श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 15-30

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दशम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्यायः (24) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्यायः श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद

जब सब प्राणी अपने-अपने कर्मों कही फल भोग रहे हैं, तब हमें इन्द्र की क्या आवश्यकता है ? पिताजी! जब वे पूर्वसंस्कार के अनुसार प्राप्त होने वाले मनुष्यों के कर्म-फल को बादल ही नहीं सकते—तब उनसे प्रयोजन ? मनुष्य अपने स्वभाव (पूर्व-संस्कारों) के अधीन है। वह उसी का अनुसरण करता है। यहाँ तक कि देवता, असुर, मनुष्य आदि को लिये हुए यह सारा जगत् स्वभाव में ही स्थित है । जीव अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और अधम शरीरों को ग्रहण करता और छोड़ता रहता है। अपने कर्मों के अनुसार ही ‘यह शत्रु है, यह मित्र है, यह उदासीन है’—ऐसा व्यवहार करता है। कहाँ तक कहूँ, कर्म ही गुरु है और कर्म ही ईश्वर । इसलिये पिताजी! मनुष्य को चाहिये कि पूर्व-संस्कारों के अनुसार अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुकूल धर्मों का पालन करता हुआ कर्म का ही आदर करे। जिसके द्वारा मनुष्य की जीविका सुगमता से चलती है, वही उसका इष्टदेव होता है । जैसे अपने विवाहित पति को छोड़कर जार पति का सेवन करने वाली व्यभिचारिणी स्त्री कभी शान्तिलाभ नहीं करती, वैसे ही जो मनुष्य अपनी आजीविका चलानेवाले एक देवता को छोड़कर किसी दूसरे की उपासना करते हैं, उससे उन्हें कभी सुख नहीं मिलता ॥ ब्राम्हण वेदों के अध्ययन-अध्यापन से, क्षत्रिय पृथ्वीपालन से, वैश्य वार्तावृति से और शूद्र ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा से अपनी जीविक का निर्वाह करें । वैश्यों की वार्तावृत्ति चार प्रकार की है—कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा और ब्याज लेना। हम लोग उन चारों में से एक केवल गोपालन ही सदा से करते आये हैं । पिताजी! इस संसार स्थिति, उत्पत्ति और अन्त में के कारण क्रमशः सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण हैं। यह विविध प्रकार का सम्पूर्ण जगत् स्त्री-पुरुष के सयोग से रजोगुण के द्वारा उत्पन्न होता है । उसी रजोगुण की प्रेरणा से मेघगण सब कहीं जल बरसाते हैं। उसी से अन्न और अन्न से ही सब जीवों की जीविका चलती है। इसमें भला इन्द्र का क्या लेना-देना है ? वह भला, क्या कर सकता है ?

पिताजी! न तो हमारे पास किसी देश का राज्य है और न तो बड़े-बड़े नगर ही हमारे अधीन हैं। हमारे पास गाँव या घर भी नहीं हैं। हम तो सदा के वनवासी हैं, वन और पहाड़ ही हमारे घर हैं । इसलिये हमलोग गौओं, ब्राम्हणों और गिरिराज का यजन करने की तैयारी करें। इन्द्र-यज्ञ के लिये जो सामग्रियाँ इकट्ठी की गयी हैं, उन्हीं से इस यज्ञ का अनुष्ठान होने होने दें । अनेकों प्रकार के पकवान—खीर, हलवा, पुआ, पूरी आदि से लेकर मूँग की दाल तक बनाये जायँ। व्रज का सारा दूध एकत्र कर लिया जाय । वेदवादी ब्राम्हणों के द्वारा भलीभाँति हवन करवाया जाय तथा उन्हें अनेकों प्रकार के अन्न, गौएँ और दक्षिणाएँ दी जायँ । और भी, चाण्डाल, पतित तथा कुत्तों तक को यथायोग्य वस्तुएँ देकर गायों को चारा दिया जाय और फिर गिरिराज को भोग लगाया जाय । इसके बाद खूब प्रसाद खा-पीकर, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहनकर गहनों से सज-सजा लिया जाय और चन्दन लगाकर गौ, ब्राम्हण, अग्नि तथा गिरिराज गोवर्धन की प्रदक्षिणा की जाय । पिताजी! मेरी तो ऐसी ही सम्पत्ति है। यदि आप-लोगों को रुचे तो ऐसा ही कीजिये। ऐसा यज्ञ गौ, ब्राम्हण और गिरिराज को तो प्रिय होगा ही; मुझे भी बहुत प्रिय है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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