श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 30 श्लोक 1-14

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एकादश स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः (30)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! जब महाभागवत उद्धवजी बदरीवन को चले गये, तब भूतभावन भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका में क्या लीला रची ? प्रभो! यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने अपने कुल के ब्रम्हशाप ग्रस्त होएं अपर सबके नेत्रादि इन्द्रियों के परम प्रिय अपने दिव्य श्रीविग्रह की लीला का संवरण कैसे किया ? भगवन्! जब स्त्रियों के नेत्र उनके श्रीविग्रह में लग जाते थे, तब वे उन्हें वहाँ से हटाने में असमर्थ हो जाती थीं। जब संत पुरुष उनकी रूपमाधुरी का वर्णन सुनते हैं, तब वह श्रीविग्रह कानों के रास्ते प्रवेश करके उनके चित्त में गड़-सा जाता है, वहाँ से हटना नहीं जानता। उसकी शोभा कवियों की काव्यरचना में अनुराग का रंग भर देती है और उनका सम्मान बढ़ा देती हैं, इसके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है। महाभारत युद्ध के समय जब वे हमारे दादा अर्जुन के रथ पर बैठे हुए थे, उस समय जिन योद्धाओं ने उसे देखते-देखते शरीर-त्याग किया; उन्हें सारुप्यमुक्ति मिल गयी। उन्होंने अपना ऐसा अद्भुत श्रीविग्रह किस प्रकार अन्तर्धान किया ? श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि आकाश, पृथ्वी और अन्तरिक्ष में बड़े-बड़े उत्पात—अपशकुन हो रहे हैं, तब उन्होंने सुधर्मा-सभा में उपस्थित सभी यदुवंशियों से यह बात कही— ‘श्रेष्ठ यदुवंशियों! यह देखो, द्वारका में बड़े-बड़े भयंकर उत्पात होने लगे हैं। ये साक्षात् यमराज की ध्वजा के समान हमारे महान् अनिष्ट के सूचक हैं। अब हमें यहाँ घड़ी-दो-घड़ी भी नहीं ठहरना चाहिये । स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े यहाँ से शंखद्धार क्षेत्र में चल जायँ और हम लोग प्रभास क्षेत्र में चलें। आप सब जानते हैं कि वहाँ सरस्वती पश्चिम की ओर बहकर समुद्र में जा मिली हैं । वहाँ हम स्नान करके पवित्र होंगे, उपवास करेंगे और एकाग्रचित्त से स्नान एवं चन्दन आदि सामग्रियों से देवताओं की पूजा करेंगे । वहाँ स्वस्तिवाचन के बाद हमलोग गौ, भूमि, सोना, वस्त्र, हाथी, घोड़े, रथ और घर आदि के द्वारा महात्मा ब्राम्हणों का सत्कार करेंगे । यह विधि सब प्रकार के अमंगलों का नाश करने वाली और परम मंगल की जननी है। श्रेष्ठ यदुवंशियों! देता, ब्राम्हण और गौओं की पूजा ही प्राणियों के जन्म का परम लाभ है’ । परीक्षित्! सभी वृद्ध यदुवंशियों ने भगवान श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर ‘तथास्तु’ कहकर उसका अनुमोदन किया और तुरंत नौकाओं से समुद्र पार करके रथों द्वारा प्रभास क्षेत्र की यात्रा की । वहाँ पहुँचकर यादवों ने यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के आदेशानुसार बड़ी श्रद्धा और भक्ति से शान्ति पाठ आदि तथा और भी सब प्रकार के मंगल कृत्य किये । यह सब तो उन्होंने किया; परन्तु दैव ने उनकी बुद्धि हर ली और वे उस मैरेयक नामक मदिरा का पान करने लगे, जिसके नशे से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। वह पीने में तो अवश्य मीठी लगती है, परन्तु परिणाम में सर्वनाश करने वाली है । उस तीव्र मदिरा के पान से सब-के-सब उन्मत्त हो गये और वे घमंडी वीर एक-दूसरे से लड़ने-झगड़ने लगे। सच पूछो तो श्रीकृष्ण की माया से मूढ़ हो रहे थे । उस समय वे क्रोध से भरकर एक-दूसरे पर आक्रमण करने लगे और धनुष-बाण, तलवार, भाले, गदा, तोमर और ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रों से वहाँ समुद्र तट पर ही एक-दूसरे से भिड गये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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