सिंहासन बत्तीसी पच्चीस

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एक गरीब भाट था। उसकी कन्या ब्याह के योग्य हुई तो उसने सारी दुनिया के राजाओं के यहां चक्कर लगाये, लेकिन किसी ने भी उसे एक कौड़ी न दी। तब वह राजा विक्रमादित्य के पास पहुंचा और उसे सब हाल कह सुनाया। राजा ने तुरंत उसे दस लाख रुपये और हीरे, लाल, मोती और सोने-चांदी के गहने थाल भर-भरकर दिये। ब्राह्मण ने सब कुछ ब्याह में खर्च कर डाला। खाने को भी अपने पास कुछ न रक्खा।

पुतली बोली: इतने दानी हो तो सिंहासन पर बैठो।

राजा की हैरानी बहुत बढ़ गई। रोज कोई-न-कोई बाधा पड़ जाती थी। अगले दिन उसे छब्बीसवीं पुतली विद्यावती ने रोका और बोली, "पहले विक्रमादित्य की तरह यश कमाओ, तब सिंहासन पर बैठना।"

इतना कहकर उसने सुनाया:


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