भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-120

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भागवत धर्म मिमांसा

6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति

ऐतिह्य यानी इतिहास अर्थात् अनुभव। यहाँ इतिहास को प्रमाण माना है। इतिहास का अर्थ क्या है? साबरमती-आश्रम में एक बिलकुल अनपढ़ बहन थीं। बापू ने उनसे कहा : ‘आप आश्रम की पाठशाला में शिक्षिका बनिये।’ वे कहने लगीं : ‘मैं क्या सिखाऊँगी?’ बापू ने कहा : ‘आप बूढ़ी हैं, ये सब बच्चे हैं, तो इन्हें इतिहास सिखाइये।’ वे हँसने लगीं और बोलीं : ‘मैं इतिहास तो जानती नहीं।’ बापू ने कहा : ‘बाबर कब जन्मा और कब मरा, इस जानकारी की इन बच्चों को कोई जरूरत नहीं। अपने अनुभव सुनाइये।’ अपनी पीढ़ी का इतिहास आज की पीढ़ी को सिखाना ही इतिहास सिखाना है। जो पुश्त-दरपुश्त चला आ रहा है, वही इतिहास है। इतिहास यानी अनुभव-ज्ञान। अनुमान यानी अनुमनन। एक चीज देखी, तो उसका अनुमनन करना चाहिए। ये चार प्रमाण हैं। नाना प्रकार के विषय-भोग मानव को आकृष्ट करते हैं। वे प्रमाण पर टिकते नहीं। लोग कहते हैं कि हमारा सारा जीवन विषय-भोग के लिए ही चल रहा है। एक बूढ़े भाई कह रहे थे कि ‘बचपन में हम दूध पीते थे।’ मैंने कहा : ‘अब बचपन का दूध कहाँ? अब तो हड्डियाँ दीख रही हैं।’ बचपन में पिया दूध बुढ़ापे में नहीं टिकता। प्रमाणेषु अनवस्थानात् – प्रमाणों में वह टिकता नहीं। प्रमाणों की कैंची चलने के बाद जो चीज टिकेगी, वही सत्य है। प्रमाणों में भोग की हस्ती टिकती नहीं। इसलिए सः विकल्पात् विरज्यते – भक्त इन विकल्पों से विरक्त हो जाता है। भोग विकल्प हैं, कल्पनामात्र हैं। वैराग्य कैसे प्राप्त होता है, यह विषय यहाँ चल रहा है। अनेक भोगों की आसक्ति मुझे क्यों होनी चाहिए? कश्मीर की पदयात्रा की बात है। मैं पहाड़ चढ़ता था तो दृष्टि एकाग्र रखकर चढ़ता था। हमारे साथी कहा करते कि ‘देखिये, कैसा सुन्दर दृश्य है!’ लेकिन मैं अपनी आँख इधर-उधर घुमाये बिना चलता था। इसलिए मैं बिलकुल निर्भयता से चलता था। काफी ऊँचाई पर हमें जाना था। एकाग्रता के साथ चलता था, इसीलिए मैं बचा। सौन्दर्य देखने लगता तो गिर जाता। जिसे ‘सौन्दर्य’ कहते हैं, वह आँखों के कारण पैदा हुआ है। यह विकल्प है, यह जानकर ज्ञानी पुरुष विरक्त होता है। यह सारा कहने में केवल भावना ही नहीं, प्रमाण भी बताया है। प्रमाण से सिद्ध किया कि जो चीज टिकती नहीं, उसके लिए हम क्यों लट्टू हों? हमारा घर बड़ौदा में था। मैं बच्चा था। एक बार शहर में एक जगह रोशनी थी। काफी लोग देखने के लिए जा रहे थे। पिताजी ने मुझे कहा : ‘तुम्हें भी जाना हो तो जाओ।’ मैंने उनसे पूछा : ‘आप नहीं जाएँगे?’ उन्होंने समझाया : ‘एक मिट्टी का दिया लिया, उसके पास दूसरा रखा, उसके पास तीसरा रखा। इसी तरह एक के बाद एक सैकडों बत्तियाँ लगायीं, उसमें देखने की क्या बात है?’ मुझे यह बात एकदम जँच गयी। आकाश में कौए उड़ते हैं। उनकी तरह-तरह की आकृतियाँ बनती हैं। हम कहते हैं : ‘कितना सुन्दर!’ वैसे देखा जाए तो वहाँ सुन्दर क्या है? आपने एक काल्पनिक लकीर बनाकर उस पर सुन्दरता का आरोपण कर दिया। कौओं से पूछें कि क्या तुमने यह आकृति बनायी? तो वे कहेंगे : ‘हम तो सिर्फ उड़ रहे थे।’ इसीलिए ज्ञानी – विकल्पात् विरज्यते।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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