भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-21

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5.गुरू कृष्ण

यद्यपि प्रत्येक चेतन सत्ता इस प्रकार का अवतरण है, परन्तु वह केवल एक आच्छादित प्रकटन है। ब्रह्म की आत्मचेतन सत्ता और उसी की अज्ञान से आवृत्त सत्ता में अन्तर है। अवतरण या अवतार का तथ्य इस बात का द्योतक है कि ब्रह्म का एक पूर्ण सप्राण और शारीरिक प्रकटन से विरोध नहीं है। यह सम्भव है कि हम भौतिक शरीर में जी रहे हों और फिर भी हममें चेतना का पूर्ण सत्य विद्यमान हो। मानवीय प्रकृति कोई बेड़ी नहीं है, अपितु यह दिव्य जीवन का एक उपकरण बन सकती है। हम सामान्य मत्‍ये लोगों के लिए जीवन और शरीर-अभिव्यक्ति के अज्ञानपूर्ण, अपूर्ण और अक्षम साधन होते हैं, परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वे सदा ऐसे ही हों। दिव्य चेतना इनका उपयोग अपने प्रयोजन के लिए करती है, जब कि अस्वतन्त्र मानवीय चेतना का शरीर, प्राण और मन की शक्तियों पर ऐसा पूर्ण नियन्त्रण नहीं रहता। यद्यपि गीता अवतार में इस विश्वास को स्वीकार करती है कि ब्रह्म संसार में किसी प्रयोजन को पूरा करने के लिए अपने-आप को सीमित कर देता है और तब भी उसके उस सीमित शरीर में पूर्ण ज्ञान विद्यमान रहता है; साथ ही वह शाश्वत अवतार पर भी बल देती है, अर्थात् कि परमात्मा मनुष्य में विद्यमान रहता है, दिव्य चेतना मानव-प्राणी में सदैव विद्यमान रहती है। ये दो दृष्टिकोण ब्रह्म के अनुभवातीत और अन्‍तर्व्‍यापी पहलुओं के द्योतक हैं और ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं समझे जा सकते। गुरू कृष्ण, जो मानव-जाति के आध्यात्मिक प्रबोधन में रुचि ले रहा है, अपने अन्दर विद्यमान ब्रह्म की गहराई में से बोल रहा है। कृष्ण का अवतार हमारे अन्दर विद्यमान आत्मा के प्रकटन का, अन्धकार में छिपे हुए ब्रह्म के प्रकाशन का एक उदाहरण है।
भागवत के अनुसार [1], “मध्य रात्रि में, जब कि घने से घना अन्धकार था, घट-घटव्यापी भगवान् ने अपने-आप को दिव्य देवकी में प्रकट किया, क्योंकि भगवान् सब प्राणियों के हृदय में स्वयं छिपा हुआ है।”[2]उज्ज्वल प्रकाश काली से काली रात में प्रकट होता है। रहस्यों और प्रकाशनों की दृष्टि से रात बहुत समृद्ध है। रात्रि की उपस्थिति प्रकाश की उपस्थिति को कम वास्तविक नहीं बना देती। सच तो यह है कि यदि रात न हो, तो मनुष्य को प्रकाश की अनुभूति ही न हो। कृष्ण के जन्म का अर्थ है—अन्धकारमयी रात्रि में विमोचन (उद्धार) का तथ्य। कष्ट और दासत्व के क्षणों में विश्व के उद्धारकर्ता का जन्म होता है। कृष्ण का जन्म वासुदेव और देवकी से हुआ कहा जाता है। जब हमारी सत्त्व प्रकृति शुद्ध हो जाती है,[3]जब ज्ञान के दर्पण से वासनाओं की धूल को हटाकर उसे स्वच्छ कर दिया जाता है, तब विशुद्ध चेतना का प्रकाश उसमें प्रतिबिम्बित होता है। जब सब कुछ नष्ट हो गया प्रतीत होता है, तब आकाश से प्रकाश फूट पड़ता है और वह हमारे मानवीय जीवन को इतना समृद्ध कर देता है कि उसे शब्दों द्वारा कहकर नहीं बताया जा सकता। सहसा एक चमक होती है; हमें आन्तरिक आलोक प्राप्त होता है और जीवन बिलकुल नया और ताज़ा दिखाई पड़ने लगता है। जब हमारे अन्दर ब्रह्म का जन्म होता है, तब हमारी आँखों से केंचुली उतर जाती है और कारागार के द्वार खुल जाते हैं। भगवान् प्रत्येक प्राणी के हृदय में निवास करता है और जब उस गुप्त निवास स्थान का पर्दा फट जाता है, तब हमें दिव्य नाद सुनाई पड़ता है, दिव्य प्रकाश प्राप्त होता है और हम दिव्य शक्ति से कार्य करने लगते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. निशीथे तु तमोद्भूते जायमाने जनार्दने, देवक्यां देवरूपण्यिां विष्णुः सर्वगुहाशयः...। वसुदेवगृहे साक्षाद् भगवान् पुरुषः परः जनिष्यते। --भागवत 11, 23
  2. 10, 20; 18, 61
  3. सत्त्वं विशुद्धं वसुदेवशब्दितम्। भागवत्। देवकी दैवी प्रकृति है, दिव्य प्रकृति।

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