श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 25-33

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एकादश स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः (13)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः श्लोक 25-33 का हिन्दी अनुवाद

पुत्रों! यह चित्त चिन्तन करते-करते विषयाकार हो जाता है और विषय चित्त में प्रविष्ट हो जाते हैं, यह बात सत्य हैं, तथापि विषय और चित्त ये दोनों ही मेरे स्वरूप भूत जीव के देह हैं—उपाधि हैं। अर्थात् आत्मा का चित्त और विषय के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है । इसलिये बार-बार विषयों का सेवन करते रहने से जो चित्त विषयों में आसक्त हो गया है और विषय भी चित्त में प्रविष्ट हो गये हैं, इन दोनों को अपने वास्तविक से अभिन्न मुझ परमात्मा का साक्षात्कार करके त्याग देना चाहिये । जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—ये तीनों अवस्थाएँ सत्वादि गुणों के अनुसार होती हैं और बुद्धि की वृत्तियाँ हैं, सच्चिदानन्द का स्वभाव नहीं। इन वृत्तियों का साक्षी होने के कारण जीव उनसे विलक्षण है। यह सिद्धान्त श्रुति, युक्ति और अनुभूति से युक्त है । क्योंकि बुद्धि-वृत्तियों के द्वारा होने वाला यह बन्धन ही आत्मा में त्रिगुणमयी वृत्तियों का दान करता है। इसिलये तीनों अवस्थाओं से विलक्षण और उनमें अनुगत मुझ तुरीय तत्व में स्थित होकर इस बुद्धि के बन्धन का परित्याग कर दे। तब विषय और चित्त दोनों का युगपत् त्याग हो जाता है । यह बन्धन अहंकार की ही रचना है और यही आत्मा के परिपूर्णतम सत्य, अखण्ड ज्ञान और परमानन्दस्वरूप को छिपा देता है। इस बात को जानकार विरक्त हो जाय और अपने तीन अवस्थाओं में अनुगत तुरीयस्वरूप में होकर संसार की चिन्ता को छोड़ दे । जब तक पुरुष की भिन्न-भिन्न पदार्थों में सत्यत्व बुद्धि, अहं बुद्धि और मम बुद्धि युक्तियों के द्वारा निवृत्त नहीं हो जाती, तब तक यह अज्ञानी यद्यपि जागता है तथापि सोता हुआ-सा रहता है—जैसे स्वप्नावस्था में जान पड़ता है कि मैं जाग रहा हूँ । आत्मा से अन्य देह आदि प्रतीयमान नाम-रूपात्मक प्रपंच का कुछ भी अस्तित्व नहीं है। इसलिये उनके कारण होने वाले वर्णाश्रमादि भेद, स्वर्गादि फल और उनके कारण भूत कर्म—ये सब-के-सब इस आत्मा के लिये वैसे ही मिथ्या है; जैसे स्वपनदर्शी पुरुष के द्वारा देखे हुए सब-के-सब पदार्थ जो जाग्रत्-अवस्था में समस्त इन्द्रियों के द्वारा बाहर दिखने वाले सम्पूर्ण क्षणभंगुर पदार्थों को अनुभव करता है और स्वप्नावस्था में हृदय में ही जाग्रत् में देखे हुए पदार्थों के समान ही वासनामय विषयों का अनुभव करता है और सुषुप्ति-अवस्था में उन सब विषयों को समेटकर उनके लय को भी अनुभव करता है, वह एक ही है। जाग्रत्-अवस्था के इन्द्रिय, स्वप्नावस्था के मन और सुषुप्ति की संस्कार वती बुद्धि का भी वही स्वामी है। क्योंकि वह त्रिगुणमयी तीनों अवस्थाओं का साक्षी है। ‘जिस मैंने स्वप्न देखा, जो मैं सोया, वही मैं जाग रहा हूँ’—इस स्मृति के बल पर एक ही आत्मा का समस्त अवस्थाओं में होना सिद्ध हो जाता है । ऐसा विचारकर मन की ये तीनों अवस्थाएँ गुणों के द्वारा मेरी माया से मेरे अंशस्वरूप जीव में कल्पित की गयी हैं और आत्मा में ये नितान्त असत्य हैं, ऐसा निश्चय करके तुम लोग अनुमान, सत्पुरुषों द्वारा किये गये उपनिषदों के श्रवण और तीक्ष्ण ज्ञान खड्ग के द्वारा सकल संशयों के आधार अहंकार का छेदन करके हृदय में स्थित मुझ परमात्मा का भजन करो ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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