भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-67

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28. गुण-विकास

 
5. समाहितैः कः करणैर् गुणात्मिभर्
गुणो भवेन्मत्सुविविक्त- धाम्नः।
विक्षिप्यमाणैर् उत किं नु दूषणं
घनरूपेतैर् विगतै रवैः किम्।।
अर्थः
जिसने विवेक से मेरा स्वरूप भलीभाँति निश्चित कर लिया है, ऐसे ज्ञानी भक्त के लिए गुणात्मक इंद्रियाँ समाहित (शांत) हुई तो क्या लाभ? या वे क्षुब्ध अथवा चंचल हुईं तो क्या हानि? बादलों के आने से जाने से क्या सूर्य में कुछ फर्क पड़ेगा?
 
6. तथापि संगः परिवर्जनीयो
गुणेषु माया-रचितेषु तावत्।
मद्भक्ति-योगेन दृढ़ेन यावद्
रजो निरस्येत मनः- कषायः।।
अर्थः
ऐसा होने पर भी जब तक मन को दूषित करने वाला रजोगुण मेरे दृढ़ भक्तियोग द्वारा मिटाया न जाए, तब तक मायाजनित गुणों की यानी विषयों की आसक्ति छोड़ ही देनी चाहिए।
 
7. करोति कर्म क्रियते च जन्तुः
केनाप्यसौ चोदित आनिपातात्।
न तत्र विद्वान् प्रकृतौ स्थितोऽपि
निवृत्त-तृष्णः स्वसुखानुभूत्या।।
अर्थः
किसी भी कारण से प्रेरित अज्ञानी जीव देह गिरने तक कर्म करता रहता है और उन कर्मों से विकार-ग्रस्त होता है। लेकिन ज्ञाता पुरुष देह में यानी माया के राज्य में रहते हुए भी कर्म करके विकृत नहीं होता; क्योंकि उसकी तृष्णा मिट जाती है और वह आत्मसुख का अनुभव लेता रहता है।
 
8. तिष्ठन्तमासीनमुत् व्रजन्तं
शयानमुक्षन्तमदन्तमन्नम्।
स्वभावमन्यत् किमपोहमानं
आत्मानमात्मस्थतिर् न वेद।।
अर्थः
आत्मस्वरूप में स्थित पुरुष को यह भान ही नहीं रहता कि देह खड़ी है या बैठी, चल रही है या सो रही है, मल-मूत्र त्याग रही है या भोजन कर रही है अथवा स्वभावानुसार और कोई कर्म कर रही है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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