भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-69

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 10:41, 9 August 2015 by नवनीत कुमार (talk | contribs) ('<h4 style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">29. भक्ति सारामृत </h4> <poem style="text-alig...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

29. भक्ति सारामृत

 
1. हन्त ते कथयिष्यामि मम धर्मान् सुमंगलान्।
यान् श्रद्धयाऽऽचरन् मर्त्यो मृत्युं जयति दुर्जयम्।।
अर्थः
हे उद्धव! अपना अत्यंत कल्याणकारी भागवत-धर्म तुझे बताता हूँ, सुन। उसका श्रद्धा से आचरण करने पर अत्यंत दुर्जन्य मृत्यु पर मानव विजय पा लेता है।
 
2. कुर्यात् सर्वाणि कर्माणि मदर्थं शनकैः स्मरन्।
मय्यर्पित मनश्चित्तो मदुधर्मात्ममनोरतिः।।
अर्थः
मेरे भागवत्-धर्म में स्वयं रमकर, अपना मन और चित्त मुझे अर्पण कर, सावधानी से मेरा स्मरण करते हुए- सब कर्म मेरे लिए धीरे-धीरे करता जा।
 
3. मामेव सर्वभूतेषु बहिरन्तरपावृतम्।
ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खं अमलाशयः।।
अर्थः
शुद्ध अंतःकरण वाला पुरुष आकाश की तरह बाहर-भीतर आवरण रहित और मुक्त (निरुपाधि) मुझे यानी आत्मा को सब प्राणियों में और अपने हृदय में स्थित देखे।
 
4. ब्रह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्के स्फुलिंग के।
अक्रूरे क्रूरके चैव समदृक् पंडितो मतः।।
अर्थः
ब्राह्मण और अन्त्यज (जाति); चोर और साहु (कर्म); सूर्य और चिनगारी (गुण); कृपालु और क्रूर (स्वभाव)- इन विषम वस्तुओं को जो समदृष्टि से देखता है, उसे ‘पंडित’ कहते हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः