श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 15-25

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 11:05, 14 July 2015 by नम्रता वार्ष्णेय (talk | contribs) ('== द्वादश स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः (4) == <div style="text-align:center; direction: lt...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

द्वादश स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः (4)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद

राजन्! इसके बाद जल के गुण रस को तेजस्तत्व ग्रस लेता है और जल नीरस होकर तेज में समा जाता है। तदनन्तर वायु तेज के गुण रूप को ग्रस लेता है और तेज रूपरहित होकर वायु में लीन हो जाता है। अब आकाश वायु के गुण स्पर्श को अपने में मिला लेता है और वायु स्पर्शहीन होकर आकाश में शान्त हो जाता है। इसके बाद तामस अहंकार आकाश के गुण शब्द को ग्रस लेता है और आकाश होकर तामस अहंकार में लीन हो जाता है। इसी प्रकार तैजस अहंकार इन्द्रियों को और विकारिक (सात्विक) अहंकार इन्द्रियाधिष्ठातृ देवता और इन्द्रिय वृत्तियों को अपने में लीन कर लेता है । तत्पश्चात् महतत्व अहंकार को और सत्व आदि गुण महतत्व को ग्रस लेते हैं। परीक्षित्! यह सब काल कि महिमा है। उसी की प्रेरणा से अव्यक्त प्रकृति गुणों को ग्रस लेती है और तब केवल प्रकृति-ही-प्रकृति शेष रह जाती है । वही चराचर जगत् का मूल कारण है। वह अव्यक्त, अनादि, अनन्त, नित्य और अविनाशी है। जब वह अपने कार्यों को लीन करके प्रलय के समय साम्यावस्था को प्राप्त हो जाती है, तब काल के अवयव वर्ष, मास, दिन-रात क्षण आदि के कारण उसमें परिणाम, क्षय, वृद्धि आदि किसी प्रकार के विकार नहीं होते । उस समय प्रकृति में स्थूल अथवा सूक्ष्मरूप से वाणी, मन, सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, महतत्व आदि विकार, प्राण, बुद्धि, इन्द्रिय और उनके देवता आदि कुछ नहीं रहते। सृष्टि के समय रहने वाले लोकों की कल्पना और उनकी स्थिति भी नहीं रहती । उस समय स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति—ये तीन अवस्थाएँ नहीं रहतीं। आकाश, जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि और सूर्य भी नहीं रहते। सब कुछ सोये हुए के समान शून्य-सा रहता है। उस अवस्था का तर्क के द्वारा अनुमान करना भी असम्भव है। उस अव्यक्त को ही जगत् का मूलभूत तत्व कहते हैं । इसी अवस्था का नाम ‘प्राकृत प्रलय’ है। उस समय पुरुष और प्रकृति दोनों की शक्तियाँ कल के प्रभाव से क्षीण हो जाती हैं और विवश होकर अपने मूल-स्वरुप में लीन हो जाती हैं । परीक्षित्! (अब आत्यन्तिक प्रलय अर्थात् मोक्ष का स्वरुप बतलाया जाता है।) बुद्धि, इन्द्रिय और उनके विषयों के रूप में उनका अधिष्ठान, ज्ञानस्वरुप वस्तु ही भासित हो रही है। उन सबका तो आदि भी है और अन्त भी। इसलिये वे सब सत्य नहीं हैं। वे दृश्य हैं और अपने अधिष्ठान से भिन्न उनकी सत्ता भी नहीं है। इसलिये वे सर्वथा मिथ्या—मायामात्र है । जैसे दीपक, नेत्र और रूप—ये तीनों तेज से भिन्न नहीं हैं, वैसे ही बुद्धि इन्द्रिय और इनके विषय तन्मात्राएँ भी अपने अधिष्ठान स्वरुप ब्रम्ह से भिन्न नहीं हैं यद्यपि वह इनसे सर्वथा भिन्न हैं; (जैसे रज्जुरूप अधिष्ठान में अध्यस्त सर्प अपने अपने अधिष्ठान से पृथक् नहीं है, परन्तु अध्यस्त सर्प से अधिष्ठान का कोई सम्बन्ध नहीं है) । परीक्षित्! जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—ये तीनों अवस्थाएँ बुद्धि की ही हैं। अतः इनके कारण अन्तरात्मा में जो विश्व, तैजस और प्राज्ञरूप नानात्व की प्रतीति होती है, वह केवल मायामात्र है। बुद्धिगत नानात्व का एकमात्र सत्य आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः