श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 90 श्लोक 29-46

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दशम स्कन्ध: नवतितमोऽध्यायः(90) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: ननवतितमोऽध्यायः श्लोक 29-46 का हिन्दी अनुवाद


इसीलिए वे ग्राहस्थोचित श्रेष्ठ धर्म का आश्रय लेकर व्यवहार कर रहे थे। परीक्षित्! मैं तुमने कह ही चुका हूँ कि उनकी रानियों की संख्या थीं सोलह हजार एक सौ आठ । उन श्रेष्ठ स्त्रियों में से रुक्मिणी आदि आठ पटरानियों और उनके पुत्रों का तो मैं पहले ही क्रम से वर्णन कर चुका हूँ । उनेक अतिरिक्त भगवान श्रीकृष्ण की और जितनी पत्नियाँ थीं, उनके भी प्रत्येक के दस-दस पुत्र उत्पन्न किये। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि भगवान सर्वशक्तिमान् और सत्यसंकल्प हैं । भगवान के परम पराक्रमी पुत्रों में अठारह तो महारथी थे, जिनका यश सारे जगत् में फैला हुआ था। उनके नाम मुझसे सुनो । प्रद्दुम्न, अनिरुद्ध, दीप्तिमान्, मानु, साम्ब, मधु, बृहद्भानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, पुष्कर, वेदबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्रबाहु, विरूप, कवि और न्यग्रोध । राजेन्द्र! भगवान श्रीकृष्ण के इन पुत्रों में भी सबसे श्रेष्ठ रुक्मिणीनन्दन प्रद्दुम्नजी थे। वे सभी गुणों में अपने पिता के समान ही थे । महारथी प्रद्दुम्न ने रुक्मी की कन्या से अपना विवाह किया था। उसी के गर्भ से अनिरुद्धजी का जन्म हुआ। उसमें दस हजार हाथियों का बल था । रुक्मी के दौहित्र अनिरुद्धजी ने अपने नाना की पोती से विवाह किया। उसके गर्भ से वज्र का जन्म हुआ। ब्राम्हणों के शाप से पैदा हुए मूसल के द्वारा यदुवंश का नाश हो जाने पर एकमात्र वे ही बच रहे थे । वज्र के पुत्र हैं प्रतिबाहु, प्रतिबाहु के सुबाहु, सुबाहु के शान्तसेन और शान्तसेन के शतसेन । परीक्षित्! इस वंश में कोई भी पुरुष ऐसा न हुआ जो बहुत-सी सन्तान वाला न हो तथा जो निर्धन, अल्पायु और अल्पशक्ति हो। वे सभी ब्राम्हण के भक्त थे । परीक्षित्! यदुवंश में ऐसे-ऐसे यशस्वी और पराक्रमी पुरुष हुए हैं, जिनकी गिनती भी हजारों वर्षों में पूरी नहीं हो सकती । मैंने ऐसा सुना है कि यदुवंश के बालकों को शिक्षा देने के लिये तीन करोड़ अट्ठासी लाख आचार्य थे । ऐसी स्थिति में महात्मा यदुवंशियों की संख्या तो बतायी ही कैसे जा सकती है! स्वयं महाराज उग्रसेन के साथ एक नील (१०००००००००००००) के लगभग सैनिक रहते थे । परीक्षित्! प्राचीन काल में देवासुरसंग्राम के समय बहुत-से भयंकर असुर मारे गये थे। वे ही मनुष्यों में उत्पन्न हुए और बाद घमंड से जनता को सताने लगे । उनका दमन करने के लिये भगवान की आज्ञा से देवताओं ने ही यदुवंश में अवतार लिया था। परीक्षित्! उनके कुलों की संख्या एक सौ एक थी । वे सब भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना स्वामी एवं आदर्श मानते थे। जो यदुवंशी उनके अनुयायी थे, उनकी सब प्रकार से उन्नति हुई । यदुवंशियों का चित्त इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण में लगा रहता था कि उन्हें सोने-बैठने, घूमने-फिरने, बोलने-खेलने और नहाने-धोने आदि कामों में अपने शरीर की भी सुधि न रहती थी। वे जानते ही न थे कि हमारा शरीर क्या कर रहा है। उनकी समस्त शारीरिक क्रियाएँ यन्त्र की भाँति अपने-आप होती रहती थीं ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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