श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 36 श्लोक 27-38

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दशम स्कन्ध: षट्त्रिंशोऽध्यायः (36) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्त्रिंशोऽध्यायः श्लोक 27-38 का हिन्दी अनुवाद

परीक्षित्! कंस तो केवल स्वार्थ-साधन का सिद्धान्त जानता था। इसलिये उसने मन्त्री, पहलवान और महावत को इस प्रकार आज्ञा देकर श्रेष्ठ यदुवंशी अक्रूर को बुलवाया और उनका हाथ अपने हाथ में लेकर बोला—‘अक्रूरजी! आप तो बड़े उदार दानी हैं। सब तरह से मेरे आदरणीय हैं। आज आप मेरा एक मित्रोचित काम कर दीजिये; क्योंकि भोजवंशी और वृष्णिवंशी यादवों में आपसे बढ़कर मेरी भलाई करने वाला दूसरा को नहीं है । यह काम बहुत बड़ा है, इसलिये मेरे मित्र! मैंने आपका आश्रय लिया है। ठीक वैसे हो, जैसे इन्द्र समर्थ होने पर भी विष्णु का आश्रय लेकर अपना स्वार्थ साधता रहता है ।

आप नन्दराय के व्रज में जाइये। वहाँ वसुदेवजी की दो पुत्र हैं। उन्हें इसी रथ पर चढ़ाकर यहाँ ले आइये। बस, अब इस काम में देर नहीं होनी चाहिये । सुनते हैं, विष्णु के भरोसे जीने वाले देवताओं ने उन दोनों को मेरी मृत्यु का कारण निश्चित किया है। इसलिये आप उन दोनों को तो ले ही आइये, साथ ही नन्द आदि गोपों को भी बड़ी-बड़ी भेंटों के साथ ले आइये । यहाँ आने पर मैं उन्हें अपने काल समान कुवलयापीड हाथी से मरवा डालूँगा। यदि वे कदाचित् उस हाथी से बच गये, तो मैं अपने वज्र के समान मजबूत और फुर्तीले पहलवान मुष्टिक-चाणूर आदि से उन्हें मरवा डालूँगा । उनके मारे जाने पर वसुदेव आदि वृष्णि, भोज और दशार्हवंशी उनके भाई-बन्धु शोकाकुल हो जायँगे। फिर उन्हें मैं अपने हाथों मार डालूँगा । मेरा पिता उग्रसेन यों तो बूढ़ा हो गया है, परन्तु अभी उसको राज्य का लोभ बना हुआ है। यह सब कर चुकने के बाद मैं उसको, उसके भाई देवक को और दूसरे भी जो-जो मुझसे द्वेष करने वाले हैं—उन सबको तलवार के घाट उतार दूँगा । मेरे मित्र अक्रूरजी! फिर तो मैं होऊँगा और आप होंगे तथा होगा होगा इस पृथ्वी का अकण्टक राज्य। जरासन्ध हमारे बड़े-बूढ़े ससुर हैं और वानरराज द्विविद मेरे प्यारे सखा हैं । शम्बरासुर, नरकासुर और बाणासुर—ये तो मुझसे मित्रता करते ही हैं, मेरा मुँह देखते रहते हैं; इन सबकी सहायता से मैं देवताओं के पक्षपाती नरपतियों को मारकर पृथ्वी का अकण्टक राज्य भोगूँगा । यह सब अपनी गुप्त बातें मैंने आपको बतला दीं। अब आप जल्दी-से-जल्दी बलराम और कृष्ण को यहाँ ले आइये। अभी तो वे बच्चे ही हैं। उनको मार डालने में क्या लगता है ? उनसे केवल इतनी ही बात कहियेगा कि वे लोग धनुषयज्ञ के दर्शन और यदुवंशियों की राजधानी मथुरा की शोभा देखने के लिये यहाँ आ जायँ’ ।

अक्रूरजीने कहा—महाराज! आप अपनी मृत्यु, अपना अरिष्ट दूर करना चाहते हैं, इसलिये आपका ऐसा सोंचना ठीक ही है। मनुष्य को चाहिये कि चाहे सफलता हो या असफलता, दोनों के प्रति समभाव रखकर अपना काम करता जाय। फल तो प्रयत्न से नहीं, दैवी प्रेरणा से मिलते हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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