श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 33 श्लोक 10-19

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दशम स्कन्ध: त्रास्त्रिंशोऽध्यायः (33) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रास्त्रिंशोऽध्यायः श्लोक 10-19 का हिन्दी अनुवाद

कोई गोपी भगवान के साथ-उनके स्वर में स्वर मिलाकर गा रही थी। वह श्रीकृष्ण के स्वर की अपेक्षा और बी ऊँचे स्वर से राग अलापने लगी। उनके विलक्षण और उत्तम स्वर को सुनकर वे बहुत ही प्रसन्न हुए और वाह-वाह करके उनकी प्रशंसा करने लगे। उसी राग को एक दूसरी सखी ने ध्रपद में गया। उसका भी भगवान ने बहुत सम्मान किया । एक गोपी नृत्य करते-करते थक गयी। उसकी कलाइयों से कंगन और चोटियों से बेला के फूल खिसकने लगे। तब उसने अपने बगल में ही खड़े मुरलीमनोहर श्यामसुन्दर के कंधे को अपनी बाह से कसकर पकड़ लिया । भगवान श्रीकृष्ण अपना एक हाथ दूसरी गोपी के कंधे पर रख रखा था। वह स्वभाव से तो कमल के समान सुगन्ध से युक्त था ही, उस पर बड़ा सुंगधित चन्दन का लेप भी था। उसकी सुगन्ध से वह गोपी पुलकित हो गयी, उसका रोम-रोम खिल उठा। उसने झटसे उसे चूम लिया । एक गोपी नृत्य कर रही थी। नाचने के कारण उसके कुण्डल हिल रहे थे, उनकी छटा से उसके कपोल और भी चमक रहे थे। उसने अपने कपोलों को भगवान श्रीकृष्ण के कपोल से सटा दिया और भगवान ने उसके मुँह में अपना चबाया हुआ पान दे दिया । कोई गोपी नुपुर और करधनी के घुँघरुओं को झंकारती हुई नाच और गा रही थी। वह जब बहुत थक गयी, तब उसने अपने बगल में ही खड़े श्यामसुन्दर के शीतल करकमलों को आने दोनों स्तनों पर रख लिया । परीक्षित्! गोपियों का सौभाग्य लक्ष्मीजी से भी बढ़कर है। लक्ष्मीजी के परम प्रियतम एकान्तवल्लभ भगवान श्रीकृष्ण को अपने परम प्रियतम के रूप में पाकर गोपियाँ गान करती हुईं उनके साथ विहार करने लगीं। भगवान श्रीकृष्ण ने उनके गलों को अपने भुजपाश में बाँध रख था, उस समय गोपियों की बड़ी अपूर्व शोभा थी । उनके कानों में कमल के कुण्डल शोभायमान थे। घुँघराली अलकें कपोलो पर लटक रही थीं। पसीने की बूँदें झलकने से उनके मुख की छटा निराली ही हो गयी थी। वे रासमण्डल में भगवान श्रीकृष्ण के साथ नृत्य कर रही थीं। उनके कंगन और पायजेबों के बाजे बज रहे थे। भौंरे उनके ताल-सुर में अपना सुर मिलाकर गा रहे थे। और उनके जूड़ों तथा चोटियों में गुँथे हुए फूल गिरते जा रहे थे । परीक्षित्! जैसे नन्हा-सा शिशु निर्विकार भाव से अपनी परछायीं के साथ खेलता है, वैसे ही रमारमण भगवान श्रीकृष्ण कभी उन्हें अपने ह्रदय से लगा लेते, कभी हाथ ने उनका अंगस्पर्श करते, कभी प्रेमभरी तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते तो कभी लीला से उन्मुक्त हँसी हँसने लगते। इस प्रकार उन्होंने व्रजसुन्दारियों के साथ क्रीड़ा की, विहार्द किया । परीक्षित्! भगवान के अंगों का संस्पर्श प्राप्त करके गोपियों की इन्द्रियाँ प्रेम और आनन्द से विह्वल हो गयीं। उनके केश बिखर गये। फूलों के हार टूट गये और गहने अस्त-व्यस्त हो गये। वे अपने केश, वस्त्र और कंचुकी को भी पूर्णतया सँभालने में असमर्थ हो गयीं । भगवान श्रीकृष्ण की यह रासक्रीडा देखकर स्वर्ग की देवांगनाएँ भी मिलन की कामना से मोहित हो गयीं और समस्त तारों तथा ग्रहों के साथ चन्द्रमा चकित, विस्मित हो गये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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