जो जड़ को चेतन के संस्पर्श से मूल्यवान् बनाकर मानव के आरोहण के लिए मार्ग प्रशस्त करती है। स्वर्ण नयी जीवनचेतना की दिव्यता और महार्घता को विज्ञापित करता है। अपनी इसी भावना के अनुरूप कवि ने नये प्रतीक गढ़े हैं और अपनी भाषा-शैली को भी मांसल तथा चित्रमय बनाना चाहा है। परंतु 'पल्लव' के कवि और इन रचनाओं के कवि के बीच में बौद्धिक साधना और प्रौढ़ वर्षों का जो व्यवधान पड़ गया है, वह तिरोहित नहीं हो पाता। फिर भी जिस काव्य-भाषा का उपयोग इन उत्तर रचनाओं में मिलता है, वह प्राणवान और भावनामय है।

कथात्मक रचनाएँ

'स्वर्णधूलि' की रचनाओं को कई श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं। प्रथम तो वे कथात्मक या संवादात्मक रचनाएँ हैं, जिनमें कवि ने सामाजिक और नैतिक मूल्यों की सूक्ष्मता पर प्रकाश डाला है। 'पतिता' ने बताया गया है कि नारी देह से कलंकित नहीं होती, मन से कलंकित होती है और प्रेम पतित को भी पावन करने में समर्थ है। कलंकित मालती को उसका पति केशव इसी सत्य के अमृत से जीवनदान देता है। 'परकीया' में हृदयस्थ सत्य को ही अंतिम वास्तविकता मान कर करुणा के परकीयत्व को लांछना से बचाने का उपक्रम है। 'ग्रामीण' में कवि ने पश्चिमी रंग में रंगे श्रीधर के अंतस् में सोए हुए ग्रामीण को दिखा कर, जो सहज आंतरिक श्रद्धा और सद्विश्वासों पर निर्भर है, उसे इस प्रवाद से उबारा है कि वह सूट-बूटधारी नागर मात्र है। 'सामंजस्य' में वह भावसत्य और वस्तुसत्य को आत्मसत्य के ही दो चेहरे सिद्ध करता है। 'आजाद' में मनुष्य के कर्म-स्वातंत्र्य को परिबद्ध बता कर दैवी शक्ति की महत्ता स्थापित की गयी है और 'लोकसत्य' में माधव-यादव के संवाद में मनुष्यत्व की क्षमा को जनबल से भी बड़ा कहा गया है। इस प्रकार की अन्य भी कई कथात्मक रचनाएँ इस संकलन की शोभा हैं और उनसे कवि ने अपनी नयी आस्था को दृढ़ करने का काम लिया है।

चेतनावादी रचनाएँ

संकलन की रचनाओं में दूसरी कोटि चेतना वादी रचनाओं की है यद्यपि उनकी संख्या अधिक नहीं 'ज्योतिसर', 'निर्झर', 'अंतर्वाणी','अविच्छिन्न', 'कुण्ठित', 'आर्त्त', 'अंतर्विकास' आदि रचनाएँ इसी कोटि की हैं। इन रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ 'प्रणाम' और 'मातृचेतना' शीर्षक रचनाएँ हैं। पहली रचना से कवि के प्रेरणा-स्रोत का पता चलता है तो दूसरी रचना अरविन्द-दर्शन की स्पर्शमणि मातृचेतना को काव्योपम उपमानों में बाँधने का प्रयत्न है। दोनों रचनाएँ कवि की नयी भाव-दिशा की द्योतक हैं।

प्रकृति संबंधित रचनाएँ

तीसरी कोटि की रचनाएँ प्रकृति संबंधित रचनाएँ हैं, जो कवि की प्रकृति चेतना का नया संस्करण प्रस्तुत करती हैं। अंतः सलिला की भाँति प्रकृति-प्रेम पंत की काव्यचेतना का अभिन्न अंग रहा है। इस स्वर्णसूत्र में उनका समस्त काव्य विकास ग्रंथित है। प्रत्येक नए मोड़ के साथ उन्होंने प्रकृति की ओर नई भाव मुद्रा से देखा है और नये प्रतीकों तथा शब्द सूत्रों में उसे बाँधा है। अरविंद वादी काव्य में वसंत और शरद चाँदनी और मेघ नई अध्यात्म चेतना के प्रतीक बन गये हैं। 'सावन', क्रोटन की टहनी' और 'तालकुल' जैसी नयी अभिव्यंजनाओं वाली रचनाएँ भी यहाँ मिलेंगी, जिनमें कवि दार्शनिक ऊहापोम और चिंता की मुद्रा को पीछे छोड़ कर एकदम प्रकृतिस्थ हो जाता है और कलाकार की भाँति नये परिपार्श्व से प्रकृति को छायाचित्र बना देता है।

स्वातंत्र्य का अभिनन्दन

चौथी कोटि की रचनाएँ सद्योपलब्ध स्वातंत्र्य का अभिनन्दन अथवा ध्वजवंदन हैं। संकलन की एक कविता का उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा। यह कविता 'लक्ष्मण' शीर्षक है। कवि के आत्मवृत्त में लक्ष्मण के प्रति उसके सतत् जाग्रत प्रशंसा-भाव का उल्लेख मिलता है और उनके सेवाधर्म को उन्होंने आदर्श माना है। इस रचना में इसी ममत्व ने वाणी पायी है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 662।

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