श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 36-48

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द्वादश स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः (12)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः श्लोक 36-48 का हिन्दी अनुवाद

जरासन्ध कई बार बड़ी-बड़ी सुनाएँ लेकर आया और भगवान ने उनका उद्धार करके पृथ्वी का भार हलका किया। कालयवन को मुचुकुन्द से भस्म करा दिया। द्वारकापुरी बसाकर रातों-रात सबको वहाँ पहुँचा दिया । स्वर्ग से कल्पवृक्ष एवं सुधर्मा सभा ले आये। भगवान ने दल-के-दल शत्रुओं को युद्ध में पराजित करके रुक्मिणी का हरण किया । बाणासुर के साथ युद्ध के प्रसंग में महादेवजी-पर ऐसा बाण छोड़ा कि वे जँभाई लेने लगे और इधर बाणासुर की भुजाएँ काट डालीं। पाग्-ज्योति पुरुष के स्वामी भौमासुर को मारकर सोलह हजार कन्याएँ ग्रहण कीं । शिशुपाल, पौण्ड्रक, शाल्व, दुष्ट दन्तवक्त्र, शम्बरासुर, द्विविद, पीठ, मुर, पंचजन आदि दैत्यों के बल-पौरुष का वर्णन करके यह बात बतलायी गयी कि भगवान ने उन्हें कैसे-कैसे मारा। भगवान के चक्र ने काशी को जला दिया और फिर उन्होंने भारतीय युद्ध में पाण्डवों को निमित्त बनाकर पृथ्वी का बहुत बड़ा भार उतार दिया । शौनकादि ऋषियों! ग्यारहवें स्कन्ध में इस बात का वर्णन हुआ है कि भगवान ने ब्राम्हणों के शाप के बहाने किस प्रकार यदुवंश का संहार किया। इस स्कन्ध में भगवान श्रीकृष्ण और उद्धव का संवाद बड़ा ही अद्भुत है । उसमें सम्पूर्ण आत्मज्ञान और धर्म-निर्णय का निरूपण हुआ है और अन्त में यह बात बतायी गयी है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अपने आत्मयोग के प्रभाव से किस प्रकार मर्त्यलोक का परित्याग किया । बारहवें स्कन्ध में विभिन्न युगों के लक्षण और उनमें रहने वाले लोगों के व्यवहार का वर्णन किया गया है तथा यह भी बतलाया गया है कि कलियुग में मनुष्यों की गति विपरीत होती है। चार प्रकार के प्रलय और तीन प्रकार की उत्पत्ति का वर्णन भी इसी स्कन्ध है । इसके बाद परम ज्ञानी राजर्षि परीक्षित् के शरीर त्याग की बात कही गयी है। तदनन्तर वेदों के शाखा-विभाजन का प्रसंग आया है। मार्कजी की सुन्दर कथा, भगवान के अंग-उपांगों का स्वरूप कथन और सबके अन्त में विश्वात्मा भगवान सूर्य के गणों का वर्णन है । शौनकादि ऋषियों! आप लोगों ने इस सत्संग के अवसर पर मुझसे जो कुछ पूछा था, उसका वर्णन मैंने कर दिया। इसमें सन्देह नहीं कि इस अवसर पर मैंने हर तरह से भगवान की लीला और उनके अवतार-चरित्रों का ही कीर्तन किया है । जो मनुष्य गिरते-पड़ते, फिसलते से, दुःख भोगते अथवा छींकते समय विवशता से भी ऊँचे स्वर से बोल उठता है—‘हरये नमः’, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है । यदि देश, काल एवं वस्तु से अपरिच्छिन्न भगवान श्रीकृष्ण के नाम, लीला, गुण आदि का संकीर्तन किया जाय अथवा उनके प्रभाव, महिमा आदि का श्रवण किया जाय तो वे स्वयं ही हृदय में आ विराजते अं और श्रवण तथा कीर्तन करने वाले पुरुष के सारे दुःख मिटा देते हैं—ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अन्धकार को और आँधी बादलों को तितर-बितर कर देती है । जिस वाणी के द्वारा घट-घटवासी अविनाशी भगवान के नाम, लीला, गुण आदि का उच्चारण नहीं होता, वह वाणी भावपूर्ण होने पर भी निरर्थक है—सारहीन है, सुन्दर होने पर भी असुन्दर है और उत्तमोत्तम विषयों का प्रतिपादन करने वाली होने पर भी असत्कथा है। जो वाणी और वचन भगवान के गुणों से परिपूर्ण रहते हैं, वे ही परम पावन हैं, वे ही मंगलमय हैं और वे ही परम सत्य हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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