भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-124

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 07:07, 13 August 2015 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (1 अवतरण)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

भागवत धर्म मिमांसा

6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति

 
(19.13) एवं धर्मैर् मनुष्याणां उद्धवात्मनिवेदिनाम् ।
मयि संजायते भक्तिः कोऽन्योऽर्थोस्यावशिष्यते ।।[1]

हे उद्धव! एवं धर्मैः – ऐसे धर्मों से। अभी तक जिन गुणों का वर्णऩ किया, अब उन्हें ‘धर्म’ नाम दिया : भागवत-धर्मः – ऐसे भागवत धर्म से। आत्म-निवेदिनां मनुष्याणाम् – आत्मनिवेदन करनेवाले मनुष्यों में। भक्तिः संजायते – भक्ति पैदा होती है। भक्ति पैदा होने पर क्या किया जाए, यह तो भक्त जानता ही है। जो कुछ करना होता है, वह भक्ति पैदा होने के पहले ही है। आत्म-निवेदन यानी अपना सारा खोलकर रख देना – कोई चीज छिपाकर न रखना। फिर आश्वासन देते हैं कि उनके लिए और कोई अर्थ प्राप्त करना बाकी नहीं रहेगा – कः अन्यः अर्थः अस्य अवशिष्यते? भक्ति यानी रत्नचिन्तामणि। भक्त को यदि वह सध जाए, तो उसे सब कुछ प्राप्त हो गया। उसके अलावा और कोई वस्तु प्राप्तव्य हो, तो उसकी चिन्ता भगवान् स्वयं करेंगे। (19.14) यदात्मन्यर्पितं चित्तं शांतं सत्त्वोपबृंहितम् । धर्मं ज्ञानं स-वैराग्यं ऐश्वर्यं चाभिपद्यते ।।[2]</poem> यदा आत्मनि अर्पितं चित्तम् – जब चित्त अन्दर अपनी आत्मा को अर्पित किया जाता है। तो आज तो आपका चित्त आत्मा को नहीं, दुनिया को अर्पित है। ‘आओ जाओ, घर तुम्हारा!’ आपके चित्त में कोई भी विचार आ सकता है, पैठ सकता है। यानी अभिक्रम आपके नहीं, दुनिया के हाथ में होगा। पर समझना चाहिए कि दुनियाभर की चीजें हमारे हाथ में नहीं। जो हमारे हाथ की चीज है – अपना चित्त, वह तो हमने खो दिया और जो हाथ की चीज नहीं, उसे लेने बैठते हैं। फिर शान्ति कहाँ? जब चित्त आत्मा को अर्पण होगा, तभी वह शान्त हो सकेगा। चित्त शान्त होने के बाद क्या होगा? सत्त्वोपबृंहितम्– सत्वगुण का परिपोष होगा। ‘बृंहण’ यानी पोषण। यह वैद्यशास्त्र का शब्द है। प्राकृतिक चिकित्सा वाले लंघन ही करवाते हैं। लेकिन वैद्य लंघन भी करवाते हैं और ‘बृंहण’ भी। भगवान् ने कहा है, सत्वगुण से परिपुष्ट चित्त तब बनता है, जब वह आत्मा को अर्पित होता है। फिर क्या मिलता है? धर्मं ज्ञानं स-वैराग्यम् ऐश्वर्यं च अभिपद्यते – वह धर्म, ज्ञान और वैराग्य के साथ ऐश्वर्य भी प्राप्त करता है। वैराग्य के साथ ऐश्वर्य, जनक महाराज के समान! हिन्दुस्तान के इतिहास में जिस समय अधिक-से-अधिक वैराग्य था, उस समय अधिक-से-अधिक ऐश्वर्य भी था। अपने यहाँ प्राचीनकाल से दो आदर्श माने गये हैं। एक शुकदेव का और दूसरा जनक महाराज का। शुकदेव यानी ‘अन्तस्त्यागी और बहिःसंगी।’ वसिष्ठ ने राम को उपदेश दिया था : अन्तस्त्यागी बहिःसंगी लोके विचर राघव । एक ओर से शुकदेव, तो दूसरी ओर से जनक! एक तरफ शिव, तो दूसरी तरफ विष्णु! शिव वैराग्यसम्पन्न हैं – अंदर और बाहर से, तो विष्णु बाहर से ऐश्वर्य-संपन्न, लेकिन अन्दर से अनासक्त। हमने ‘साम्यसूत्र’ लिखा है : शुक-जनकयोरेकः पन्थाः – शुक और जनक का एक ही मार्ग है। समझाया यह गया कि जो अपना चित्त ईश्वर को अर्पण करेगा, उसके चित्त को शान्ति मिलेगी, वह सत्वगुण से परिपुष्ट होगा और उसे धर्म-ज्ञान-वैराग्य के साथ ऐश्वर्य भी मिलेगा। यह सारा भक्ति से ही होता है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.19.24
  2. 11.19.25

संबंधित लेख

-


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः