श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 24-37

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 13:18, 29 October 2017 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replacement - "स्वरुप" to "स्वरूप")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

एकादश स्कन्ध : एकोनविंशोऽध्यायः (19)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकोनविंशोऽध्यायः श्लोक 24-37 का हिन्दी अनुवाद


उद्धवजी! जो मनुष्य इन धर्मों का पालन करते हैं और मेरे प्रति आत्म-निवेदन कर देते हैं, उनके हृदय में मेरी प्रेममयी भक्ति का उदय होता है और जिसे मेरी भक्ति प्राप्त हो गयी, उसके लिये और किस दूसरी वस्तु का प्राप्त होना शेष रह जाता है । इस प्रकार के धर्मों का पालन करने से चित्त में जब सत्वगुण की वृद्धि होती है और वह शान्त होकर आत्मा में लग जाता है, उस समय साधक को धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं । यह संसार विविध कल्पनाओं से भरपूर है। सच पूछो तो इसका नाम तो है, किन्तु कोई वस्तु नहीं है। जब चित्त इसमें लगा दिया जाता है, तब इन्द्रियों के साथ इधर-उधर भटकने लगता है। इस प्रकार चित्त में रजोगुण की बाढ़ आ जाती है, वह असत् वस्तु में लग जाता है और उसके धर्म, ज्ञान आदि तो लुप्त हो ही जाते हैं, वह अधर्म, अज्ञान और मोह का भी घर बन जाता है । उद्धव! जिससे मेरी भक्ति हो, वही धर्म है; जिससे ब्रम्ह और आत्मा की एकता का साक्षात्कार हो, वही ज्ञान है; विषयों से असंग—निर्लेप रहन ही वैराग्य है और अणिमादि सिद्धियाँ ही ऐश्वर्य हैं । उद्धवजी ने कहा—रिपुसूदन! यम और नियम कितने प्रकार के हैं ? श्रीकृष्ण! शम क्या है ? दम क्या है ? प्रभो! तितिक्षा और धैर्य क्या है ? आप मुझे दान, तपस्या, शूरता, सत्य और ऋत का भी स्वरूप बतलाइये। त्याग क्या है ? अभीष्ट धन कौन-सा है ? यज्ञ किसे कहते हैं ? और दक्षिणा क्या वस्तु है ? श्रीमान् केशव! पुरुष का सच्चा बल क्या है ? भग किसे कहते हैं ? और लाभ क्या वस्तु है ? उत्तम विद्या, लज्जा, श्री तथा सुख और दुःख क्या है ? पण्डित और मूर्ख के लक्षण क्या हैं ? सुमार्ग और कुमार्ग का क्या लक्षण है ? स्वर्ग और नरक क्या है ? भाई-बन्धु किसे मानना चाहिये ? और घर क्या है ? धनवान् और निर्धन किसे कहते हैं ? कृपण कौन है ? और ईश्वर किसे कहते हैं ? भक्तवत्सल प्रभो! आप मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दिजिये और साथ ही इनके विरोधी भावों की भी व्याख्या कीजिये । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘यम’ बारह हैं—अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), असंगता, लज्जा, असंचय (आवश्यकता से अधिक धन आदि न जोड़ना), आस्तिकता, ब्रम्हचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा और अभय। नियमों की संख्या भी बारह ही हैं। शौच (बाहरी पवित्रता और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथिसेवा, मेरी पूजा, तीर्थयात्रा, परोपकार की चेष्टा, सन्तोष और गुरुसेवा—इस प्रकार ‘यम’ और ‘नियम’ दोनों की संख्या बारह-बारह हैं। वे सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के साधकों के लिये उपयोगी हैं। उद्धवजी! जो पुरुष इनका पालन करते हैं, वे यम और नियम उनके इच्छानुसार उन्हें भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करते हैं । बुद्धि का मुझमें लग जाना ही ‘शम’ है। इन्द्रियों के संयम का नाम ‘दम’ है। न्याय से प्राप्त दुःख के सहने का नाम ‘तितिक्षा’ है। जिह्वा और ज्ञानेद्रिय पर विजय प्राप्त करना ‘धैर्य’ है । किसी से द्रोह न करना सबको अभय देना ‘दान’ है। कामनाओं का त्याग करना ही ‘तप’ है। अपनी वासनाओं पर विजय प्राप्त करना ही ‘शूरता’ है। सर्वत्र समस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्मा का दर्शन ही ‘सत्य’ है ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः