भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-68

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28. गुण-विकास

 
9. यदि स्म पश्यत्यसदिंद्रियार्थं
नानानुमानेन विरुद्धमन्यत्।
न मन्यते वस्तुतया मनीषी
स्वाप्नं यथोत्थाय तिरोदधानम्।।
अर्थः
स्वप्न से जा जाने पर स्वप्न के विषय नष्ट हो जाते हैं, इसलिए वे मिथ्या हैं, ऐसा हम लोग निश्चित करते हैं। ठीक इसी तरह ज्ञानी पुरुष मिथ्याभूत इंद्रियों के रूपादि विषयों को देखता हुआ भी ‘वे अनेक हैं’ इस अनुमान (हेतु) से उसे (मूल स्वरूप के) विरुद्ध मानकर निश्चित करता है और आत्मा के सिवा जो कुछ भिन्न है, उसे सत्य नहीं मानता।
 
10. पूर्वं गृहीतं गुणकर्मचित्रं
अज्ञानमात्मन्य विविक्तमंग।
निवर्तते तत् पुनरीक्षयैव
न गृह्यते नापि विसृज्य आत्मा।।
अर्थः
उद्धव! गुण और कर्मों के कारण विविध रूपों में भासने वाला अज्ञान आत्मा से भिन्न है, इसका पहले से ज्ञान नहीं रहता; पर विचार से ही उस अज्ञान की निवृत्ति हो जाती है। आत्मा का न तो ग्रहण करना पड़ता है और न त्याग ही। (वह सदैव रहता ही है।)
 
11. यथा हि भानोरुदयो नृ-चक्षुषां
तमो निहन्यान्न तु सद् विधत्ते।
ऐवं समीक्षा निपुणा सती मे
हन्यात् तमिस्रं पुरुषस्यकत बुद्धेः।।
अर्थः
जैसे सूर्य का उदय घट, पट आदि पदार्थों का निर्माण नहीं करता, केवल मनुष्य की आँखों पर का अंधकार हटा देता है, वैसे ही मुझ परमात्मा का पूर्ण निःशंक (श्रुतिसिद्ध) ज्ञान होने पर पुरुष की बुद्धि का अज्ञानांधकार नष्ट हो जाता है। (वह ज्ञान ब्रह्म-वस्तु का निर्माण नहीं करता, वह तो स्वतः सिद्ध रहती ही है।)
 
12. ऐष स्वयं-ज्योतिरजोऽप्रमेयो
महानुभूतिः सकलानुभूतिः।
ऐकोऽद्वितीयो वचसां विरामे
येनेषिता वागसवश् चरन्ति।।
अर्थः
यह आत्मा स्वयं प्रकाश, अजन्मा, अप्रमेय (प्रमाणों से जानने में कठिन) यान अज्ञेय, सारी सृष्टि और समाज के साथ एकरूप ऐसा अनुभव स्वरूप एकमात्र और अद्वितीय है। जहाँ वाणी विरत हो जाती है, ऐसा अवर्णनीय है। उसकी प्रेरणा से ही वाणी और प्राणों के व्यापार चलते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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