भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-87

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भागवत धर्म मिमांसा

2. भक्त लक्षण

'
(3.8) न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा।
सर्वभूतसमः शांतः स वै भागवतोत्मः।।[1]

जिसके मन में भिदा यानी भेद नहीं, वह उत्तम भक्त है। कौन सा भेद? यह मेरा, यह दूसरे का इस तरह का भेद और ‘यह मेरा धन, वह दूसरे का धन’ यह भेद। इस तरह का भेद भक्त के मन में नहीं रहता। यहाँ भी यही सुझाया है कि आर्थिक विषमता और सामाजिक विषमता मिटनी चाहिए। आर्थिक और सामाजिक आजादी की बात भूदान-ग्रामदान में चलती है। मान लीजिए, आपके पास धन है। दूसरा व्यक्ति उसे चाहता है। वह यदि यह सिद्ध कर दे कि उस धन का आपकी अपेक्षा उसे अधिक उपयोग है, तो उसे तत्काल दे देना चाहिए। धनवान् को समझना चाहिए कि ‘मैं अपनी संपत्ति का मालिक नहीं, ‘ट्रस्टी’ (थातीदार) हूँ।’ मैं आश्रम में था। मेरे पास एक बार एक भाई आए। कहने लगे कि ‘आश्रम में तो समय-समय पर घंटियाँ बजती हैं, आपको घड़ी की उतनी आवश्यकता नहीं, मैं घूमता रहता हूँ, मुझे उसकी आवश्यकता है, इसलिए घड़ी मुझे दीजिए।’ मैंने अपनी घड़ी तुरंत उनको दे दी। कुछ दिनों बाद दूसरे एक भाई ने मेरे पास घड़ी नहीं है, ह देख अपनी कलाई की घड़ी मुझे दे दी। दो-तीन दिनों बाद पहले भाई मुझसे मिलने के लिए आए। उन्होंने मेरे पास नयी घड़ी देखी तो बोलेः ‘आपको इस रिस्ट वाच की क्या आवश्यकता? आप अपनी पुरानी घड़ी रख लीजिए और यह मुझे दे दीजिए। मुसाफिरों में रिस्ट वाच सुविधाजनक रहेगी।’ मैं रिस्ट वाच उनको दे दी और पुरानी घड़ी रख ली। यह मिसाल मैंने इसलिए दी कि भागवत में जो बातें बतायी हैं, वे अव्यावहारिक नहीं है। भगवान् कह रहे हैं कि जिसके मन में मिलकियत की भावना नहीं रहेगी, जो कुछ है वह सबका है, यह भावना रहेगी, जो सब भूतों के विषय में समान व्यवहार करेगा और शांत होगा, वह उत्तम भक्त होगा।

'(3.9) त्रिभुवन – विभव – हेतवे – ऽप्यकुंठ।
स्मृतिरजितात्म-सुरादिभिर् विमृग्यात्।
न चलति भगवत्पदारविंदात्
लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्यः।।[2]

ये सारे लक्षण हैं भगवान् के श्रेष्ठ भक्त के, भगवद्-भक्तश्रेष्ठ के, भक्तोत्म, भागवतोत्तम या वैष्णव-शिरोमणि के। त्रिभुवनविभवहेतवे अपि- त्रिभुवन का वैभव प्राप्त होने पर भी। अकुंठस्मृतिः- जिसकी स्मृति कायम है। प्रायः वैभव में मनुष्य भगवान् का स्मरण भूल जाता है। किंतु श्रेष्ठ भक्त तो जनक महाराज के समान होता है। महान् साम्राज्य प्राप्त होने पर भी उसको भगवत् स्मृति बनी ही रहती है। ऐसा भक्त लवनिमिषार्धमपि- आधा निमिष भी। न चलति भगवत्- पदारविदात्- भगवान् के चरणों से अलग नहीं होता। निमेष और उन्मेष, ये दो शब्द हैं। निमेष का अर्थ है- आँखें बंद करना और उन्मेष है- आँखें खोलना। ऐसे भक्त को आधा निमेष भी भगवत् स्मरण से अलगाव नहीं होता। वह ‘वैष्णवाग्रयः’ यानी वैष्णव-शिरोमणि होता है। तीनों लोकों का आधिपत्य प्राप्त हो जाने पर भी इस वैष्णव-शिरोमणि की भगवत् स्मृति कायम ही रहती है। प्रायः ऐसे समय स्मृति कायम नहीं रह पाती। इसीलिए कुंती ने वर मांगा था :


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.2.52
  2. 11.2.52

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