श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 32-46

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एकादश स्कन्ध: एकादशोमोऽध्यायः (11)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकादशोमोऽध्यायः श्लोक 32-46 का हिन्दी अनुवाद


प्रिय उद्धव! मैंने वेदों और शास्त्रों के रूप में मनुष्यों के धर्म का उपदेश किया है, उनके पालन से अन्तःकरण शुद्धि आदि गुण और उल्लंघन से नरकादि दुःख प्राप्त होते हैं; परन्तु मेरा जो भक्त उन्हें भी अपने ध्यान आदि में विक्षेप समझकर त्याग देता है और केवल मेरे ही भजन में लगा रहता है, वह परम संत है । मैं कौन हूँ, कितना बड़ा हूँ, कैसा हूँ—इन बातों को जाने, चाहे न जाने; किन्तु अनन्य भाव से मेरा भजन करते हैं, वे मेरे विचार से मेरे परम भक्त हैं । प्यारे उद्धव! मेरी मूर्ति और मेरे भक्तजनों का दर्शन, स्पर्श, पूजा, सेवा-शुश्रूषा, स्तुति और प्रणाम करे तथा मेरे गुण और कर्मों का कीर्तन करे । उद्धव! मेरी कथा सुनने में श्रद्धा रखे और निरन्तर मेरा ध्यान करता रहे। जो कुछ मिले, वह मुझे समर्पित कर दे और दास्यभाव से मुझे आत्मनिवेदन करे । मेरे दिव्य जन्म और कर्मों की चर्चा करे। जन्माष्टमी, रामनवमी आदि पर्वों पर आनन्द मनावे और संगीत, नृत्य, बाजे और समाजों द्वारा मेरे मन्दिरों में उत्सव करे-करावे । वार्षिक त्योहारों के दिन मेरे स्थानों की यात्रा करे, जुलूस निकाले तथा विविध उपहारों से मेरी पूजा करे। वैदिक अथवा तान्त्रिक पद्धति से दीक्षा ग्रहण करे। मेरे व्रतों का पालन करे । मन्दिरों में मेरी मूर्तियों की स्थापना में श्रद्धा रखे। यदि यह काम अकेला न कर सके, तो औरों के साथ मिलकर उद्दोग करे। मेरे लिये पुष्पवाटिका, बगीचे, क्रीड़ा के स्थान, नगर और मन्दिर बनवावे । सेवक की भाँति श्रद्धा भक्ति के साथ निष्कपट भाव से मेरे मन्दिरों की सेवा-शुश्रूषा करे—झाड़े-बुहारे, लीपे-पोते, छिड़काव करे और तरह-तरह के चौक पूरे । अभिमान न करे, दम्भ न करे। साथ ही अपने शुभ कर्मों का ढिंढोरा भी न पीटे। प्रिय उद्धव! मेरे चढ़ावे की, अपने काम में लगाने की बात तो दूर रही, मुझे समर्पित दीपक के प्रकाश में भी अपना काम न ले। किसी दूसरे देवता की चढ़ायी हुई वस्तु मुझे न चढ़ावे । संसार में जो वस्तु अपने को सबसे प्रिय, सबसे अभीष्ट जान पड़े वह मुझे समर्पित कर दे। ऐसा करने से वह वस्तु अनन्त फल देने वाली हो जाती है । भद्र! सूर्य, अग्नि, ब्राम्हण, गौ, वैष्णव, आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा और समस्त प्राणी—ये सब मेरी पूजा के स्थान हैं । प्यारे उद्धव! ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मन्त्रों द्वारा सूर्य में मेरी पूजा करनी चाहिये। हवन के द्वारा अग्नि में, आतिथ्य द्वारा श्रेष्ठ ब्राम्हण में और हरी-भरी घास आदि के द्वारा गौ में मेरी पूजा करे । भाई-बन्धु के समान सत्कार के द्वारा वैष्णव में, निरन्तर ध्यान में लगे रहने से हृदयाकाश में, मुख्य प्राण समझने से वायु में और जल-पुष्प आदि सामग्रियों-द्वारा जल में मेरी आराधना की जाती है । गुप्त मन्त्रों द्वारा न्यास करके मिट्टी की वेदी में, उपयुक्त भोगों द्वारा आत्मा में और समदृष्टि द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों में मेरी आराधना करनी चाहिये, क्योंकि मैं सभी में क्षेत्रज्ञ आत्मा के रूप में स्थित हूँ । इन सभी स्थानों में शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण किये चार भुजाओं वाले शान्तमूर्ति श्रीभगवान विराजमान हैं, ऐसा ध्यान करते हुए एकाग्रता के साथ मेरी पूजा करनी चाहिये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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