भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-6

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3.प्रमुख टीकाकार

ब्रह्म का वर्णन केवल उसके अस्तित्व के रूप में ही किया जा सकता है, क्योंकि वह सब विशेषणों से परे है; विशेष रूप से कर्ता, कर्म और ज्ञान की क्रिया के सब भेदों से ऊपर है। इसलिए उसे व्यक्ति-रूप में नहीं माना जा सकता और उसके प्रति कोई प्रेम या श्रद्धा नहीं की जा सकती। शंकराचार्य का मत है कि जहां मन को शुद्ध करने के लिए साधन के रूप में कर्म अत्यन्त आवश्यक है, वहां ज्ञान प्राप्त हो जाने पर कर्म दूर छूट जाता है। ज्ञान और कर्म एक-दूसरे के ठीक वैसे ही विरोधी हैं, जैसे प्रकाश और अन्धकार।[1] वह ज्ञान-कर्मसमुच्चय[2] के दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करता। उसका विश्वास है कि वैदिक विधियां केवल उन लोगों के लिए हैं, जो अज्ञान और लालसा में डूबे हुए हैं।[3] मुक्ति के अभिलाषियों को कर्मकाण्ड की विधियों का परित्याग कर देना चाहिए। शंकराचार्य के मतानुसार, गीता का उद्देश्य इस बाह्म (नाम-रूपमय) संसार[4] का पूर्ण दमन है, जिसमें कि सारा कर्म होता है, यद्यपि शंकराचार्य का अपना जीवन ज्ञान-प्राप्ति के बाद भी कर्म करते जाने का उदाहरण है।
शंकराचार्य के दृष्टिकोण का विकास आनन्दगिरि ने, जो सम्भवतः तेरहवीं शताब्दी में हुए, श्रीधर (ईसवी सन् 1400) ने और मधुसूदन (सोलहवीं शताब्दी) ने तथा अन्य कुछ लेखकों ने किया। महाराष्ट्रीय सन्त तुकाराम और ज्ञानेश्वर महान् भक्त थे, यद्यपि अधिविद्या में उन्होंने शंकराचार्य के मत को स्वीकार किया। रामानुजन (ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी) ने अपनी टीका में संसार की अवास्तविकता और कर्म-त्याग के मार्ग के सिद्धान्त का खण्डन किया। उसने यामुनाचार्य द्वारा अपने ‘गीतार्थसंग्रह’ में प्रतिपादित व्याख्या का अनुसरण किया। ब्रह्म सर्वोच्च वास्तविकता, आत्मा है। परन्तु वह निर्गुण नहीं है। उसमें आत्मचेतना है और अपना ज्ञान भी है, और संसार के सृजन की और अपने जीवों को मुक्ति प्रदान करने की सचेत इच्छा भी उसमें है। सब आदर्श गुणों, असीम और अनन्त गुणों का वह आधार है। वह सारे संसार से पहले और सारे संसार से ऊपर है। उस जैसा दूसरा कोई नहीं है। वैदिक देवता उसके सेवक हैं, जिन्हें कि उसने बनाया है और उनके नियम कर्तव्यों को पूरा करने के लिए उन-उनके स्थानों पर उन्हें नियुक्त किया है। संसार कोई माया या भ्रम नहीं है, बल्कि सत्य और वास्तविक है। संसार और परमात्मा ठीक वैसे ही एक हैं, जैसे शरीर और आत्मा एक हैं। वे समूचे रूप में एक हैं, परन्तु साथ ही अपरिवर्तनीय रूप से परस्पर भिन्न भी हैं। सृष्टि से पहले संसार एक सम्भावित (गर्भित या अव्यक्त) रूप में रहता है, जो इस समय विद्यमान और विभिन्न प्रकट रूपों में विकसित नहीं हुआ होता। सृष्टि होने पर यह नाम और रूप में विकसित हो जाता है। संसार को परमात्मा का शरीर बताकर यह सुझाव प्रस्तुत किया गया है कि संसार किसी विजातीय तत्व से, जो दूसरा मूल तत्व हो, बना हुआ नहीं है, अपितु इसे भगवान् ने स्वयं अपनी प्रकृति में से ही उत्पन्न किया हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 4, 37; 4, 33
  2. तस्माद् गीतासु केवलादेव तत्वज्ञानान्मोक्ष प्राप्तिः, न कर्मसमुच्चितात्। भगवद्गीता की शंकराचार्य की टीका, 2, 11। भले ही कर्ममुक्ति का तात्कालिक कारण न भी हो, तो भी यह रक्षा करने वाले ज्ञान को प्राप्त करने का एक आवश्यक साधन है। शंकराचार्य ने इसे स्वीकार किया हैः “कर्मनिष्ठया ज्ञाननिष्ठा प्राप्ति हेतुत्वेन पुरूषार्थहेतुत्वं न स्वातंत्र्येण
  3. अविद्याकामवत् एव सर्वाणि श्रैतादीनि दर्शितानि
  4. गीताशास्‍त्रस्‍य प्रयोजनं परं नि श्रेयसम् सहेतुकस्‍य संसारस्‍य अत्‍यन्‍तोपरामलक्षणम्। भगवाद्गीता पर शंकराचार्य की टीका की भूमिका।

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