भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-134

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भागवत धर्म मिमांसा

8. संसार-प्रवाह

(22.1) मनः कर्म-मयं नृणां इंद्रियैः पंचभिर् युतम् ।
लोकाल्लोकं प्रयात्यन्य आत्मा तदनुवर्तते ।।[1]

मरने के बाद मनुष्य एक लोक से दूसरे लोक में जाता है। लोकात् लोकं प्रयाति – एक लोक को छोड़कर अन्य लोक में प्रयाण करता है, यानी चला जाता है। ‘प्रयाति’ यानी प्रयाण करना। मन अकेला नहीं जाता। अपने साथ और भी कुछ लेकर जाता है। कह रहे हैं कि मन कर्म को लेकर जाता है और पाँच इन्द्रियों को लेकर जाता है। कोई कहेगा : ‘मरने के बाद इन्द्रियाँ तो जैसी-की-तैसी देह के साथ जुड़ी रहती हैं। देह के साथ ही आँख, कान, नाक – सारी इन्द्रियाँ चलायी जाती हैं। मन के साथ तो इन्द्रियाँ जाती नहीं!’ लेकिन बात ऐसी नहीं है। हम इन्द्रियों को नहीं जलाते। हम जलाते हैं, देह को। मरने के बाद आँखें तो रहत हैं, पर दर्शन-शक्ति नहीं रहती, दर्शन की वासना नहीं रहती। कान हैं, लेकिन कान की शक्ति नहीं, श्रवण की वासना नहीं। मन के कारण वासना रहती है और प्राण के कारण शक्ति। सुनने और देखने की वासना लेकर मन जाता है। फिर कर्म क्या चीज है? कर्म का फल भोगना पड़ेगा। यह संसार-प्रवाह का अध्याय है। संसार यानी बहाव। संसार सतत् बह रहा है। ‘संसरण्म्’ यानी बहाव। कर्म और इन्द्रियों के साथ मन कहाँ-से-कहा जाता है? ते कहते हैं : ‘लोकात् लोकम् ।’ आत्मा क्या करता है? आत्मा बिलकुल अलग है – अन्यः । आत्मा तदनुवर्तते – आत्मा मन के पीछे-पीछे जाता है। आत्मा यानी जीवात्मा। ‘कुरान’ में इसे ‘रूह’ कहा है। मुहम्मद पैगम्बर से पूछा गया : ‘क्या तुम रूह जानते हो?’ तो उन्होंने उत्तर दिया : ‘यदि मैं जानता, तो कुल दुनिया पर मेरी सत्ता चलती।’ इसका अर्थ है कि जीव-विषय हमारे हाथ में नहीं। यह बात सही है।

(22.2) नित्यदा ह्यंग! भूतानि भवन्ति न भवन्ति च ।
कालेनालक्ष्य-वेगेन सूक्ष्मत्वात् तत्र दृश्यते ।।[2]

अंग संबोधन जैसा दीखता है, लेकिन यह संबोधन नहीं, अव्यय है। अरे! ये प्राणी सतत् प्रकट होते और लुप्त हो जाते हैं – भूतानि भवन्ति न भवन्ति च । अभी हम यहाँ बैठे हैं। घण्टेभर बैठे ही रहेंगे यानी हम कायम रहेंगे। लेकिन भागवत कहती है कि ऐसी बात नहीं। मनुष्य प्रतिक्षण मरता और पैदा होता है। मरने और पैदा होने की यह क्रिया अतिशय वेग से चल रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जिसे हम निद्रा कहते हैं, उसमें भी एक क्षण निद्रा रहती है और दूसरे क्षण जागृति। इसी तरह जिसे जागृति कहते हैं, उसमें एक क्षण जागृति तो दूसरे क्षण निद्रा रहती है। निद्रा में निद्रा के क्षण अधिक होते हैं, इसलिए उसे ‘निद्रा’ कहते हैं और जागृति में अधिक क्षण जागृति रहती है, इसलिए उसे ‘जागृति’ कहते हैं। इसी तरह भागवत कहती है कि प्रत्येक वाणी प्रतिक्षण मरता और जन्म पाता है। पर यह क्रिया समझ में नहीं आती, क्योंकि यह सूक्ष्म है और काल का वेग है तीव्र – कालेन अलक्ष्य-वेगेन सूक्ष्मत्वात्। इसलिए हमें भास नहीं होता कि प्राणि प्रतिक्षण मरता और पैदा होता है। इसी का अधिक स्पष्टीकरण आगे के श्लोक में किया जाता है :


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.22.36
  2. 11.22.42

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