श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 50 श्लोक 17-25

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 09:53, 24 February 2017 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replacement - "ह्रदय" to "हृदय")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

दशम स्कन्ध: पञ्चाशत्तमोऽध्यायः (50) (उत्तरार्धः))

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चाशत्तमोऽध्यायः श्लोक 17-25 का हिन्दी अनुवाद

उनके शंख की भयंकर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्ष की सेना के वीरों का हृदय डर के मारे थर्रा उठा। उन्हें देखकर मगधराज जरासन्ध ने कहा—‘पुरुषधाम श्रीकृष्ण! तू तो अभी निरा बच्चा है। अकेले तेरे साथ लड़ने में मुझे लाज लग रही है। इतने दिनों तक तू न जाने कहाँ-कहाँ छिपा फिरता था। मन्द! तू तो अपने मामा का हत्यारा है। इसलिये मैं तेरे साथ नहीं लड़ सकता। जा, मेरे सामने से भाग जा । बलराम! यदि तेरे चित्त में यह श्रद्धा हो कि युद्ध में मरने पर स्वर्ग मिलता है तो तू आ, हिम्मत बाँधकर मुझसे लड़। मेरे बाणों से छिन्न-भिन्न हुए शरीर को यहाँ छोड़कर स्वर्ग में जा अथवा यदि तुझमें शक्ति हो तो मुझे मार डाल’ ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—मगधराज! जो शूरवीर होते हैं, वे तुम्हारी तरह डींगे नहीं हाँकते, वे तो अपना बल-पौरुष ही दिखलाते हैं। देखो, अब तुम्हारी मृत्यु तुम्हारे सिर पर नाच रही है। तुम वैसे ही अक बक कर रह हो, जैसे मरने के समय कोई सन्निपात का रोगी करे। बक लो, मैं तुम्हारी बात पर ध्यान नहीं देता ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जैसे वायु बादलों से सूर्य को और धुएँ से आग को ढक लेती है, किन्तु वास्तव में वे ढकते नहीं, उनका प्रकाश फिर फैलता ही है; वैसे ही मगधराज जरासन्ध ने भगवान श्रीकृष्ण और बलराम के सामने आकर अपनी बहुत बड़ी बलवान् और अपार सेना के द्वारा उन्हें चारों ओर से घेर लिया—यहाँ तक कि उनकी सेना, रथ, ध्वजा, घोड़ों और सारथियों का दीखना भी बंद हो गया । मथुरापुरी की स्त्रियाँ और महलों की अटारियों, छज्जों और फाटकों पर चढ़कर युद्ध का कौतुक देख रही थीं। जब उन्होंने देखा कि युद्धभूमि में भगवान श्रीकृष्ण की गरुड़चिन्ह से चिन्हित और बलरामजी की तालचिन्ह से चिन्हित ध्वजावाले रथ नहीं दीख रहे हैं, तब वे शोक के आवेग से मुर्च्छित हो गयीं । जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि शत्रु-सेना के वीर हमारी सेना पर इस प्रकार बाणों की वर्षा कर रहे हैं, मानो बादल पानी की अनगिनत बूँदें बरसा रहे हों और हमारी सेना उससे अत्यन्त पीड़ित, व्यथित हो रही है; तब उन्होंने अपने देवता और असुर—दोनों से सम्मानित सारंगधनुष का टंकार किया । इसके बाद वे तरकस में से बाण निकालने, उन्हें धनुष पर चढ़ाने और धनुष की डोरी खींचकर झुंड-के-झुंड बाण छोड़ने लगे। उस समय उनका वह धनुष इतनी फुर्ती से घूम रहा था, मानो कोई बड़े वेग से अलातचक्र (लुकारी) घुमा रहा हो। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण जरासन्ध की चतुरंगिणी—हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना का संहार करने लगे । इससे बहुत-से हाथियों के सिर फट गये और वे मर-मरकर गिरने लगे। बाणों की बौछार से अनेकों घोड़ो के सिर धड़ से अलग हो गये। घोड़े, ध्वजा, सारथि और रथियों के नष्ट हो जाने से बहुत-से रथ बेकाम हो गये। पैदल सेना की बाँहें, जाँघ और सिर आदि अंग-प्रत्यंग कट-कटकर गिर पड़े ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः