श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 26 श्लोक 25-35

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एकादश स्कन्ध: षड्विंशोऽध्यायः (26)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षड्विंशोऽध्यायः श्लोक 25-35 का हिन्दी अनुवाद


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! राजराजेश्वर पुरुरवा के मन में जब इस तरह के उद्गार उठने लगे, तब उसने उर्वशी लोक का परित्याग कर दिया। अब ज्ञानोदय होने के कारण उसका मोह जाता रहा और उसने अपने हृदय में ही आत्मस्वरूप से मेरा साक्षात्कार कर लिया और वह शान्त भाव में स्थित हो गया । इसलिये बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि पुरुरवा की भाँति कुसंग छोड़कर सत्पुरुषों का संग करे। संत पुरुष अपने सदुपदेशों से उसके मन की आसक्ति नष्ट कर देंगे । संत पुरुषों का लक्षण यह है कि उन्हें कभी किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं होती। उनका चित्त मुझमें लगा रहता है। उसके हृदय में शान्ति का अगाध समुद्र लहराता रहता है। वे सदा-सर्वदा सर्वत्र सब में सब रूप से स्थित भगवान का ही दर्शन करते हैं। उनमें अहंकार का लेश भी नहीं होता, फिर ममता की तो सम्भावना ही कान है। वे सर्दी-गरमी, सुख-दुःख आदि द्वन्दों में एकरस रहते हैं तथा बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक और पदार्थ सम्बन्धी किसी प्रकार का भी परिग्रह नहीं रखते । परमभाग्यवान् उद्धवजी! संतों के सौभाग्य की महिमा कौन कहे ? उनके पास सदा-सर्वदा मेरी लीला- कथाएँ हुआ करती हैं। मेरी कथाएँ मनुष्यों के लिये परम हितकर हैं; जो उनका सेवन करते हैं, उसके सारे पाप-तापों ओ वे धो डालती हैं । जो लोग आदर और श्रद्धा से मेरी लीला-कथाओं का श्रवण, गान और अनुमोदन करते हैं, वे मेरे परायण हो जाते हैं और मेरी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त कर लेते हैं । उद्धवजी! मैं अनन्त अचिन्त्य कल्याणमय गुण गणों का आश्रय हूँ। मेरा स्वरूप है—केवल आनन्द, केवल अनुभव, विशुद्ध आत्मा। मैं साक्षात् परब्रम्ह हूँ। जिसे मेरी भक्ति मिल गयी, वह तो संत हो गया। अब उसे कुछ भी पाना शेष नहीं है । उनकी तो बात ही क्या—जिसने उन संत पुरुषों की शरण ग्रहण कर ली उसकी भी कर्मजड़ता, संसारभय और अज्ञान आदि सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं। भला, जिसने अग्निभगवान का आश्रय ले लिया उसे शीत, भय अथवा अन्धकार का दुःख हो सकता है ? जो इस घोर संसार सागर में डूब-उतरा रहे हैं, उसके लिये ब्रम्हवेत्ता और शान्त संत ही एकमात्र आश्रय है, जैसे जल में डूब रहे लोगों के लिये दृढ़ नौका । जैसे अन्न से प्राणियों के प्राण की रक्षा होती है, जैसे मैं ही दीन-दुखियों का परम रक्षक हूँ, जैसे मनुष्य के लिये परलोक में धर्म ही एकमात्र पूँजी है—वैसे ही जो लोग संसार से भयभीत हैं, उनके लिये संतजन ही परम आश्रय हैं । जैसे सूर्य आकाश में उदय होकर लोगों को जगत् तथा अपने को देखने के लिये नेत्रदान करता है, वैसे ही संत पुरुष अपने को तथा भगवान को देखने के लिये अन्तर्दृष्टि देते हैं। संत अनुग्रहशील देवता हैं। संत अपने हितैषी सुहृद हैं। संत अपने प्रियतम आत्मा हैं। और अधिक क्या कहूँ, स्वयं मैं ही संत के रूप में विद्यमान हूँ । प्रिय उद्धव! आत्मसाक्षात्कार होते ही इलानन्दन पुरुरवा को उर्वशी के लोक की स्पृहा न रही। उसकी सारी आसक्तियाँ मिट गयीं और वह आत्माराम होकर स्वच्छन्द रूप से इस पृथ्वी पर विचरण करने लगा ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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