सिंहासन बत्तीसी बत्तीस

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राजा विक्रमादित्य का आखिरी समय आया तो वह विमान में बैठकर इंद्रलोक को चला गया। उसके जाने से तीनों लोकों में बड़ा शोक मनाया गया। राजा के साथ उसके दोनों वीर भी चले गये। धर्म की ध्वजा उखड गई। ब्राह्मण, भिखारी, दुखी होकर रोने लगे। रानियां राजा के साथ सती हो गई। दीवान ने राजकुमार जैतपाल को गद्दी पर बिठाया।

एक दिन की बात है कि नया राजा जब इस सिंहासन पर बैठा तो वह मूर्च्छित हो गया। उसी हालत में उसने देखा, राजा विक्रमादित्य उससे कह रहे हैं कि तू इस सिंहासन पर मत बैठ। जैतपाल की आंखें खुल गईं और वह नीचे उतर आया। उसने दीवान से सब हाल कहा।

दीवान बोला: रात को तुम ध्यान करके राजा से पूछो कि मैं क्या करुं। वह जैसा कहें, वैसा ही करो।

जैतपाल ने ऐसा ही किया।

राजा विक्रमादित्य ने उससे कहा: तुम उज्जैन नगरी और धारा नगरी छोड़कर अंबावती नगरी में चले जाओं और राज्य करो। इस सिंहासन को वहीं गड़वा दो।

सवेरा होते ही राजा जैतवाल ने सिंहासन वहीं गड़वा दिया और स्वयं अंबावती चला गया। उज्जैन और धारा नगरी उजड़ गई। अंबावती नगरी बस गई।

पुतली की यह बात सुनकर राजा भोज बड़ा पछताया और दीवान को बुलाकर आज्ञा दी कि इस सिंहासन को जहां से निकलवाया था, वहीं गड़वा दो। फिर अपना राजपाट दीवान को सौंपकर वह एक तीर्थ में चला गया और वहीं तपस्या करने लगा।


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