चिल्ला जाड़ा -आदित्य चौधरी

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चिल्ला जाड़ा

मकर संक्रांति निकल गयी सर्दी कम होने के आसार थे, लेकिन हुई नहीं, होती भी कैसे 'चिल्ला जाड़े' जो चल रहे हैं।
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद लिखते हैं-
"हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा"
अमर कहानीकार मोपासां ने लिखा है-
"ठंड ऐसी पड़ रही थी कि पत्थर भी चटक जाय"
जाड़ा इस बार ज़्यादा पड़ रहा है। ज़बर्दस्त जाड़ा याने कि 'किटकिटी' वाली ठंड के लिए मेरी माँ कहती हैं-
"चिल्ला जाड़ा चल रहा है"
मैं सोचा करता था कि जिस ठंड में चिल्लाने लगें तो वही 'चिल्ला जाड़ा'! लेकिन मन में ये बात तो रहती थी कि शायद मैं ग़लत हूँ।
बाबरनामा (तुज़कि बाबरी) में बाबर ने लिखा है कि इतनी ठंड पड़ रही है कि कमान का चिल्ला भी नहीं चढ़ता याने धनुष की प्रत्यंचा (डोरी) जो चमड़े की होती थी वह ठंड से सिकुड़ कर छोटी हो जाती थी और आसानी से धनुष पर नहीं चढ़ पाती थी, तब मैंने सोचा कि शायद कमान के चिल्ले की वजह से चिल्ला जाड़े कहते हैं लेकिन बाद में मेरे इस हास्यास्पद शोध को तब बड़ा धक्का लगा जब पता चला कि 'चिल्ला' शब्द फ़ारसी भाषा में 'चालीस दिन के अंतराल के लिए कहा जाता है, फिर ध्यान आया कि अरे हाँ... कहा भी तो 'चालीस दिन का चिल्ला' ही जाता है।
 
बाबरनामा मैंने क़रीब तीस साल पहले पढ़ा था और फिर दोबारा पढ़ा चार साल पहले...।
बाबरनामा को विश्व की श्रेष्ठ आत्म कथाओं में गिना जाता है। यह बाबर की दैनन्दिनी (डायरी) जैसा है।
पूरा तो उपलब्ध नहीं है पर जितना भी है, कमाल का है।
लेकिन हाँ... बाबर ने भी कुछ ऐसे ही बचकाने शोध कर डाले हैं जैसे मैंने 'चिल्ला जाड़े' को लेकर किया।
हिमालय की शिवालिक पहाड़ी श्रंखला के लिए बाबर ने जो शिवालिक का उच्चारण सुना वह था 'सवालक'।
बाबर ने जो हिसाब लगाया वह काफ़ी दिलचस्प था। तत्कालीन स्थानीय मान्यता के अनुसार हिमालय की सवालाख पहाड़ियाँ मानी जाती थीं उसने सोचा कि सवालाख को पंजाबी उच्चारण में 'सवालख्ख' या 'सवालक' कहते हैं इसलिए इन पहाड़ियों का नाम 'सवालक' होगा।

बाबर पढ़ा लिखा था उसने अपनी ग़ज़लों और नज़्मों का पूरा दीवान भी तैयार कर लिया था लेकिन फिर भी शिव की अलक से शिवालिक को नहीं जोड़ पाया अब क्या कहें पता नहीं क्या सही है।
हाँ इतना ज़रूर है कि यह गड़बड़ अकबर से नहीं होती वह बिना पढ़ा लिखा होने के बावजूद भी इस तह तक ज़रूर पहुँचने की कोशिश करता। वैसे भी अकबर की याद्‌दाश्त ग़ज़ब की थी इसका ज़िक्र पंडित राहुल साँकृत्यायन ने अपनी पुस्तक 'अकबर' में किया है।
उन्होंने लिखा है कि अकबर जब मात्र सवा साल का था और उसने पैदल चलना शुरू ही किया था तब उस समय की रस्म के हिसाब से परिवार के बुज़ुर्ग ने उसके पैरों में अपनी पगड़ी मारी जिससे वह गिर पड़ा था।
अकबर को बड़े होने यह घटना याद थी। अब सवाल यह है कि जो लोग पढ़े-लिखे हैं उनकी याद्‌दाश्त अच्छी होती है या फिर उनकी जो कि पढ़े से गुने ज़्यादा हैं...

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