श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 30 श्लोक 42-50

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एकादश स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः (30)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः श्लोक 42-50 का हिन्दी अनुवाद


दारुक ने वहाँ जाकर देखा कि भगवान श्रीकृष्ण पीपल के वृक्ष के नीचे आसन लगाये बैठे हैं। असह्य तेज वाले आयुध मुर्तिमान् होकर उनकी सेवा में संलग्न हैं। उन्हें देखकर दारुक के हृदय में प्रेम की बाढ़ आ गयी। नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी। वह रथ से कूदकर भगवान के चरणों पर गिर पड़ा । उसने भगवान से प्रार्थना की—‘प्रभो! रात्रि के समय चन्द्रमा के अस्त हो जाने पर राह चलने वाले की जैसी दशा हो जाती है, आपके चरणकमलों का दर्शन न पाकर में भी वैसी ही दशा हो गयी है। मेरी दृष्टि नष्ट हो गयी है, चारों ओर अँधेरा छा गया है। अब न तो मुझे दिशाओं का ज्ञान है और न मेरे हृदय में शान्ति ही है’ । परीक्षित्! अभी दारुक इस प्रकार कह ही रहा था कि उसके सामने ही भगवान का गरुड़ ध्वज रथ पताका और घोड़ों के साथ आकाश में उड़ गया । उसके पीछे-पीछे भगवान के दिव्य आयुध भी चले गये। यह सब देखकर दारुक के आश्चर्य की सीमा न रही। तब भगवान ने उससे कहा— ‘दारुक! अब तुम द्वारका चले जाओ और वहाँ यदुवंशियों के पारस्परिक संहार, भैया बलरामजी की परम गति और मेरे स्वधाम-गमन की बात कहो’ । उनसे कहना कि ‘अब तुम लोगों को अपने परिवार वालों के साथ द्वारका में नहीं रहना चाहिये। मेरे न रहने पर समुद्र उस नगरी को डुबो देगा । सब लोग अपनी-अपनी धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब और मेरे माता-पिता को लेकर अर्जुन के संरक्षण में इन्द्रप्रस्थ चले जायँ । दारुक! तुम मेरे द्वारा उपदिष्ट भागवत धर्म का आश्रय लो और ज्ञाननिष्ठ होकर सबकी उपेक्षा कर दो तथा इस दृश्य को मेरी माया की रचना समझकर शान्त हो जाओ’ । भगवान का यह आदेश पाकर दारुक ने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणकमल अपने सिर पर रखकर बारम्बार प्रणाम किया। तदनन्तर वह उदास मन से द्वारका के लिये चल पड़ा ।



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