Talk:अध्यात्म एवं विज्ञान

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अध्यात्म एवं विज्ञान के बीच सामरस्य का मार्ग स्थापित करने के लिए परम्परागत

धर्म की इस मान्यता को छोड़ना पड़ेगा कि यह संसार ईश्वर की इच्छा की परिणति है। हमंे विज्ञान की इस दृष्टि को स्वीकार करना होगा कि सृष्टि रचना के व्यापार में ईश्वर के कर्तृत्व की कोई भूमिका नहीं है। सृष्टि रचना व्यापार में प्रकृति के नियमों को स्वीकार करना होगा। डार्विन के विकासवाद के आलोक में पाश्चात्य धर्म की इस मान्यता के प्रति आज के चिंतकों का विश्वास खंडित होता जा रहा है कि " सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने सभी प्राणियों के युगल निर्मित किए थे तथा परमात्मा ने ही मनुष्य को " ईश्वरीय ज्ञान " प्रदान किया था।" जीव के विकास की प्रक्रिया के सूत्र धर्म की इस पौराणिक मान्यता में भी खोजे जा सकते हैं कि " जीव चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य योनि धारण करता है " तथा भगवान विष्णु के 10 अवतार लेने की पौराणिक मान्यता की इस परिप्रेक्ष्य में पुनर् मीमांसा की जा सकती है। मत्स्यावतार, कूर्मावतार, वराहावतार, वामनावतार, नरसिंहावतार, परशुरामावतार के क्रम की मीमांसा विकासवाद के परिप्रेक्ष्य में सम्भव है।

विज्ञान को भी अपनी भौतिकवादी सीमाओं का अतिक्रमण करना होगा। विज्ञान विशुद्ध रूप से भौतिकवादी रहा है। विज्ञान विश्व के मूल में पदार्थ एवं ऊर्जा को ही अधिष्ठित देखता आया है। विज्ञान को अपार्थिव चिन्मय सत्ता का भी संस्पर्श करना होगा। भविष्य के विज्ञान को अपना यह आग्रह भी छोड़ना होगा कि जड़ पदार्थ से चेतना का आविर्भाव होता है। डार्विन के विकासवाद के इस सिद्धान्त को तो स्वीकार करना सम्भव है कि अवनत कोटि के जीव से उन्नत कोटि के जीव का विकास हुआ है किन्तु उनका यह सिद्धान्त तर्कसंगत नहीं है कि अजीव से जीव का विकास हुआ। मेरी इस धारणा अथवा मान्यता का तार्किक कारण है। जिस वस्तु का जैसा उपादान कारण होता है, वह उसी रूप में परिणत होता है। चेतन के उपादान अचेतन में नहीं बदल सकते। अचेतन के उपादान चेतन में नहीं बदल सकते। न कभी ऐसा हुआ है, न हो रहा है और न होगा कि जीव अजीव बन जाए तथा अजीव जीव बन जाए। पदार्थ के रूपांतरण से स्मृति एवं बुद्धि के गुणों को उत्पन्न किया जा सकता है मगर चेतना उत्पन्न नहीं की जा सकती। चेतना का अध्ययन अध्यात्म का विषय है।

आगे पढ़ें: रचनाकार: महावीर सरन जैन का आलेख : अध्यात्म एवं विज्ञान http://www.rachanakar.org/2009/09/blog-post_5417.html#ixzz2XcNGazgW

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