भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-103

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भागवत धर्म मिमांसा

4. बुद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक

(11.5) देहस्थोऽपि न देहस्थो विद्वान् स्वप्नाद् यथोत्थितः।
अदेहस्थोऽपि देहस्थः कुमतिः स्वप्नदृग् यथा।।[1]

विद्वान् किसे कहा जाए? तो कहते हैं : देहस्थोऽपि न देहस्थो विद्वान् –जो देह में रहते हुए भी देह में नहीं रहता, उससे अलग रहता है, वह विद्वान् है। स्वप्नाद् यथोत्थितः –जैसे स्वप्न से जाग जाने के बाद मनुष्य को स्वप्न का भान नहीं होता। विद्वान् मनुष्य भी देह को स्वप्न ही मानता है। लेकिन अदेहस्थोऽपि देहस्थः कुमतिः –जो अविद्वान् होता है, वह देह में न रहते हुए भी देह में रहता है। देह ढह रही है, मर रही है, फिर भी उसे नहीं छोड़ता। मतलब यह कि यह देह जाएगी, तो दूसरी देह पकड़ेगा। यहाँ के मालिक ने धक्का देकर निकाल दिया, तो दूसरा घर ढूँढ़ेगा। वह खुली हवा से भी घबड़ाता है। बिना देह के उसे चैन ही नहीं। पर विद्वान् देह में रहते हुए भी समझेगा कि ‘इसमें नहीं हूँ, अपने में हूँ।’ लोग बोलते हैं कि हम बिहार में रहते हैं। इतना लम्बा-चौड़ा बिहार, उसमें आपकी क्या गिनती? फिर कहते हैं, हम ‘सिंहभूमि’ जिले में रहते हैं। फिर कहेंगे, हम ‘जमशेदपुर’ में रहते हैं। बाद में कहते हैं, हम घर में रहते हैं। बात तो ठीक है, घर तो है, लेकिन इतने बड़े घर में आप कहाँ रहते हैं? कहते हैं, हम देह में रहते हैं। इस तरह अपने ऊपर ‘बाइंडिंग’ (जिल्द) का एक-एक कवर (वेष्टन) चढ़ाते जाते हैं। किताब पर तो एक ही बाइंडिंग होती है, लेकिन इन पर एक पर एक कई बाइंडिंग चढ़ी होती हैं – देह, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, हृदय! उसके अन्दर परमात्मा है। लेकिन लोग अन्दर रहने के बजाय बाहर ही रहते हैं। ‘कुमति’ यानी अल्प बुद्धि। तुकाराम महाराज ने कहा है :

काज्व्याची ज्योति। तुका म्हणे न लगे वाती।।

‘खद्योत’ (जुगनूँ) की ज्योति है, उससे कोई दिया जलाने जाएगा तो कैसे जलेगा? वह ज्योति केवल देखनेभर की ही है। उससे लोगों को प्रकारश तो मिलता नहीं, फिर भी वह स्वयं खुश है। भगवान् ने थोड़ी-थोड़ी बुद्धि सबको बाँट दी है और बहुत बड़ा हिस्सा अपने पास रख लिया है। जो थोड़ी बुद्धि उसने बाँटी है, उसी से हम सबका काम चल जाता है। हमारा काम है भी कितना? भगवान् के हिसाब से बहुत ही थोड़ा, इसलिए अक्ल भी थोड़ी है। जो थोड़ा हिस्सा हमें मिला है, उसी पर हम सन्तुष्ट हैं। जो मनुष्य स्वप्न में है, वह उस अल्पबुद्धि पर ही सन्तुष्ट है। कुछ लोग तो अपनी विद्या अक्षरों में बताते हैं। एक भाई ने मुझसे कहा कि ‘मैं एम.ए, हूँ।’ वह खुद को बहुत बड़ा विद्वान् मानता है। मैंने उससे कहा :‘केवल एम.ए. से नहीं चलेगा, उसके आगे डी. भी जोड़ दो।’ ऐसी सारी विद्या है। स्वप्न में राजा था, लेकिन जागने पर देखता है तो घर में खाने को भी नहीं है! इसलिए पहचाने की चीज यही है कि मैं देह से अलग हूँ। इन्द्रियों से, मन-बुद्धि से अलग हूँ। ये तो हमारे औजार हैं। जैसे हम घड़ी का इस्तेमाल करते हैं, वैसे ही मन का भी। जैसे हम घड़ी को दुरस्त करते हैं, वैसे ही मन का दोष जानकर उसे भी दुरुस्त कर सकते हैं। किसी ने ‘बेवकूफ’ कहा, तो हमें गुस्सा आता है। वास्तव में गुस्सा आना नहीं चाहिए। वह दोष था बुद्धि का। यदि सचमुच दोष है, तो उसे दुरुस्त करें। दोष नहीं है, तो कह दें कि हमारी बुद्धि निर्दोष है। पहचानना चाहिए कि हम बुद्धि नहीं, हम (आत्मा) हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.11.8

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