भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-108

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भागवत धर्म मिमांसा

4. बुद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक

 
(11.11) यस्य स्युर् वीतसंकल्पाः प्राणेंद्रिय-मनो-धियाम् ।
वृत्तयः स विनिर्मुक्तो देहस्थोऽपि हि तद्गुणैः ।।[1]

मुक्त मनुष्य देह में रहते हुए भी मुक्त रहता है। उसमें प्राण, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि की वृत्तियाँ होती हैं। भूख लगती है। सामान्यजनों के समान उसकी जठराग्नि प्रज्वलित होती है। उसकी आँखें देखती हैं और उनका परिणाम भी होता है। कान सुनते हैं, उनका भी परिणाम होता है। ये सारी वृत्तियाँ मुक्त पुरुष में भी होंगी, लेकिन संलक्परहित होंगी। अपनी वासना का संकल्प उनके साथ जुड़ा हुआ नहीं रहेगा। गीली मिट्टी का गोला या गोबर दीवार पर फेकेंगे, तो वह वहीं चपिक जायेगा। लेकिन गेंद फेकेंगे तो वह नहीं चिपकेगी, वापस आयेगी। ज्ञानी के चित्त पर ये वृत्तियाँ गेंद-जैसी फेंकी जाती हैं। वे वहाँ चिपकती नहीं, वापस आती हैं। चित्त को छूकर भी उस पर टिकती नहीं, गिर जाती हैं। यानी निस्संकल्प वृत्ति होती है। वृत्ति पैदा होगी, लेकिन वह संकल्परहित होगी। हम खाना खायेंगे, तो हमें आनन्द होगा। पर मुक्त पुरुष पेट में भूख है, इसलिए खाना खायेगा। उससे न तो उसका आनन्द बढ़ेगा और न घटेगा ही। आनन्द तो आत्मा में है। आँख से देखा और छोड़ दिया, कान से सुना और छोड़ दिया – मुक्त पुरुष का यही हाल है, क्योंकि सबके लिए उसकी भगवद्‍भावना है। इसलिए मुक्त पुरुष देह रहते हुए भी देह के गुणों से मुक्त ही रहता है। (11.12) यस्यात्मा हिंस्यते हिंस्रैर् येन किंचिद् यदृच्छया । अर्च्यते वा क्वचित् तत्र न व्यतिक्रियते बुधः ।।[2]</poem> मुक्त पुरुष की देह को कोई हिंस्र पशु मारता है –हिंस्यते या कोई अर्च्यते– उसकी पूजा करता है, तो उसके चित्त को विक्रिया नहीं होती। यानी चित्त विचलित नहीं होता। कोई मारे-पीटे तो परवाह नहीं, यह बात समझ में आती है। लेकिन खाने के लिए शेर सामने खड़ा है, फिर भी चित्त विचलित न हो, यह समझ में आना कठिन है। यह तब होगा, जब यह प्रतीति होगी कि देह का कोई कर्तव्य नहीं है। मानव जब सब भूतों में अपने को देखता है, ऐसी स्थिति में यह सध सकता है। तब वह मुक्त पुरुष शेर की हिंसक प्रेरणा ही खतम कर देगा। मुक्त पुरुष की आँखें निर्मल होंगी, करुणा से भरी होंगी। आन्द्रोक्लीज और शेर की कहानी प्रसिद्ध ही है। आन्द्रोक्लीज ने शेर पर उपकार किया था, तो शेर ने उसका स्मरण रखा। उपकार का स्मरण कर हिंस्र पशु मृदु बनता है, यह तो ठीक है। लेकिन मुक्त पुरुष इतना करुणावान् होता है कि उसे देखते ही शेर नम्र बनता है। यह समझ सकते हैं कि शेर भूखा है, सामने आकर खड़ा है, हमें भागने के लिए मौका नहीं है, तो नाम-स्मरण करते हुए हम मर जाएँ। यह हो सकता है, लेकिन उस स्थिति में भी चित्त में विकार नहीं। यह तभी होगा, जब देह का कर्तव्य शेष नहीं रहा – ऐसा भान हो। इसलिए चित्त को जितना निर्विकार कर सकते हैं, करें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.11.14
  2. 11.11.16

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